सबसे पहले तो बेलबॉटम से जुड़े लोगों को इसलिए बधाई क्योंकि उन्होंने डूबते हुए सिनेमाघरों के व्यवसाय को आधार देने के लिए अपनी फिल्म थिएटर में रिलीज करने का फैसला किया। डेढ़ साल से ज्यादा समय के बाद किसी ए-लिस्टर सितारे की कोई फिल्म थिएटर में रिलीज हुई है। यह बात तब और महत्वपूर्ण हो जाती है कि देश के कुछ हिस्सों में (जिनमें महाराष्ट्र भी शामिल है जहां से 35 से 40 प्रतिशत व्यवसाय हिंदी फिल्मों का होता है) सिनेमाघर बंद हैं, जहां खुले हैं वहां 50 प्रतिशत कैपिसिटी के साथ फिल्म दिखाए जाने की शर्त चस्पा है और कई शहरों में रात के शो दिखाने की इजाजत नहीं है। नफा-नुकसान की परवाह किए बिना बेलबॉटम का सिनेमाघर में रिलीज होना फिल्म निर्माताओं और दर्शकों के खोए आत्मविश्वास को लौटाने में मददगार होगा। बैक टू नॉर्मल की ओर यह प्रयास सराहनीय है जिसे बॉक्स ऑफिस के गणित से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
बेलबॉटम अस्सी के दशक में पहनी जाने वाली पेंट होती थी, जिसकी नीचे से चौड़ाई बहुत ज्यादा होती थी। अस्सी के दशक में बनी अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना की फिल्मों में यह फैशन नजर आता है। चूंकि फिल्म का टाइम पीरियड अस्सी के दशक के आसपास घूमता है इसलिए फिल्म का नाम बेलबॉटम रखा गया है, साथ ही इसमें रॉ के लिए काम करने वाले एजेंट की पहचान छुपा कर उसे बेलबॉटम का नाम दिया गया है।
यह फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित है और कुछ छूट भी ली गई है। यह लाइन दर्शकों को कन्फ्यूज करती है कि क्या सही है या क्या गलत, फैसला करना मुश्किल हो जाता है। बेलबॉटम में दर्शाया गया है कि 1978 में भारत और पाकिस्तान के संबंध अच्छे थे, लेकिन पाकिस्तान ऊपर से कुछ और था और अंदर से कुछ और। भारत के कुछ लोगों को भड़का कर टुकड़े करवाने की उसकी मंशा थी। इस सिलसिले में लगातार भारतीय हवाई जहाज हाइजैक हो रहे थे जिसके बदले में आतंकी अपनी मांग भारत सरकार से मनवा रहे थे।
अंशुल मल्होत्रा उर्फ बेलबॉटम (अक्षय कुमार) की मां का देहांत ऐसी ही एक घटना के दौरान हुआ था। बेलबॉटम बेहद होशियार है। हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन बोल-पढ़ और लिख सकता है। शतरंज का चैम्पियन है। संगीत की क्लास लेता है। उसके इस दिमाग का इस्तेमाल रॉ एक मिशन के दौरान करता है। आतंकियों ने एक प्लेन हाइजैक कर लिया है और वे अपनी मांग मंगवाना चाहते हैं। बेलबॉटम भारत की प्रधानमंत्री के साथ बैठ कर हाइजैकर्स के दिमाग से खेलता है और फिर मिशन को अंजाम देने के लिए फील्ड पर उतरता है।
असीम अरोरा और परवेज शेख द्वारा लिखी गई कहानी की प्रेरणा 24 अगस्त 1984 को दिल्ली से उड़ी आईसीसी 691 फ्लाइट से ली है जो बाद में हाइजैक कर ली गई थी। इसके यात्रियों को बचाने के मिशन पर फिल्म आधारित है। फिल्म का दूसरा हिस्सा इसी पर खर्च किया गया है। पहले हिस्से में दिखाया गया है कि बेलबॉटम किस तरह रॉ में आया। कैसे उसने एक मिशन पर काम किया। इससे दर्शकों में उसके प्रति विश्वास जागता है।
कहानी अच्छी है क्योंकि इस घटना के बारे में ज्यादा लोगों को जानकारी नहीं है। उस समय की राजनैतिक परिस्थितियां और हालात को अच्छी तरह से समझाया गया है। पाकिस्तान की कूटनीति को खासा स्थान दिया गया है। कहानी का प्लस पाइंट है ये कि मिशन ज्यादातर दिमाग से लड़ा जाता है और एक्शन इसमें कम है। देशभक्ति के नाम पर बहकने से बचा गया है। हालांकि कुछ उस तरह के संवाद रखे गए हैं जो सिनेमाघर में दर्शकों को लुभाने के लिए रखे जाते हैं।
निर्देशक रंजीत एम. तिवारी ने फिल्म की कहानी को बार-बार आगे-पीछे घुमाया है। इससे थोड़ा कन्फ्यूजन पैदा होता है क्योंकि एडिटिंग में सफाई नहीं है। दर्शकों को समझने में थोड़ा समय लगता है कि कौन सा ट्रेक दिखाया जा रहा है। हालांकि उन्होंने टिपिकल बॉलीवुड हीरो के लिए हर चीज बेहद आसान रखी है। हीरो की राह में ज्यादा बाधा नहीं आती है और उसका हर दांव सफल रहता है। फिर भी रंजीत की तारीफ इस बात के लिए की जा सकती है कि उन्होंने ड्रामे को इस तरह से पेश किया है कि दर्शकों की रूचि फिल्म में अंत तक बनी रहती है। क्लाइमैक्स का एक्शन थोड़ा निराश करता है। इसे बेहतर लिखा और फिल्माया जा सकता था।
फिल्म की कास्टिंग जोरदार है। अक्षय कुमार अपने रोल में फिट लगे हैं। उनका अभिनय भी अच्छा है। वाणी कपूर का रोल भले छोटा हो, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। फिल्म के अंत में सरप्राइज देती हैं। इंदिरा गांधी के रूप में लारा दत्ता को पहचान पाना कठिन है। लारा की एक्टिंग बढ़िया है। हुमा कुरैशी का रोल ठीक से नहीं लिखा गया है। आदिल हुसैन सहित तमाम सपोर्टिंग कलाकारों की एक्टिंग अच्छी है।
डेनियल बी जॉर्ज का बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म के असर को गहरा करता है। प्रोडक्शन डिजाइन में फिल्म थोड़ी मात खाती है। कम बजट के अलावा यह कारण भी हो सकता है कि इस फिल्म को कोरोना काल में फिल्माया गया है जिसमें कई गाइडलाइनों का पालन करना पड़ा। वीएफएक्स एवरेज हैं। फिल्म थ्रीडी में भी उपलब्ध है, हालांकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी।
कुल मिलाकर 'बेलबॉटम' को कमियों के बावजूद बिग स्क्रीन का मजा लेने के लिए वक्त दिया जा सकता है।