बियॉण्ड द क्लाउड्स : फिल्म समीक्षा

ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। चिल्ड्रन ऑफ हेवन, द कलर ऑफ पैराडाइज़, द सांग ऑफ स्पेरोज़ जैसी बेहतरीन फिल्में वे बना चुके हैं। उनकी फिल्म में मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों के समीकरणों को सूक्ष्मता के साथ दिखाया जाता है। वे उन लोगों को फिल्म का मुख्य किरदार बनाते हैं जिन्हें जीवन में हर पल संघर्ष करना होता है और वे आशा का साथ नहीं छोड़ते। 
 
माजिद ने इस बार हिंदी फिल्म 'बियॉण्ड द क्लाउड्स' बनाई और पूरी फिल्म को मुंबई में फिल्माया है। मुंबई विदेशी फिल्मकारों को भी लुभाता रहा है और उनका इस शहर को देखने का नजरिया अलग ही होता है। आमतौर पर हिंदी फिल्मों में चमक-दमक वाली मुंबई देखने को मिलती है, लेकिन ऊंची और चमचमाती बिल्डिंगों के साथ लाखों लोग झुग्गियों में भी रहते हैं जिनका जीवन अभावग्रस्त होता है। 
 
बियॉण्ड द क्लाउड्स की पहली फ्रेम में मुंबई का वो पुल नजर आता है जहां लाखों रुपये की महंगी कारें दौड़ रही हैं। फिर कैमरा पुल के नीचे जाता है जहां संकरी-सी जगह में लोग रहते हैं। यहां से माजिद मजीदी ऐसा मुंबई दिखाते हैं जो बहुत कम दिखाई देता है। कई मुंबईवासी भी अपने इस शहर को पहचान नहीं पाएंगे। 
 
कहानी है आमिर (ईशान खट्टर) की जो ड्रग्स बेचता है और मुंबई की निचली बस्ती में रहता है। उसे बहन तारा ने पाल पोसकर बढ़ा किया है। तारा के साथ एक इंसान गलत व्यवहार करने की कोशिश करता है और तारा उसके सिर पर जोरदार वार कर देती है। 
 
वो आदमी जाता है अस्पताल और तारा पहुंच जाती है जेल में। उस आदमी का जिंदा रहना जरूरी है वरना तारा को हत्या करने के बदले में उम्रकैद हो सकती है। आमिर उसी आदमी की अस्पताल में सेवा करता है जिसने उसकी बहन के साथ गलत व्यवहार किया है। 
 
उस आदमी का परिवार कई दिनों बाद दक्षिण भारत से आता है जिसमें बूढ़ी मां और दो छोटी बेटियां हैं। वे हिंदी नहीं समझते। आमिर उनसे टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात करता है (कितनी अजीब बात है कि भारत के दो अलग-अलग प्रांतों में रहने वालों को अंग्रेजी ही जोड़ती है)। सभी की बुरी हालत देख आमिर उन्हें अपने घर ले आता है। उनसे आमिर का एक अनोखा संबंध बन जाता है। 
 
आमिर जितना बुरा लगता है उतना है नहीं। वह घायल आदमी की एक बेटी को बेचने का प्लान भी बनाता है ताकि अपनी बहन की जमानत करा सके, लेकिन उसकी अच्छाई ऐसा करने से रोक लेती है। अपनी बहन के साथ गलत करने वाले की जान बचा रहा है और उसके परिवार को खाना खिला रहा है। उसे कई बार समझ नहीं आता कि वह अच्छा कर रहा है या बुरा?  
 
आमिर की इस उलझन को निर्देशक माजिद मजीदी ने बेहतरीन तरीके से दर्शाया है। आमिर की उलझन और दर्द को दर्शक  महसूस कर सकते हैं। मुंबई के इस स्ट्रीट स्मार्ट छोरे की अच्‍छाई बार-बार सतह पर आती रहती है। शुरू में वह उस शख्स के परिवार से नफरत करता है, लेकिन जब अपने घर के बाहर बारिश में उन्हें भीगते देखता है तो घर के अंदर ले आता है। उसका यह हृदय परिवर्तन वाला सीक्वेंस बेहतरीन है। 
 
निर्देशक ने यह दर्शाया है कि प्यार की कोई भाषा नहीं होती है। आमिर और वो परिवार एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते हैं, लेकिन आंखों के जरिये एक-दूसरे की मन की बात जान लेते हैं। 
 
फिल्म में एक और सीन कमाल का है जब आमिर लड़की को बेचने के लिए ले जाता है। रास्ते में दोनों शरबत पीते हैं और लड़की का हाथ खराब हो जाता है। जब भीड़ में दोनों अलग होते हैं तो लड़की घबराकर अपने गंदे हाथ से आमिर का जैकेट पकड़ लेती है और जैकेट खराब हो जाता है। आमिर उसी पल समझ जाता है कि वह लड़की उस पर कितना विश्वास करती है कि अपना गंदा हाथ भी उसके जैकेट पर लगा देती है। उसी पल वह उस लड़की को बेचने का इरादा त्याग देता है। 
 
निर्देशक के रूप में माजिद मजीदी प्रभावित करते हैं। कहानी को उन्होंने ऐसे पेश किया है कि दर्शक खुशी, दु:ख और दर्द को महसूस करते हैं। उन्होंने दर्शाया है कि अभावग्रस्त लोग छोटी-छोटी बातों में खुशी ढूंढ लेते हैं। जेल में नारकीय जीवन जीने वाली तारा एक छोटे-से बच्चे से अद्‍भुत रिश्ता बना लेती है। 
 
तारा द्वारा उस शख्स को मारने वाला सीन माजिद ने अद्‍भुत तरीके से फिल्माया है। धोबी घाट में सूख रही सफेद चादरों के बीच परछाई के जरिये यह सीन दिखाया गया है। आमिर और छोटी बच्चियों के रिश्ते में मासूमियत और खूबसूरती की सुगंध महसूस कर सकते हैं। 
 
माजिद ने अपने कलाकरों से भी बेहतरीन काम लिया है। ईशान खट्टर ने पहली फिल्म में ही शानदार अभिनय किया है। उन्होंने भावनाओं को त्रीवता के साथ दर्शाया है। गुस्सा, आक्रामकता और अच्छाई के रंग उनके अभिनय में देखने को मिलते हैं। घर जाकर वे गुस्से में जब फट पड़ते हैं उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक है। आंखों का इस्तेमाल उन्होंने अच्छे से किया है। 
 
मालविका मोहनन का डेब्यू भी शानदार रहा है। तारा के रूप में उन्होंने अपनी भूमिका गंभीरता के साथ निभाई है। उन्हें थोड़ा और फुटेज दिया जाता तो बेहतर होता। बूढ़ी स्त्री के रूप में जीवी शारदा का अभिनय उल्लेखनीय है। दो छोटी बच्चियों ने अपने अभिनय से फिल्म को मासूमियत दी है। 
 
सिनेमाटोग्राफर अनिल मेहता ने माजिद मजीदी की आंख से मुंबई को दिखाया है। धोबी घाट, सूखती चादरें, कीचड़, कोठा, लोकल ट्रेन, तंग गलियां, झोपड़ी की पृष्ठभूमि में ऊंची बिल्डिंग जैसे रियल लोकेशन्स फिल्म को धार देते हैं। एआर रहमान का बैकग्राउंड म्युजिक कलाकारों की मनोदशा को अनुरूप है और फिल्म को ताकत देता है। 
 
भले ही 'बियॉण्ड द क्लाउड्स' में माजिद अपने उच्चतम स्तर को छू नहीं पाए हों, लेकिन उनकी यह फिल्म देखने लायक है। 
 
बैनर : ज़ी स्टूडियो, नम: पिक्चर्स
निर्देशक : माजिद मजीदी
संगीत : ए.आर. रहमान
कलाकार : ईशान खट्टर, मालविका मोहनन, गौतम घोष, जीवी शारदा
रेटिंग : 3.5/5 

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