वज़ीर : फिल्म समीक्षा

लगभग 27 वर्ष पहले 'वज़ीर' फिल्म का आइडिया विधु विनोद चोपड़ा को आया था और अब जाकर यह आइडिया फिल्म का रूप ले पाया है। यह एक थ्रिलर मूवी है जिसे शतरंज के खेल से जोड़ा गया है। रियल लाइफ में शतरंज के खेल की तरह बिसात बिछाई जाती है और एक अदना-सा प्यादा, बादशाह को मात देता है। प्यादे की ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि एक जगह पहुंचने के बाद वह वज़ीर जैसा ताकतवर हो जाता है। 
 
कहानी है एटीएस ऑफिसर दानिश (फरहान अख्तर) और पंडित ओंकारनाथ धर (अमिताभ बच्चन) की जो स्वभाव, उम्र और मिजाज में एक-दूसरे से बिलकुल जुदा हैं। दानिश के साथ एक भयावह दुर्घटना होती है और वह टूट जाता है। उसे सस्पेंड भी कर दिया जाता है। 
 
व्हील चेयर पर बैठे पंडित ओंकारनाथ भी कुछ इसी तरह के दर्द से गुजर रहे हैं और यही दर्द उनके बीच की कड़ी बनता है। ओंकारनाथ के दर्द की वजह है येज़ाद कुरैशी (मानव कौल) जिसके खिलाफ ओंकारनाथ के पास कोई सबूत नहीं है लेकिन वह जानता है कि येज़ाद अपराधी है। दूसरी ओर दानिश एक काबिल पति, एक काबिल पिता के रूप में अपने आपको असफल मानता है और एक काबिल दोस्त बनने के चक्कर में ओंकारनाथ की मदद करता है। 
फिल्म की शुरुआत एक बेहतरीन गाने से होती है जो सीधे किरदारों को आपसे जोड़ता है। शुरुआती पन्द्रह मिनट काफी हलचल भरे हैं और पहले हाफ में फिल्म आपको बांध कर रखती है। फिल्म बिखरती है दूसरे हाफ में क्योंकि आगे क्या होने वाला है इसका अनुमान आप पहले से ही लगा लेते हैं। साथ ही जिस तरह से रहस्य पर से परदे हटाए गए हैं वो गले नहीं उतरते।   
 
‍'वज़ीर' की कमजोरी ये है कि यह रियलिटी के करीब होने का दावा करती है, लेकिन ओंकारनाथ और दानिश की हरकतें वास्तविकता से दूर लगती हैं। इससे सामंजस्य बैठाने में परेशानी होती है। मसलन एक बड़े नेता का फोन टेप करना क्या एक सस्पेंड एटीएस ऑफिसर के लिए संभव है? कैसे एक विकलांग व्यक्ति विस्फोटक सामग्री जुटा लेता है? कैसे आप एक आदमी की आंखों में देख ये पता लगा लेते हैं कि वही अपराधी है? ओंकारनाथ पर दानिश आंख मूंद कर कैसे विश्वास कर लेता है? कहानी तब मजबूत होती जब येज़ाद के खिलाफ ओंकारनाथ के हाथ कुछ सबूत लगते और जिसके आधार पर दानिश उसकी मदद करता। 
 
लेखकों ने लॉजिक और कॉमन सेंस को दरकिनार रखते हुए अपनी सहूलियत के हिसाब से स्क्रिप्ट लिखी है। ये सब बातें तब और अखरती है जब फिल्म से विधु विनोद चोपड़ा, अभिजात जोशी, राजकुमार हिरानी, अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर जैसे लोग जुड़े हुए हैं। 

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कुछ सीन अच्छे भी हैं जैसे आधी रात को दानिश और ओंकारनाथ का शतरंज खेलना। आखिर में शतरंज के जरिये बताना कि कैसे ओंकारनाथ ने जीवन की बाजी शतरंज की तरह जीती। दानिश का ओंकारनाथ का वीडियो देखना। 
लेखकों की कमी को बहुत हद तक निर्देशक बिजॉय नाम्बियार भी संभाल लेते हैं। उन्होंने यहां अपनी तकनीकी जादूगरी कम दिखाई है और उनका प्रस्तुतिकरण इस तरह का है कि आप फिल्म से बंधे रहते हैं। दो और बातें अच्छी हैं। एक तो फिल्म की अवधि बहुत ही कम है। लगभग सौ मिनट में फिल्म खत्म हो जाती है ‍जिससे फिल्म चुस्त लगती है।  
 
दूसरा, इसके मुख्य कलाकार अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर का बेहतरीन अभिनय। अमिताभ बच्चन जबरदस्त फॉर्म में हैं। कई बार वे खराब फिल्मों की नैया अपने उम्दा अभिनय से पार लगा चुके हैं। यहां उन्होंने अपना किरदार इतने मजे लेते हुए निभाया है कि आप फिल्मों की खामियां भूल जाते हैं। उनको बेहतरीन संवाद भी मिले हैं और उनकी संवाद अदायगी तारीफ के काबिल है। फरहान अख्तर ने भी साथ अच्छे से निभाया है। अदिति राव हैदरी के पास ज्यादा कुछ नहीं था जबकि मानव कौल प्रभावित करते हैं। 
 
यह फिल्म तभी अच्छी लगेगी जब बहुत ज्यादा उम्मीद लेकर न जाया जाएं। 
 
बैनर : विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन्स 
निर्माता : विधु विनोच चोपड़ा
निर्देशक : बिजॉय नाम्बियार
संगीत : शांतनु मोइत्रा, अंकित तिवारी, प्रशांत पिल्लई, रोचक कोहली
कलाकार : अमिताभ बच्चन, फरहान अख्तर, अदिति राव हैदरी, जॉन अब्राहम (कैमियो), नील नितिन मुकेश (कैमियो)
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 43 मिनट 6 सेकंड 
रेटिंग : 2.5/5 

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