यकीन नहीं होता कि 'ओह माय गॉड' जैसी उम्दा फिल्म बनाने वाले फिल्म निर्देशक उमेश शुक्ला 'ऑल इज़ वेल' जैसी खराब फिल्म बना सकते हैं। रोड ट्रिप के जरिये एक बेटे और माता-पिता के बीच दूरियां खत्म होने की कहानी उन्होंने पेश की है, लेकिन इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उल्लेखनीय कहा जा सके।
इन्दर (अभिषेक बच्चन) के पिता भल्ला (ऋषि कपूर) और मां पम्मी (सुप्रिया पाठक) आपस में लड़ते रहते हैं। इन्दर के पिता की एक बेकरी है जिससे खास आमदनी नहीं होती है। माता-पिता के विवादों से परेशान इन्दर बैंकॉक चला जाता है ताकि अपना म्युजिक अलबम निकाल सके।
दस साल बाद इन्दर को फोन आता है कि उसके पिता बेकरी बेचना चाहते हैं और इसके लिए इन्दर की साइन की जरूरत है। भारत लौटने पर इन्दर को पता चलता है कि उसकी मां को अल्जाइमर (भूलने की बीमारी) है। पिता पर बीस लाख रुपये का कर्ज है, चीमा नामक गुंडा यह वसूलना चाहता है। इन्दर के पिता बेकरी बेचने के लिए तैयार नहीं है। बैंकॉक से इन्दर के साथ निम्मी (असिन) भी भारत आती है। इन्दर को निम्मी बेहद चाहती है, लेकिन अपने माता-पिता के अनुभव के आधार पर इन्दर शादी नहीं करना चाहता। निम्मी की दूसरे लड़के से शादी तय हो जाती है।
चीमा को इन्दर, उसके माता-पिता और निम्मी किसी तरह चकमा देकर भाग निकलते हैं। इन्दर के पीछे चीमा और चीमा के पीछे पुलिस। इस भागदौड़ में कई गड़बड़ियां होती है। कुछ दिन बाप-बेटे साथ गुजारते हैं और उनके बीच की गलतफहमियां दूर हो जाती हैं।
फिल्म की स्क्रिप्ट बकवास है। ऐसे कई सवाल हैं जो फिल्म देखते समय लगातार उठते रहते हैं। भल्ला आखिर क्यों अपनी पत्नी पर चिल्लाता रहता है? इन्दर अपने पिता से इसलिए नाराज है क्योंकि वे जिंदगी में 'लूजर' है, लेकिन दस वर्षों में उसने भी न पैसा कमाया न नाम। पिता से पंगा था इसलिए दस साल से बात नहीं की, लेकिन मां को किस बात की सजा दी?
निम्मी आखिर क्यों इन्दर के पीछे पड़ी रहती है जबकि इन्दर उसमें कभी रूचि नहीं लेता और शादी से साफ इनकार भी कर देता है। इन्दर की मां को अल्जाइमर रहता है, लेकिन फिल्म के आखिर में वह अचानक कैसे ठीक हो जाती है? ऐसी कई सवाल और हैं जो उठाए जा सकते हैं। पौराणिक किरदार श्रवण कुमार से भी इन्दर के कैरेक्टर को जोड़ने की तरकीब फिजूल है। कोई भी किरदार ऐसा नही है जिससे दर्शक अपने आपको कनेक्ट कर सके।
निर्देशक उमेश शुक्ला का प्रस्तुतिकरण बहुत ही कमजोर है। हास्य के नाम पर उन्होंने ऐसे दृश्य परोसे हैं मानो सब टीवी का कोई फूहड़ धारावाहिक देख रहे हो। बासी चुटकलों से हंसाने की कोशिश की है। स्क्रिप्ट की खामियों को कैसे वे नजरअंदाज कर गए ये खोज का विषय है। किरदारों को भी वे ठीक से पेश नहीं कर पाए। मनोरंजन का फिल्म में नामो-निशान नहीं है।
बुरी स्क्रिप्ट और निर्देशन का असर कलाकारों की एक्टिंग पर भी पड़ा। ऋषि कपूर चीखते-चिल्लाते रहे। अभिषेक बच्चन का अभिनय देख ऐसा लगा कि मानो उन्हें फिल्म करने में कोई रूचि ही नहीं है। यही हाल असिन का भी रहा। सुप्रिया पाठक जैसी अभिनेत्री को तो अवसर ही नहीं मिला। चीमा के रूप में ज़ीशान अय्यूब ने अपने अभिनय से किरदार में जान डालने की कोशिश की है। सोनाक्षी सिन्हा ने सिर्फ संबंधों की खातिर एक आइटम सांग किया जो देखने लायक ही नहीं है।
फिल्म का टाइटल जरूर बताता है कि 'ऑल इज़ वेल', लेकिन सच्चाई से यह बात कोसों दूर है।
निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, वरुण बजाज
निर्देशक : उमेश शुक्ला
संगीत : हिमेश रेशमिया, अमाल मलिक, मिथुन, मीत ब्रदर्स अंजान