Buddha Jayanti 2021: गौतम बुद्ध के संपूर्ण धर्म दर्शन के सिद्धांत यहां जानिए

वैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी वन में ईसा पूर्व 563 को हुआ। इस बार बुद्ध जयंती 26 मई 2021 बुधवार को मनाई जाएगी। शोध बताते हैं कि दुनिया में सर्वाधिक प्रवचन बुद्ध के ही रहे हैं। यह रिकॉर्ड है कि बुद्ध ने जितना कहा और जितना समझाया उतना किसी और ने नहीं। धरती पर अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ जो बुद्ध के बराबर कह गया। सैकड़ों ग्रंथ है जो उनके प्रवचनों से भरे पड़े हैं और आश्चर्य कि उनमें कहीं भी दोहराव नहीं है। बुद्ध ने अपने जीवन में सर्वाधिक उपदेश कौशल देश की राजधानी श्रावस्ती में दिए। उन्होंने मगध को भी अपना प्रचार केंद्र बनाया। महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में दिए थे। आओ जानते हैं गौतम बुद्ध के दर्शन के मूल सिद्धांत।
 
 
बौद्ध धर्म ग्रंथ : बौद्ध धर्म के मूल तत्व है- चार आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर बुद्ध का मौन, बुद्ध कथाएँ, अनात्मवाद और निर्वाण। बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं। त्रिपिटक के तीन भाग है- विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक। उक्त पिटकों के अंतर्गत उप-ग्रंथों की विशाल श्रृंखलाएँ है। सुत्तपिटक के पाँच भाग में से एक खुद्दक निकाय की पंद्रह रचनाओं में से एक है धम्मपद। धम्मपद ज्यादा प्रचलित है।
 
बौद्ध दर्शन तीन मूल सिद्धांत पर आधारित माना गया है- 1.अनीश्वरवाद 2.अनात्मवाद 3.क्षणिकवाद। यह दर्शन पूरी तरह से यथार्थ में जीने की शिक्षा देता है।
 
1. अनीश्वरवाद
बुद्ध ईश्वर की सत्ता नहीं मानते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम पर चलती है। प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कारण-कार्य की श्रृंखला। इस श्रृंखला के कई चक्र हैं जिन्हें बारह अंगों में बाँटा गया है। अत: इस ब्रह्मांड को कोई चलाने वाला नहीं है। न ही कोई उत्पत्तिकर्ता, क्योंकि उत्पत्ति कहने से अंत का भान होता है। तब न कोई प्रारंभ है और न अंत।
 
 
2. अनात्मवाद
अनात्मवाद का यह मतलब नहीं कि सच में ही 'आत्मा' नहीं है। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है। यह प्रवाह कभी भी बिखरकर जड़ से बद्ध हो सकता है और कभी भी अंधकार में लीन हो सकता है।
 
स्वयं के होने को जाने बगैर आत्मवान नहीं हुआ जा सकता। निर्वाण की अवस्था में ही स्वयं को जाना जा सकता है। मरने के बाद आत्मा महा सुसुप्ति में खो जाती है। वह अनंतकाल तक अंधकार में पड़ी रह सकती है या तक्षण ही दूसरा जन्म लेकर संसार के चक्र में फिर से शामिल हो सकती है। अत: आत्मा तब तक आत्मा नहीं जब तक कि बुद्धत्व घटित न हो। अत: जो जानकार हैं वे ही स्वयं के होने को पुख्ता करने के प्रति चिंतित हैं।
 
 
3. क्षणिकवाद
इस ब्रह्मांड में सब कुछ क्षणिक और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं। सब कुछ परिवर्तनशील है। यह शरीर और ब्रह्मांड उसी तरह है जैसे कि घोड़े, पहिए और पालकी के संगठित रूप को रथ कहते हैं और इन्हें अलग करने से रथ का अस्तित्व नहीं माना जा सकता।
 
उक्त तीन सिद्धांत पर आधारित ही बौद्ध दर्शन की रचना हुई। इन तीन सिद्धांतों पर आगे चलकर थेरवाद, वैभाषिक, सौत्रान्त्रिक, माध्यमिक (शून्यवाद), योगाचार (विज्ञानवाद) और स्वतंत्र योगाचार का दर्शन गढ़ा गया। इस तरह बौद्ध धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदायों के कुल छह उपसम्प्रदाय बने। इन सबका केंद्रीय दर्शन रहा प्रतीत्यसमुत्पाद।
 
 
आष्टांगिक मार्ग : मोक्ष तक पहुँचने के तीन सरलतम मार्ग हैं। पहला आष्टांग योग, दूसरा जिन त्रिरत्न और तीसरा आष्टांगिक मार्ग। बुद्ध ने इस दुःख निरोध प्रतिपद आष्टांगिक मार्ग को 'मध्यमा प्रतिपद' या मध्यम मार्ग की संज्ञा दी है। अर्थात जीवन में संतुलन ही मध्यम मार्ग पर चलना है।
 
क्या है चार आर्य सत्य : इसे चतुष्टय आर्यसत्य भी कहते हैं।
(1) दुःख
(2) दुःख-समुदाय
(3) दुःख-निरोध
(4) दुःखनिरोध-गामिनी
 
 
पहला आर्य सत्य दुःख है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मृत्यु दुःख है, अप्रिय का मिलना दुःख है, प्रिय का बिछुड़ना दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है। यह दुःख नामक आर्य सत्य परिज्ञेय है। संक्षेप में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, यह पंचोपादान स्कंध (समुदाय) ही दुःख हैं।
 
दुःख समुदय नाम का दूसरा आर्य सत्य तृष्णा है, जो पुनुर्मवादि दुःख का मूल कारण है। यह तृष्णा राग के साथ उत्पन्न हुई है। सांसारिक उपभोगों की तृष्णा, स्वर्गलोक में जाने की तृष्णा और आत्महत्या करके संसार से लुप्त हो जाने की तृष्णा, इन तीन तृष्णाओं से मनुष्य अनेक तरह का पापाचरण करता है और दुःख भोगता है। यह दुःख समुदाय का आर्य सत्य त्याज्य है।
 
तीसरा आर्य सत्य दुःखनिरोध है। यह प्रतिसर्गमुक्त और अनालय है। तृष्णा का निरोध करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, देहदंड या कामोपभोग से मोक्षलाभ होने का नहीं। यह दुःखनिरोध नाम का आर्य सत्य साक्षात्करणीय कर्तव्य है।
 
चौथा आर्य सत्य दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् है। यह दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् नामक आर्य सत्य भावना करने योग्य है। इसी आर्य सत्य को अष्टांगिक मार्ग कहते हैं।
 
 
क्या है आष्टांगिक मार्ग?
1. सम्यक दृष्टि : इसे सही दृष्टि कह सकते हैं। इसे यथार्थ को समझने की दृष्टि भी कह सकते हैं। सम्यक दृष्टि का अर्थ है कि हम जीवन के दुःख और सुख का सही अवलोकन करें। आर्य सत्यों को समझें।
2. सम्यक संकल्प : जीवन में संकल्पों का बहुत महत्व है। यदि दुःख से छुटकारा पाना हो तो दृढ़ निश्चय कर लें कि आर्य मार्ग पर चलना है।
3. सम्यक वाक : जीवन में वाणी की पवित्रता और सत्यता होना आवश्यक है। यदि वाणी की पवित्रता और सत्यता नहीं है तो दुःख निर्मित होने में ज्यादा समय नहीं लगता।
4. सम्यक कर्मांत : कर्म चक्र से छूटने के लिए आचरण की शुद्धि होना जरूरी है। आचरण की शुद्धि क्रोध, द्वेष और दुराचार आदि का त्याग करने से होती है।
5. सम्यक आजीव : यदि आपने दूसरों का हक मारकर या अन्य किसी अन्यायपूर्ण उपाय से जीवन के साधन जुटाए हैं तो इसका परिणाम भी भुगतना होगा इसीलिए न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन आवश्यक है।
6. सम्यक व्यायाम : ऐसा प्रयत्न करें जिससे शुभ की उत्पत्ति और अशुभ का निरोध हो। जीवन में शुभ के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।
7. सम्यक स्मृति : चित्त में एकाग्रता का भाव आता है शारीरिक तथा मानसिक भोग-विलास की वस्तुओं से स्वयं को दूर रखने से। एकाग्रता से विचार और भावनाएँ स्थिर होकर शुद्ध बनी रहती हैं।
8. सम्यक समाधि : उपरोक्त सात मार्ग के अभ्यास से चित्त की एकाग्रता द्वारा निर्विकल्प प्रज्ञा की अनुभूति होती है। यह समाधि ही धर्म के समुद्र में लगाई गई छलांग है।

अव्याकृत प्रश्न : 
अव्याकृत का अर्थ है जो व्याकरण-सम्मत नहीं है। जब भगवान बुद्ध से जीव, जगत आदि के विषय में चौदह दार्शनिक प्रश्न किए जाते थे तो वे सदा मौन रह जाते थे। ये प्रसिद्ध चौदह प्रश्न नि‍म्नांकित हैं।
 
1-4. क्या लोक शाश्वत है? अथवा नहीं? अथवा दोनों? अथवा दोनों नहीं?
 
5-8. क्या जगत नाशवान है? अथवा नहीं? अथवा दोनों? अथवा दोनों नहीं?
 
9-11. तथागत देह त्याग के बाद भी विद्यमान रहते हैं? अथवा नहीं? अथवा दोनों? अथवा दोनों नहीं?
 
 
11-14. क्या जीव और शरीर एक हैं? अथवा भिन्न?
 
उक्त प्रश्न पर बुद्ध मौन रह गए। इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे इनका उत्तर नहीं जानते थे। उनका मौन केवल यही सूचित करता है कि यह व्याकरण-सम्मत नहीं थे। इनसे जीवन का किसी भी प्रकार से भला नहीं होता। उक्त प्रश्नों के पक्ष या विपक्ष में दोनों के ही प्रमाण या तर्क जुटाए जा सकते हैं। इन्हें किसी भी तरह सत्य या असत्य सिद्ध किया जा सकता है। यह पारमार्थिक दृष्टि से व्यर्थ है। उक्त संबंध में बुद्ध ने कहा है कि भिक्षुओं! कुछ श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवाद को मानते हैं। दृष्टियों के जाल में और बुद्धि की कोटियों में फँसने के कारण ये लोग इन मतों को मानते हैं। तथागत इन सबको जानते हैं और इनसे भी अधिक जानते हैं। किंतु तथागत सब कुछ जानते हुए भी जानने का अभिमान नहीं करते हैं। इन बुद्धि कोटियों में न फँसने के कारण तथागत निर्वाण का साक्षात्कार करते हैं।- दीर्घनिकाय-ब्रह्मजालसुत्त

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