बैंगिस्तान: फिल्म समीक्षा

कॉमेडी कैसे ट्रेजेडी में बदल जाती है इसका सटीक उदाहरण है 'बैंगिस्तान'। फरहान अख्तर ने बतौर निर्माता भी कुछ अच्छी फिल्में बनाई हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि वे 'बैंगिस्तान' पर पैसे लगाने के लिए कैसे राजी हो गए। फिल्म के शुरू होने के दस मिनट बाद ही समझ आ जाता है कि आपके अगले कुछ घंटे परेशानी में बितने वाले हैं और फिल्म इस अंदेशे को गलत साबित नहीं करती है। 
 
इन दिनों आतंकवाद और धर्म हिंदी फिल्ममेकर्स के प्रिय विषय बन गए हैं। 'बैंगिस्तान' भी इसी के इर्दगिर्द घूमती है। उत्तरी बैंगिस्तान और दक्षिण बैंगिस्तान पृथ्वी पर कहीं मौजूद हैं। उत्तरी बैंगिस्तान में मुसलमान तो दक्षिण बैंगिस्तान में हिंदू रहते हैं। आए दिन इनमें लड़ाई होती रहती है। 
 
13वीं वर्ल्ड रिलिजियस कांफ्रेंस पोलैण्ड में होती है जिसमें उत्तरी बैंगिस्तान के इमाम (टॉम अल्टर) और दक्षिण बैंगिस्तान के शंकराचार्य ‍(शिव सुब्रमण्यम) भी मुलाकात कर बैंगिस्तान में शांति स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन 'मां का दल' और 'अल काम तमाम' ऐसा नहीं चाहते हैं। 
अल काम तमाम हफीज़ बिन अली उर्फ हेरॉल्ड (रितेश देशमुख) को हिंदू बना कर तथा मां का दल प्रवीण चतुर्वेदी (पुलकित सम्राट) को मुसलमान बना कर पोलैण्ड भेजते हैं ताकि वे वहां पर बम धमाका कर दुनिया में शांति स्थापित करने वालों के मंसूबों पर पानी फेर दे तथा हिंदू-मुस्लिम के बीच की खाई और चौड़ी हो जाए। पोलैण्ड में ये दोनो आतंकवादी साथ में रूकते हैं और इनके इरादे बदल जाते हैं। 
 
एक गंभीर विषय को कॉमेडी का तड़का लगाकर निर्देशक करण अंशुमन ने पेश किया है। फिल्म में बिना नाम लिए उन्होंने कई दृश्य ऐसे रचे हैं जिसका अंदाजा दर्शक लगा सकते हैं कि उनका इशारा किस ओर है, लेकिन जिस कॉमिक अंदाज में बात को पेश किया गया है वो बेहूदा है। कॉमेडी के नाम पर कुछ प्रसंग रचे गए हैं वो खीज पैदा करते हैं। न फिल्म के व्यंग्य में धार है और न ही विषय के साथ यह न्याय कर पाती है। 
जितना खराब निर्देशन है उससे ज्यादा खराब स्क्रिप्ट है। दृश्यों को बहुत लंबा लिखा गया है और हंसाने की कोशिश साफ नजर आती है। कुछ दृश्यों को रखने का तो उद्देश्य ही समझ में नहीं आता है। स्थिति और बदतर हो जाती है जब संवाद भी साथ नहीं देते हैं। 
 
दो-तीन दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो पूरी फिल्म इतनी उबाऊ है कि खत्म होने के पहले आपको नींद आ सकती है या आप थिएटर से बाहर निकल सकते हैं।
 
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कई बार ऐसा होता है कि खराब फिल्म को अच्छे अभिनेता संभाल लेते हैं, लेकिन इस डिपार्टमेंट में भी फिल्म कंगाल साबित हुई है। रितेश देशमुख को तो फिर भी झेला जा सकता है, लेकिन पुलकित सम्राट का 'सलमान खान हैंगओवर' पता नहीं कब खत्म होगा। वे बहुत ज्यादा प्रयास करते हैं और ये बात आंखों को चुभती है। उनकी खराब एक्टिंग का असर रितेश पर भी हो गया। जैकलीन फर्नांडिस का रोल बहुत छोटा है और उन्हें इसलिए जगह मिली है कि फिल्म में एक नामी हीरोइन भी होना चाहिए। यह रोल इतना महत्वहीन है कि यदि हटा भी दिया जाए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। 
 
कुल मिलाकर समय और धन की बरबादी है 'बैंगिस्तान'। 
 
बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, जंगली पिक्चर्स
निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी
निर्देशक : करण अंशुमन
संगीत : राम सम्पत
कलाकार : रितेश देशमुख, जैकलीन फर्नांडिस, पुलकित सम्राट, कुमुद मिश्रा, चंदन रॉय सान्याल, आर्य बब्बर 
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट
रेटिंग : 1/5 

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