सरबजीत : फिल्म समीक्षा

बॉलीवुड में इस समय बायोपिक का बोलबाला है। पिछले सप्ताह 'अज़हर' देखने को मिली तो अगले सप्ताह 'वीरप्पन' रिलीज हो रही है। इस सप्ताह 'सरबजीत' रिलीज हुई है जो कि भिखिविंद (पंजाब) में रहने वाले सरबजीत सिंह के जीवन पर आधारित है। 
 
सरबजीत की कहानी बेहद दर्दनाक है। शराब के नशे में वह एक बार सीमा पार कर पाकिस्तान में घुस जाता है और पकड़ा जाता है। उसे भारतीय जासूस और लाहौर में हुए बम विस्फोट का अपराधी मंजीत सिंह मान कर जेल में बंद कर दिया जाता है। यातना दी जाती है और फिर फांसी की सजा सुनाई जाती है। 
 
दूसरी ओर उसका परिवार भी सजा भुगतता है। पिता, बहन दलबीर कौर, पत्नी और दो बेटियां राह देखते हैं कि उनका सरबजीत भारत लौट आए। बहन दलबीर लंबी लड़ाई लड़ती है। बेगुनाह सरबजीत 23 वर्ष तक जेल में बंद रहता है और पाकिस्तान में ही अंतिम सांस लेने के बाद बेजान भारत लौटता है। 
 
सरबजीत की कहानी आंखें खोल देती है कि दो देशों की दुश्मनी की सजा बेगुनाह भी भुगतते हैं और उनके परिवार वाले पत्थरों पर सर पीटते रहते हैं। सरबजीत की बहन दलबीर की जितनी तारीफ की जाए कम है क्योंकि उम्मीद और नाउम्मीद के बीच उन्होंने 23 वर्ष साधन हीन होने के बावजूद लम्बी और मुश्किल लड़ाई लड़ी। इतने वर्षों तक हिम्मत नहीं हारी और हौंसला नहीं खोया।
'मैरीकॉम'‍ फिल्म बनाने वाले निर्देशक उमंग कुमार ने अपनी दूसरी फिल्म भी बायोपिक बनाई है। उन्होंने जिस शख्स की कहानी को परदे पर उतारने का निर्णय लिया वो सही है, लेकिन वे इस उलझन में फंस रहे कि फिल्म को कितना रियल रखा जाए और कितना फिल्मी। 
 
चूंकि सरबजीत की बहन दलबीर कौर से बात कर उन्होंने फिल्म बनाई है इसलिए माना जा सकता है कि सरबजीत संबंधी अधिकांश प्रसंग सही होंगे, लेकिन गाने और फिल्मी संवाद से वे बच नहीं पाएं। ज्यादा दर्शकों को खुश करने के चक्कर में वे सरबजीत के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाए और फिल्म कहींं-कहींं जरूरत से ज्यादा ड्रामेटिक हो गई है।  

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‍सरबजीत की बहन दलबीर का किरदार ऐश्वर्या राय ने निभाया है और ऐश्वर्या के स्टारडम के आगे निर्देशक दब गए। ऐश्वर्या राय बच्चन को उन्होंने थोड़ी छूट लेते हुए ज्यादा फुटेज दिए और सरबजीत को साइड लाइन कर दिया।

ऐश्वर्या की खूबसूरती से भी निर्देशक डर गए। ऐश्वर्या के किरदार को उम्रदराज दिखाने के लिए बालों को सफेद कर दिया और आंखों पर चश्मा चढ़ा दिया, इसके बावजूद ऐश्वर्या अपने किरदार की उम्र की नहीं लगती। 
 
दरअसल ऐश्वर्या राय का चयन ही गलत है। वे दलबीर के किरदार से न्याय नहीं कर पाईं। पूरी फिल्म में उन्हें पंजाबी लहजे में हिंदी बोलने में कठिनाई महसूस होती रही और इससे मजा किरकिरा होता रहा। उन्होंने वहां भी संवाद चीख-चीख कर बोले जहां जरूरत नहीं थी।
 
सरबजीत की कहानी में बहुत कुछ दिखाने को था, लेकिन निर्देशक और लेखक उतना परोस नहीं जाए और दर्शक भूखा ही रह जाता है। 
 
कुछ उम्दा सीन भी हैं, जैसे-  सरबजीत का अपने परिवार से मिलना, सरबजीत का अपनी बहन को बताना कि वह कैसे छोटी सी जगह में 23 वर्षों से जी रहा है, दलबीर का आत्महत्या की कोशिश करने के बाद उसका सरबजीत की पत्नी से सामना होना। सरबजीत पर अत्याचार वाले दृश्य आपको असहज कर देते हैं। 23 सेकंड्स आपको परेशान कर देते हैं और आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि उस आदमी ने 23 वर्ष तक सब कुछ झेला।  
कुछ बातें अच्छी तरह से उठाई गई हैं जैसे दो देशों के बीच राजनीतिक उठापटक किस तरह से सरबजीत की रिहाई को प्रभावित करती है और सरबजीत के परिवार की चार साहसी महिलाओं ने कभी उम्मीदों के दीये बुझने नहीं दिए तथा अपनी कोशिश आखिर तक जारी रखी। 
 
रणदीप हुड्डा तो जैसे सरबजीत के किरदार में घुस गए। शारीरिक रूप से भी उन्होंने इसके लिए कठोर प्रयास किए। 18 साल तक काल कोठरी में बेड़ियों से जकड़े इंसान की क्या मनोदशा हो जाती है उसे उन्होंने बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। 
 
सरबजीत की पत्नी और एक पथराई सी महिला जिसके जीवन में सिर्फ इंतजार लिखा है के किरदार में रिचा चड्ढा प्रभावित करती हैं। सरबजीत के वकील के रूप में दर्शन कुमार सामान्य रहे हैं। 
 
फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड है और तेज आवाज कानों में दर्द पैदा करता है। सिनेमाटोग्राफी औसत है। 
 
सरबजीत की कहानी बेहद मजबूत है, आपको हिला कर रख देती है, लेकिन फिल्म उतनी प्रभावशाली नहीं है। 
 
बैनर : पूजा एंटरटेनमेंट इंडिया लि., टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता : वासु भगनानी, भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, संदीप सिंह, उमंग कुमार, जैकी भगनानी 
निर्देशक : उमंग कुमार 
संगीत : अमाल मलिक, जीत गांगुली, शैल-प्रीतेश, तनिष्क बागची, शशि-शिवम 
कलाकार : ऐश्वर्या राय बच्चन, रणदीप हुड्डा, रिचा चड्ढा, दर्शन कुमार
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट 38 सेकंड
रेटिंग : 2.5/5 

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