इन दिनों हिंदी फिल्मों में उत्तर प्रदेश छाया हुआ है। पिछले सप्ताह रिलीज हुई 'टॉयलेट एक प्रेम कथा' उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाके में ले जाती है तो इस सप्ताह प्रदर्शित फिल्म 'बरेली की बर्फी' यूपी के बरेली में सेट है। यह फिल्म फ्रेंच बुक 'द इनग्रेडिएंट्स ऑफ लव' से प्रेरित है। पेरिस से कहानी को बरेली में शिफ्ट किया गया है। इस फिल्म का निर्देशन अश्विनी अय्यर तिवारी ने किया है जिन्होंने 'नील बटे सन्नाटा' निर्देशित की थी जबकि लिखा नितेश तिवारी (दंगल के निर्देशक) और श्रेयस जैन ने।
बिट्टी मिश्रा (कृति सेनन) वर्किंग गर्ल है, जिसे ब्रेक डांस और इंग्लिश फिल्में देखना पसंद है और स्मोकिंग भी करती है। इस कारण उसकी शादी नहीं हो पा रही है। मां परेशान है जबकि पिता को उम्मीद है कि कुछ न कुछ हो जाएगा। एक बार 'बरेली की बर्फी' नामक कहानी की किताब बिट्टी के हाथ लगती है। इस कहानी में जिस लड़की का वर्णन है वो हूबहू बिट्टी जैसी है। यह पढ़ कर बिट्टी इसके लेखक प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) से मिलना चाहती है और इस सिलसिले में इस किताब को छापने वाले प्रिंटिंग प्रेस के मालिक चिराग दुबे (आयुष्मान खुराना) से मिलती है।
बिट्टी को यह पता नहीं रहता है कि यह किताब चिराग ने ही लिखी है, लेकिन नाम प्रीतम का दे दिया है। बिट्टी को वह प्रीतम का पता नहीं बताता। चिराग को बिट्टी चिठ्ठी लिख कर प्रीतम तक पहुंचाने का कहती है। चिराग वह अपने पास रख लेता है और प्रीतम बन कर जवाब देता है। बिट्टी को मन ही मन चिराग चाहने लगता है। जब बात बहुत आगे बढ़ती है तो बिट्टी से मिलाने के लिए वह प्रीतम को बुलाता है। उसके पहले चिराग, प्रीतम को अकड़ू और रंगबाज बनाने की ट्रेनिंग देता है ताकि बिट्टी उसे नापसंद करे।
चिराग की यह चाल उलटी पड़ जाती है। बिट्टी को प्रीतम पसंद आने लगता है। परेशान होकर चिराग इस रिश्ते की तोड़ने की सारी कोशिश करता है।
इस कहानी में कई उतार-चढ़ाव देने की कोशिश की गई है, लेकिन जरूरी नहीं है कि हर ट्विस्ट और टर्न अच्छे ही हों। कहानी में कुछ बातें अजीब लगती है, जैसे बिट्टी को चिराग क्यों नहीं बताता कि उसी ने 'बरेली की बर्फी' लिखी है? अपने प्रेम का इजहार करने में वह क्यों घबराता है? प्रीतम से मिलने के बाद बिट्टी क्यों नहीं पूछती कि उसके जैसा किरदार आखिर कैसे लिखा गया है, जबकि इसी बात को पूछने के लिए वह उसे ढूंढ रही थी? फिल्म के आखिर में कुछ प्रश्नों के जवाब मिलते भी हैं, लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म देखते समय ये परेशान करते हैं, जिस कारण दर्शक फिल्म का पूरा मजा नहीं ले पाता।
कहानी की कमजोरियों को कुछ हद तक स्क्रीनप्ले ढंक लेता है। ये बहुत ही मजेदार तरीके से लिखा गया है। प्रीतम और बिट्टी की पहली मुलाकात, प्रीतम को रंगबाज बनाने की ट्रेनिंग देना, बिट्टी के पिता का पंखे से बात करना जैसे कई दृश्य हैं जो थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद आते रहते हैं और मनोरंजन करते रहते हैं। दो दृश्यों को अच्छे से कनेक्ट भी किया गया है। संवाद इस मामले में अहम रोल निभाते हैं। 'दाल तुम्हारी गल गई, सीटी किसी और की बज गई' जैसे गुदगुदाने वाले संवाद लगातार सुनने को मिलते हैं, जिससे दर्शकों का फिल्म में मन लगा रहता है। साथ ही इस बात की उत्सुकता भी बनी रहती है कि अंत में होगा क्या?
निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने अपने प्रस्तुतिकरण में इस बात का ध्यान रखा कि फिल्म हल्की-फुल्की और मनोरंजक लगे। कॉमेडी के नाम पर फिल्म को 'चीप' होने से उन्होंने बचाया है। हालांकि कहानी और भी बेहतर तरीके से पेश की जा सकती थी। ये भी संभव था कि दर्शकों के लिए राज पहले ही खोल दिया जाता। अश्विनी ने अच्छी लोकेशन ढूंढी और दृश्यों को अच्छी तरह से गढ़ा। कुछ जगह जरूर उनके साथ से फिल्म फिसलती है, लेकिन जल्दी ही पटरी पर आ जाती है।
संगीत फिल्म का माइनस पाइंट है। एक-दो हिट गीत इस तरह की फिल्मों में जरूरी होते हैं। फिल्म का संपादन ढीला है और कसावट लाई जा सकती थी।
एक्टिंग डिपार्टमेंट में यह फिल्म अमीर है। कृति सेनन का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। यूपी के लहजे को उन्होंने अच्छे से पकड़ा और बिंदास बिट्टी की भूमिका अच्छे से निभाई। आयुष्मान खुराना ने अपना सौ प्रतिशत दिया, हालांकि उनका सामना राजकुमार राव जैसे अभिनेता से हुआ और कुछ सीन में वे राजकुमार के आगे फीके भी पड़े। एक घोंचू किस्म के इंसान से तेजतर्रार इंसान में बदलने की प्रक्रिया को राजकुमार राव ने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया। बिट्टी के पिता के किरदार में पंकज त्रिपाठी और मां के किरदार में सीमा पाहवा का चयन एकदम सटीक रहा।
यदि आप हल्की-फुल्की, रोमांटिक और कॉमेडी फिल्म देखने के मूड में है तो यह 'बरेली की बर्फी' खाई जा सकती हैं।