निर्माता : गोर्धन तनवानी निर्देशक : विक्रम भट्ट कलाकार : आफताब, डीनो मारियो, समीर दत्तानी, नौहीद, अंजूरी अलग
एक ही फिल्म में कई कहानियों को दिखाने का फैशन इन दिनों जोरो से है। 2007 में ही हम इस तरह की सलाम-ए-इश्क, हनीमून ट्रेवल्स प्रा लि, हैट्रिक और जस्ट मैरिड देख चुके है। इस सप्ताह प्रदर्शित ‘लाइफ में कभी कभी’ में भी पाँच कहानियों को पिरोया है। इसमें सारी कहानियाँ एक साथ चलती रहती है और उनका एक ही क्लायमैक्स है।
फिल्म आज के युवाअओं की ओर इंगित करती है जो अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हर तरह के शार्टकट अपनाते है। फिल्म में कई ऐसे दृश्य है जिनसे दर्शक अपने आपको जुड़ा हुआ मानता है। लेकिन फिल्म में खामियां भी है। सभी कहानियाँ थोडी देर बाद गंभीरता का आवरण ओढ़ लेती है। जबकि आजकल के दर्शक खुश होने के लिए फिल्म देखने आते है। फिल्म पहले घंटे में आशा बंधाती है लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म लंबी लगने लगती है और एडिटिंग की जरूरत महसूस होने लगती है। ऐसा लगता है कि फिल्म सीमित वर्ग के लिए बनाई गई हो खासकर बड़े शहरों में रहने वालों के लिए। वही कोई भी नामी कलाकार के न होने से फिल्म में सूनापन नजर आता है।
मनीष (आफताब शिवदासानी), राजीव (डिनो मारियो), जय (समीर दत्तान), मोना (नौहीद) और इशिता (अंजूरी अलग) एक दिनों बातों-बातों में शर्त लगा बैठते है कि उनमें से जिंदगी में कौन सबसे ज्यादा सुखी रहेगा। इसके लिए वे पाँच वर्ष का समय तय करते है। वे यह भी तय करते है कि इसका निर्णय मनीष करेगा।
खुशी और सुख के बारे में सबके अलग-अलग विचार है। राजीव सोचता है आप जो करते है वही खुशी है। मोना प्रसिद्धि को, जय ताकत को और ईशिता पैसे को खुशी मानती है। सभी अपने-अपने जिंदगी के सफर पर निकल पड़ते है। इन पाँच कहानियों में से तीन अच्छी है, एक औसत है और एक बेकार है।
पटकता लेखक मनोज त्यागी ने इन कहानियों को अच्छी तरह से गूंथा है और विक्रम भट्ट ने सधा हुआ निर्देशन किया है। बस, एक ही बात खटकती है कि पाँचों कहानियों का अंत दुखद है। यह बात सही है कि हकीकत में जिंदगी आसान नहीं है पर दर्शक थोड़ा खुश भी होना चाहता है।
अभिनय की बात की जाए तो डीनो ने बढि़या अभिनय किया है। पुरस्कार समारोह वाले दृश्य में उन्होंने कमाल किया है। सीधे-सादे युवक की भूमिका आफताब ने बखूबी निभाई है। समीर दत्तानी, अनुज साहनी और नौहीद का अभिनय भी अच्छा है।
ललित पंडित का संगीत मधुर है। ‘हम खुशी की चाह में’ अच्छा बन पड़ा है। प्रवीण भट्ट का कैमरा वर्क उम्दा है। गिरीश धामिजा के संवाद कई दृश्यों की जान है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘लाइफ में कभी कभी’ एक अच्छी फिल्म है, लेकिन गंभीर थीम होने के कारण ज्यादा लोग इसे पसंद नहीं करेंगे।