25 साल पहले रिलीज हुई 'द लॉयन किंग' अभी भी कई दर्शकों के दिमाग में ताजा होगी। इस डिज्नी क्लासिक को फिर से रिएक्रिएट किया गया है। फोटोरियलिस्टिक कम्प्यूटर एनिमेशन के कारण यह फिल्म एक अलग मजा देती है।
तकनीक को तो नए अंदाज में पेश किया है, लेकिन कहानी में कोई नई बात नहीं जोड़े जाने से फिल्म रूटीन-सी लगती है। पहली बार फिल्म देख रहे दर्शकों के लिए भी आगे की कहानी का अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
गौरवभूमि के राजा मुफासा हैं जो अपने बेटे सिम्बा को राज्य से परिचित कराते हैं। इस राज्य पर मुफासा के भाई स्कार की नजर है। सत्ता हासिल करने के लिए स्कार षड्यंत्र रचता है। मुफासा मारे जाते हैं और इलजाम सिम्बा पर लग जाता है।
गौरवभूमि में अपनी मां सराबी और प्रेमिका नाला को छोड़ सिम्बा दूर चला जाता है। गौरवभूमि पर स्कार और लकड़बग्घों का राज हो जाता है और हालात बेकाबू हो जाते हैं। सिम्बा कैसे गौरवभूमि पर कब्जा हासिल करता है और अपने इलजाम को मिटाता है यह फिल्म का सार है।
निर्देशक जॉन फेवरू ने 'रीमेक' को गंभीरता से लेते हुए फिल्म की कहानी में ज्यादा बदलाव नहीं किए। लेकिन 1994 में रिलीज हुई फिल्म में जो इमोशन्स थे वो इस फिल्म में मिसिंग हैं। मुफासा की मृत्यु दर्शकों पर गहरा असर नहीं छोड़ती या सिम्बा में स्कार से बदला लेने की वो आग नजर नहीं आती।
फिल्म का क्लाइमैक्स भी प्रभावी नहीं बन पाया है। सिम्बा द्वारा अपने राज्य का दोबारा हासिल करने का जो रोमांच होना चाहिए वो नदारद है। यह काम जल्दबाजी भरा लगता है कि सिम्बा ने चाहा और सब कुछ तुरंत हो गया। ज्यादा संघर्ष ही नहीं करना पड़ा।
कमियों के बावजूद फिल्म यदि बांध कर रखती है तो इसका श्रेय तकनीकी टीम को जाता है। उन्होंने बारीक से बारीक डिटेल्स भी इतनी सफाई से पेश किए हैं कि सब वास्तविक लगता है। चाहे मकड़ी जाला बुन रही हो, चींटियां अपने काम पर लगी हों, झींगुरों को पकड़ा जा रहा हो या कठफोड़वा की बक-बक हो। हर सीन देखने में लाजवाब है और थ्री-डी इफेक्ट्स असर को और गहरा करते हैं। पुम्बा और टिमोन के किरदार मजेदार हैं और ये खूब हंसाते हैं। इनके आते ही फिल्म बहुत मनोरंजक हो जाती है।
फिल्म आपको अलग ही दुनिया में ले जाती है और मुफासा-सिम्बा की कहानी संदेश देती है कि भाईचारे और शांति के साथ दुनिया में रहना सबसे अच्छा विकल्प है।
निर्देशक जॉन फेवरू की कल्पनाशीलता को तकनीशियनों ने अच्छे से स्क्रीन पर उतारा है। यदि निर्देशक कहानी में उतार-चढ़ाव और इमोशन्स भी डाल देते तो फिल्म और निखर जाती।
शाहरुख खान और उनके बेटे आर्यन खान ने मुफासा और सिम्बा के किरदारों के लिए हिंदी वर्जन में अपनी आवाज़ दी है। शाहरुख का काम ठीक है और पहली फिल्म में ही आर्यन अपनी आवाज़ से प्रभावित करते हैं। लेकिन बाजी जीत ले जाते हैं संजय मिश्रा और श्रेयस तलपदे।
ठेठ मुंबइया स्टाइल में दोनों ने हिंदी बोली है और पुम्बा और टिमोन के किरदारों को यादगार बना दिया है। असरानी और आशीष विद्यार्थी ने भी अपनी आवाज का जादू बिखेरा है।
फिल्म के गाने मजेदार नहीं हैं और हिंदी अनुवाद में उनकी मूल आत्मा खो गई है। हिंदी संवाद ठीक हैं, थोड़ी मेहनत और की जानी थी।
'द लॉयन किंग' भले ही अपेक्षा से थोड़ी कम है, लेकिन बच्चों के साथ एक बार देखने लायक है।