बुलबुल चुड़ैल है या देवी? इस प्रश्न का उत्तर आप 'बुलबुल' देखते समय अपनी समझ के हिसाब से पता कर सकते हैं। गांव वालों के लिए वह चुड़ैल है क्योंकि पुरुषों का लगातार कत्ल हो रहा है, लेकिन इन लोगों को मारने की जो वजह है उसे आप देवी का दण्ड भी कह सकते हैं।
बुलबुल का ट्रेलर और फिल्म पूरी तरह अलग है। ट्रेलर देख आप कुछ अंदाज लगाते हैं, लेकिन फिल्म में कुछ और ही देखने को मिलता है। इसे महज हॉरर फिल्म समझना गलत होगा।
कहानी 1881 में बंगाल में सेट है। यह वो दौर था जब छोटी बच्चियों की शादी उम्र में तिगुने/ चौगुने पुरुषों से कर दी जाती थी। लड़कियों को बिछिया यह सोच कर पहनाई जाती थी ताकि वे ज्यादा 'उड़' ना सके।
गुड़िया से खेलने की उम्र में बुलबुल का ब्याह अपने से उम्र में कहीं बड़े इंद्रनील से हो जाता है। ससुराल में इंद्रनील का जुड़वा मंदबुद्धि भाई महेंद्र, महेंद्र की पत्नी बिनोदिनी और एक छोटा भाई सत्या है जो बुलबुल का हमउम्र है।
कहानी 20 साल की छलांग लगाती है। सत्या को बुलबुल पसंद करने लगती है और यह बात इंद्रनील को पसंद नहीं आती। वह सत्या को लंदन भेज देता है। पांच साल बाद जब सत्या लौटता है तो बुलबुल उसे एक रहस्यमय औरत लगती है और कहानी एक नया मोड़ लेती है।
फिल्म की कहानी ठीक है, लेकिन किरदारों के आपसी रिश्ते इसे खास बनाते है। कौन सही है और कौन गलत, इस पर बहस हो सकती है। क्या एक चुड़ैल को गोली लग सकती है? इस तरह के प्रश्न फिल्म देखते समय उठते हैं जो लेखन की कमजोरी की ओर इशारा करते हैं।
उस दौर में महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय को फिल्म बखूबी दिखाती है, लेकिन कुछ नया पेश नहीं कर पाती। क्लाइमैक्स में फिल्म कमजोर पड़ जाती है, जैसा कि आमतौर पर इस तरह की फिल्मों के साथ होता है।
बुलबुल की खासियत है इसका निर्देशन। अन्विता दत्त ने कहानी को सुपरनेचुरल थ्रिलर के अंदाज में कहा है। उन्होंने उस दौर को इस तरह से पेश किया है कि आप सीधे कहानी से कनेक्ट हो जाते हैं।
बड़ी-बड़ी बंगाली हवेलियां, घने जंगल, धोती-कुर्ते में बंगाली बाबू, साड़ी-गहनों और अल्ता लगाए बंगाली बहू, पालकी उठाने वाले, घोड़ागाड़ी, सफेद साड़ी में लिपटी सिर मुंडी विधवाएं, ये सब बातें हमें उस कालखंड में ले जाती है।
अन्विता ने कुछ शॉट लाजवाब फिल्माए हैं। राजा रवि वर्मा की पेंटिंग से प्रेरित एक हिंसक दृश्य जिसमें बुलबुल की पिटाई उसका पति करता है, देखने लायक है। इसी तरह एक सीन है जब बिनोदिनी अपना दर्द बुलबुल के आगे व्यक्त करती है।
फिल्म में लाल रंग का बहुत ज्यादा उपयोग है जो देखते समय एक अलग तरह का तनाव देता है। यह शक्ति का भी प्रतीक है तो खून का भी। रात में होने वाली धुंध और चंद्रमा भी यहां लाल रखा गया है। कुछ लोगों को यह परेशान कर सकता है, लेकिन निर्देशक ने अपनी बात कहने के लिए पुरजोर तरीके से इस रंग का उपयोग किया है।
लेखन की कमजोरी को निर्देशक कुछ हद तक कवर करता है और इसे एक बार देखने लायक बनाता है। फिल्म की अवधि लगभग डेढ़ घंटा है और यह बड़ा प्लस पाइंट है।
तकनीकी रूप से फिल्म मजबूत है। बैकग्राउंड म्यूजिक लाउड नहीं है और खामोशी तथा नेचरल आवाज को भी उतना ही महत्व दिया गया है। सिनेमाटोग्राफी, सेट, लोकेशन्स और कास्ट्यूम बढ़िया है।
तृप्ति डिमरी लीड रोल में हैं। उन्होंने अपने अभिनय के जरिये एक रहस्यमय वातावरण बनाया है। उनकी बड़ी आंखें बहुत कुछ बोलती है। डबल रोल के साथ राहुल बोस न्याय करते हैं और उन्हें ज्यादा से ज्यादा काम करना चाहिए। पाउली दाम, परमब्रत चटर्जी असर छोड़ते हैं।
सामान्य कहानी होने के बावजूद निर्देशन, अभिनय और छोटी अवधि के कारण यह फिल्म देखी जा सकती है।