80 का दशक और इनकम टैक्स के छापे पर आधारित फिल्म 'स्पेशल 26' वर्ष 2013 में आई थी। अजय देवगन की रेड में भी यही समय है और छापा है, लेकिन 'स्पेशल 26' से यह इस मायने में अलग है कि वहां पर चोरों की गैंग ऑफिसर्स बन कर नकली छापे मारती थी और यहां पर एक ईमानदार ऑफिसर की कहानी है।
ईमानदार ऑफिसर अमय पटनायक (अजय देवगन) नेताओं की आंखों की किरकिरी है और उसके 49 ट्रांसफर हो चुके हैं। लखनऊ पहुंचते ही उसे सांसद ताऊजी (सौरभ शुक्ला) के बारे में जानकारी मिलती है कि इनके पास 420 करोड़ रुपये के आसपास की संपत्ति है। अभी भी यह बहुत बड़ी रकम है और 1981 में यह कितनी बड़ी होगी इसका आप अंदाजा ही लगा सकते हैं।
ताऊजी के यहां छापा डालना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन यह जोखिम अमय उठा लेता है। किस तरह से वह छिपी हुई संपत्ति अपनी टीम के साथ ढूंढता है? किस तरह अमय के काम में ताऊजी और उसका लंबा-चौड़ा परिवार दखल डालता है? किस तरह के दबाव अमय को बर्दाश्त करने पड़ते हैं? यह सब रोचक तरीके से फिल्म में दिखाया गया है।
रितेश शाह द्वारा लिखी गई कहानी (स्क्रीनप्ले और संवाद भी) ऐसे दो मजबूत किरदारों की कहानी है जिसमें एक अत्यंत ईमानदार है तो दूसरा घोर बेईमान। इनकम टैक्स का छापा दोनों को साथ ला खड़ा करता है और दोनों अपने गुणों व अवगुणों के साथ टकराते हैं।
कहानी एक ऐसे छापे के बारे में है जो घंटों तक चलता रहता है। एक ही लोकेशन पर ज्यादातर समय कैमरा घूमता रहता है। फिल्म का हीरो भी ज्यादातर समय में एक ही ड्रेस में रहता है। ऐसे में दर्शकों को बहलाना आसान बात नहीं है, लेकिन स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि दर्शक फिल्म से बंधे रहते हैं।
खासतौर पर ताऊजी और अमय के बीच जो बातचीत है वो बेहद रोचक है। यहां पर फिल्म के संवाद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। फिल्म के पहले हाफ में ताऊ भारी पड़ता है जब अमय और उसकी टीम के हाथ कुछ भी नहीं लगता, लेकिन धीरे-धीरे यह बाजी पलटने लगती है। इस छापे के तनाव के बीच कुछ हल्के-फुल्के दृश्य भी हैं। ताऊ की मां वाले सीन हंसाते हैं।
हालांकि जैसे-जैसे फिल्म समाप्ति की ओर जाती है मनोरंजन का ग्राफ नीचे आने लगता है। दृश्यों में दोहराव आने लगता है। ऐसा लगता है कि अब कुछ नया सूझ नहीं रहा है। फिल्म का क्लाइमैक्स खूब हंगामेदार है, लेकिन प्रभावित नहीं कर पाता।
निर्देशक के रूप में राजकुमार गुप्ता का काम ठीक है। एक ऐसी कहानी जिसमें दिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, वे दर्शकों को बांध कर रखते हैं। उन्होंने फिल्म को रियल रखने की कोशिश की है साथ कमर्शियल फॉर्मूलों का मोह भी नहीं छोड़ पाए हैं। जरूरी नहीं है कि फिल्म में हीरोइन रखी जाए। 'रेड' में इलियाना डीक्रूज नहीं भी होती तो भी फर्क नहीं पड़ता। अजय-इलियाना के बीच के दृश्य बोर करते हैं और बेवजह फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं।
अमय को इस छापे के पूर्व सारी जानकारी देने वाला सोर्स, जिसकी तलाश ताऊ को भी रहती है, के सस्पेंस पर से परदा हटता है तो मजा नहीं आता।
अजय देवगन और सौरभ शुक्ला का अभिनय फिल्म में रूचि बने रहने का बड़ा कारण है। एक ईमानदार ऑफिसर के रूप में अजय बिलकुल परफेक्ट लगे। उनका अभिनय एकदम सधा हुआ है और पहली फ्रेम से ही वे दर्शकों को अपने साथ कर लेते हैं।
ताऊजी जैसे किरदार सौरभ शुक्ला जैसा अभिनेता ही निभा सकता है। उन्होंने भी अपना किरदार फिल्म की शुरुआत से बारीकी से पकड़ा और अंत तक नहीं छोड़ा। उनकी संवाद अदायगी तारीफ के काबिल है।
इलियाना डीक्रूज का रोल महत्वहीन था, हालांकि उनका अभिनय ठीक-ठाक है। पुष्पा सिंह छोटे से किरदार में असर छोड़ती है।
फिल्म का संगीत अच्छा है। सानू एक पल चैन, नित खैर मांगा सुनने लायक हैं। हालांकि गानों की फिल्म में जगह नहीं बनती थी।
फिल्म में कई अगर-मगर हैं, लेकिन समग्र रूप से यह ऐसी फिल्म है जो देखी जा सकती है।