मोहेंजो दारो : फिल्म समीक्षा

मोहेंजो दारो के शुरुआती सीक्वेंस में रितिक रोशन एक भीमकाय मगरमच्छ को मारते हैं। यह सीन और मगरमच्छ निहायत ही नकली लगता है। यह नकलीपन फिर पूरी फिल्म पर हावी हो जाता है और आश्चर्य होता है‍ कि इस फिल्म से आशुतोष गोवारीकर और रितिक रोशन जैसे लोग जुड़े हुए हैं। एक ऐसी फिल्म पर करोड़ों रुपये लगाए गए हैं जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं है।
 
जरा कहानी पर गौर फरमाएं। एक हीरो है जो गांव से शहर आता है। खूबसूरत हीरोइन  को दिल दे बैठता है। हीरोइन की शादी फिल्म के मुख्य विलेन के लड़के से तय है जिसका इस शहर पर राज है।  विलेन अपने रास्ते से उस हीरो को हटाना चाहता है। हीरो  के पिता की वर्षों पहले इस विलेन ने ही हत्या की थी। हीरो को एक और मकसद मिल जाता है। वह न केवल प्यार हासिल करता है बल्कि शहर के लोगों को भी बचाता है। 
 
इस घिसी-पिटी और हजारों बार आजमाई को कहानी आशुतोष गोवारीकर ने लिखा है। कहानी को अलग लुक और फील देने के लिए वे चार हजार वर्ष पुराने दौर में चले गए। मोहेंजो दारो की पृष्ठभूमि में उन्होंने अपनी इस घटिया कहानी को चिपका दिया और सोचा कि दर्शकों को वे मोहेंजो दारो के सेट, कास्ट्यूम और भव्यता में ऐसा उलझाएंगे कि कहानी वाली बात दर्शक भूल जाएंगे, लेकिन घटिया कहानी के साथ स्क्रीनप्ले भी इतना उबाऊ है कि फिल्म से आप जुड़ नहीं पाते। 
 
फिल्म की शुरुआत में मोहेंजो दारो को थोड़ी प्रमुखता दी है। कैसे व्यापार होता था? कैसे लोग रहते थे? कैसे समय की गणना की जाती थी? लेकिन धीरे-धीरे मोहेंजो दारो और वर्षों पुरानी सभ्यता पीछे छूट जाती है और रूटीन कहानी हावी हो जाती है। फिर कहानी में मोहेंजो दारो है  या नहीं,  कोई फर्क नहीं पड़ता।  
हीरो का नाम है सरमन और हीरोइन का चानी। दोनों की प्रेम कहानी पर भी काफी फुटेज खर्च किए गए हैं, लेकिन यह रोमांस बहुत ही फीका है। चानी का सरमन पर फिदा होने वाला जो सीन बनाया गया है वो कोई भी सोच सकता है। इसी तरह सरमन और विलेन माहम तथा मूंजा के दृश्य भी सपाट हैं। न खलनायक के लिए नफरत पैदा होती है और न हीरो के लिए सहानुभूति। 
 
फिल्म का लंबा क्लाइमैक्स है जो सीजीआई के कारण कमजोर बन गया है। क्लाइमैक्स में फिल्म का हीरो खूब जी जान लगाकर हजारों गांव वालों को बचाता है, लेकिन उसकी इस महान कोशिश आपको बिलकुल भी उत्साहित नहीं करती है क्योंकि तब तक फिल्म में रूचि खत्म हो जाती है और इंतजार इस बात का रहता है कि फिल्म कब खत्म हो। क्लाइमैक्स की एडिटिंग भी बेहद खराब है।   

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आशुतोष के निर्देशन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। वे अपने प्रस्तुतिकरण से फिल्म को दिलचस्प नहीं बना पाए।  जिस तरह से उन्होंने कहानी के बीच गानों को डाला है उससे फिल्म का बनावटीपन और बढ़ा है। बकर और जोकार से सरमन का फाइटिंग सीन छोड़ दिया जाए तो फिल्म में कुछ भी देखने लायक नहीं है। 
 
रितिक रोशन ने पूरी ईमानदारी से कोशिश की है, लेकिन उनके कद और मेहनत के साथ फिल्म की स्क्रिप्ट न्याय नहीं कर पाती। वे भी बेदम स्क्रिप्ट के तले असहाय नजर आए। उनका लुक भी बेहद आधुनिक है जो आंखों में खटकता है। पूजा हेगड़े का अभिनय औसत दर्जे का है और वे बिलकुल प्रभावित नहीं करतीं। ‍रितिक के साथ उनकी केमिस्ट्री बिलकुल नहीं जमी।  कबीर बेदी और अरुणोदय सिंह ने खलनायकी के रंग दिखाए हैं। हालांकि सींगो वाले मुकुट में कबीर बेदी बहुत बुरे दिखे हैं। 
 
म्युजिक और बैकग्राउंड म्युजिक दोनों ही विभागों में एआर रहमान का काम उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं है।      
 
अहम सवाल, क्या फिल्म 'मोहेंजो दारो' के बारे में दर्शकों के ज्ञान में इजाफा करती है? सेट बनाने वालों की मेहनत नजर आती है, हालांकि बहुत ज्यादा डिटेल्स पर ध्यान नहीं दिया गया है, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते कि मोहेंजो दारो के लोग इतने आधुनिक कैसे थे? कैसे उन्होंने यह सब निर्माण किया? कैसे उन्हें ये विचार आया? फिल्म खत्म होने के बाद 'मोहेंजो दारो' के बारे में आपकी जानकारी उतनी ही रहती है जितनी फिल्म देखने के पूर्व में थी। 

बैनर : आशुतोष गोवारीकर प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्माता : सुनीता गोवारीकर, सिद्धार्थ रॉय कपूर
निर्देशक: आशुतोष गोवारीकर
संगीत : एआर रहमान
कलाकार : रितिक रोशन, पूजा हेगड़े, कबीर बेदी, अरुणोदय सिंह, शरद केलकर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 35 मिनट
रेटिंग : 1.5/5 

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