गृहस्‍थ के कर्तव्‍य

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पाणं न हाने न चादिन्नमादिये,
मुसा न भासे न च मज्जपोसिया
अब्रह्मचरिया विरमेय्य मेथुना,
रति न मुञ्जेय्य विकाल भोजनं॥

बौद्ध धर्म के अनुसार गृहस्थ को चाहिए कि वह किसी प्राणी की हिंसा न करे, चोरी न करे, असत्य न बोले, शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन न करे, व्यभिचार से बचे और रात्रि में असमय भोजन न करे।

गृहस्थ के कर्तव्य को लेकर एक कथा है कि एक समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणु वन में विहार कर रहे थे। उन्होंने देखा कि श्रृगाल नाम का एक वैश्य का लड़का भीगे वस्त्र, भीगे केश, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे- सभी दिशाओं को हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहा है। उन्होंने पूछा-
'गृहपति-पुत्र! तू क्यों सबेरे उठकर दिशाओं को नमस्कार कर रहा है?'
वह बोला- 'भंते। मरते समय पिताजी ने मुझसे कहा था कि दिशाओं को नमस्कार करना। सो भंते, पिता की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ।'

भगवान ने कहा- 'गृहपति-पुत्र! आर्य-धर्म में छः दिशाओं को इस तरह नमस्कार नहीं किया जाता।'
'तब कैसे किया जाता है, भंते?'

तब भगवान बुद्ध ने उसे बताया कि आर्य श्रावक के जब चार कर्म-क्लेश मिट जाते हैं, चार स्थानों से जब वह पाप नहीं करता और जब हानि के छः मुखों का वह सेवन नहीं करता- इस तरह 14 पापों से वह मुक्त हो जाता है; तब वह छहों दिशाओं को आच्छादित कर लोक, परलोक दोनों पर विजय प्राप्त कर लेता है और मरने पर स्वर्ग जाता है।

श्रृगाल बोला- 'आश्चर्य भंते! अद्भुत भंते! जैसे उल्टे को सीधा कर दे, जैसे ढँके को खोल दे, मार्ग-भूले को मार्ग बता दे, अंधकार में दीपक दिखा दे, वैसे भगवान ने धर्म को प्रकाशित किया। 'बुद्धं शरणं गच्छामि! धम्मं सरणं गच्छामि!! संघं सरणं गच्छामि!!!'

गृहस्थ के कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-
जिस आर्य श्रावक (गृहस्थ) को छः दिशाओं की पूजा करनी हो, वह चार कर्म-क्लेशों से मुक्त हो जाए। जिन चार कारणों के वश होकर मूढ़ मनुष्य पाप कर्म करने में प्रवृत्त होता है, उनमें से उसे किसी भी कारण के वश में नहीं होना चाहिए और सम्पत्ति-नाश के उसे छहों दरवाजे बंद कर देने चाहिए।

चार कर्म-क्लेश
1. प्राणातिपात (प्राणियों को मारना)
2. अदत्तादान (चोरी करना)
3. परदारगमन (काम-संबंधी दुराचार करना)
4. मृषावाद (झूठ बोलना)
सामान्य भाषा में चार कर्म-क्लेश हैं- हिंसा, चोरी, व्यभिचार और असत्य-भाषण। गृहस्थ को इनसे हमेशा दूर रहना चाहिए।

पाप के चार स्थान
1. स्वेच्छाचार के रास्ते में जाकर पाप कर्म करना
2. द्वेष के रास्ते में जाकर पापकर्म करना
3. मोह के रास्ते में जाकर पाप कर्म करना
4. भय के रास्ते में जाकर पाप कर्म करना।

निम्न चार कारणों के वश होकर मूढ़जन पाप-कर्म करते हैं। आर्य श्रावक को इनमें से किसी कारण के वश होकर पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। आर्य श्रावक न छंद के रास्ते जाता है, न द्वेष के, न मोह के रास्ते जाता है, न भय के।

संपत्ति-नाश के कारण- छः अपाय-मुख
भगवान बुद्ध ने बताया कि भोगों के अपाय-मुख छः हैं। इन्हें संपत्ति-नाश के छः दरवाजे भी कहते हैं। आर्य श्रावक को इनसे बचना चाहिए।

1. मद्यपान या शराब पीना- मद्यपान के व्यसन से सम्पत्ति का नाश होता है, इसमें तो संदेह ही नहीं। फिर मद्यपान से कलह बढ़ता है और वह रोगों का घर तो है ही। इससे अपकीर्ति भी पैदा होती है। यह व्यसन लज्जा को नष्ट और बुद्धि को क्षीण कर देता है। मद्यपान के छः दुष्परिणाम हैं।

2. संध्या में चौरस्ते की सैर (रात में आवारागर्दी)- जिसे रात में इधर-उधर घूमने-फिरने का चस्का लग जाता है, उसका शरीर स्वयं आरक्षित रहता है। उसकी स्त्री और बाल-बच्चे भी सुरक्षित नहीं रह सकते। वह अपनी सम्पत्ति नहीं संभाल सकता। उसे हमेशा यह डर लगा रहता है कि कहीं कोई मुझे पहचान न ले। उसे झूठ बोलने की आदत पड़ जाती है और वह अनेक कष्टों में फँस जाता है।

3. नाच-तमाशे का व्यसन- नाच-तमाशे देखने में भी कई दोष हैं। नाच-तमाशा देखने वाला हमेशा इसी परेशानी में पड़ा रहता है कि आज कहाँ नाच है, कहाँ तमाशा है, कहाँ गाना-बजाना है। अपने काम-धंधे का उसे स्मरण तक नहीं रहता।

4. जुआ- जुआरी आदमी जुए में अगर जीत गया तो दूसरे जुआरी उससे ईर्ष्या करने लगते हैं और अगर हार गया तो उसे भारी दुःख होता है और उसके धन का नाश तो होता ही है। उसके मित्र और उसके सगे-संबंधी भी उसकी बात पर विश्वास नहीं करते। उनकी ओर से उसे बार-बार अपमान सहन करना पड़ता है। उसके साथ कोई नया रिश्ता नहीं जोड़ना चाहता क्योंकि लोगों को यह लगता है कि यह जुआरी आदमी अपने कुटुंब का पालन-पोषण करने में असमर्थ है।

5. दुष्ट मनुष्यों से मित्रता या संगति- दुष्टों की संगति का भी दुष्परिणाम ऐसे ही है। धूर्त, दारूखोर, लुच्चे, चोर आदि सभी तरह के नीच मनुष्यों का साथ होने से दिन-प्रतिदिन उसकी स्थिति गिरती ही जाती है और अंत में वह हीन से हीन दशा को पहुँच जाता है।

6. आलस्य- आलस्य के फल भी महान भयंकर हैं। एक दिन आलसी आदमी इस कारण काम नहीं करता कि आज बड़ी कड़ाके की सर्दी पड़ रही है और दूसरे दिन बेहद गर्मी के कारण वह काम से जी चुराता है। किसी दिन कहता है कि अब तो शाम हो गई है, कौन काम करने जाए और किसी दिन वह कहता है कि अभी तो बहुत सवेरा है, काम का समय अभी कहाँ हुआ? इस तरह आज का काम कल के ऊपर छोड़कर वह कोई नई सम्पत्ति का उपार्जन कर नहीं सकता और अपने पूर्वजों का पूर्वार्जित धन नष्ट करता जाता है।

छः दिशाओं की पूजा
श्रावक को चारों कर्म-क्लेशों, चारों पाप कारणों और छहों विपत्ति-द्वारों को त्याग करने के बाद गृहस्थ को छः दिशाओं की पूजा आरंभ करनी चाहिए। गृहस्थ की प्रत्येक दिशा के पाँच-पाँच अंग होते हैं। इनके परिणामस्वरुप पाँच प्रकार के अनुग्रह प्राप्त होते हैं। छः दिशाओं की पूजा इस प्रकार है :

1. माता-पिता की सेवा
2. गुरु या आचार्य की सेवा
3. पत्नी की सेवा
4. बंधु-बांधवों की सेवा
5. सेवक की सेवा
6. साधु-संतों की सेवा।

यहाँ माता-पिता को पूर्व-दिशा, गुरु को दक्षिण दिशा, पत्नी को पश्चिम दिशा, बंधु-बांधव को उत्तर दिशा, दास और श्रमिक को नीचे की दिशा तथा साधु-संत को ऊपर की दिशा समझना चाहिए।

1. माता-पिता की सेवा- माता-पितारूपी पूर्व दिशा की पूजा के पाँच अंग हैं-

1. उनका काम करना, 2. उनका भरण-पोषण करना, 3. कुल में चले आए हुए सत्कर्मों को जारी रखना, 4. माता-पिता की सम्पत्ति का भागीदार बनना, 5. दिवंगत माता-पिता के नाम पर दान-धर्म करना।

अनुग्रह- यदि इन पाँच अंगों से माता-पिता को पूजा जाए तो वे अपने पुत्र पर पाँच प्रकार का अनुग्रह करते हैं-

1. पाप से उसका निवारण करते हैं, 2. कल्याणकारक मार्ग पर उसे ले जाते हैं, 3. उसे कला-कौशल सिखाते हैं, 4. योग्य स्त्री के साथ उसका विवाह कर देते हैं, 5. उपयुक्त समय आने पर अपनी संपत्ति उसे सौंप देते हैं।

2. गुरु या आचार्य की सेवा- गुरुरूपी दक्षिण दिशा की पूजा के पाँच अंग हैं-

1. गुरु को देखते ही खड़े हो जाना, 2. गुरु बीमार पड़ें तो उनकी सेवा करना, 3. गुरु जो सिखाएँ, उसे श्रद्धापूर्वक समझ लेना, 4. गुरु का कोई काम हो तो कर देना, 5. वह जो विद्या दें, उसे उत्तम रीति से ग्रहण करना।

अनुग्रह- शिष्य यदि इन पाँच अंगों से गुरु की पूजा करता है, तो गुरु उस पर पाँच प्रकार का अनुग्रह करता है-
1. सदाचार की शिक्षा देता है, 2. उत्तम रीति से विद्या पढ़ाता है, 3. जितनी भी विद्याएँ उसे आती हैं, उन सबका ज्ञान शिष्य को करा देता है, 4. अपने संबंधियों और मित्रों में उसके गुणों का बखान करता है, 5. जब कहीं बाहर जाता है, तब ऐसी व्यवस्था कर देता है कि जिससे शिष्य को खाने-पीने की कोई अड़चन न पड़े।

3. पत्नी की सेवा- पत्नी-रूपी पश्चिम दिशा की पूजा के पाँच अंग हैं-
1. उसे मान देना, 2. उसका अपमान न होने देना, 3. एक पत्नी व्रत का आचरण करना, 4. घर का कारोबार उसे सौंपना, 5. उसे वस्त्र और आभूषणों की कमी न पड़ने देना।

अनुग्रह- पति यदि इन पाँच अंगों से पत्नी की पूजा करता है, तो वह अपने पति पर पाँच प्रकार का अनुग्रह करती हैं-
1. घर में सुंदर व्यवस्था रखती है, 2. नौकर-चाकरों को प्रेम के साथ रखती है, 3. पतिव्रता रहती है, 4. पति उसे जो संपत्ति देता है, उसकी रक्षा करती है, उसे उड़ाती नहीं, 5. घर के सब काम-काजों में तत्पर रहती है।

4. बंधु-बांधवों की सेवा- बंधु-बांधवरूपी उत्तरदिशा की पूजा के ये पाँच अंग हैं-
1. देने योग्य वस्तु उन्हें देना, 2. उनसे मधुर वचन बोलना, 3. उनके उपयोगी बनना, 4. उनके साथ निष्कपट व्यवहार रखना, 5. समान भाव से बर्ताव करना।

अनुग्रह- जो आर्य श्रावक इन पाँच अंगों से अपने बंधु-बांधवों की पूजा करता है, उस पर वे पाँच प्रकार का अनुग्रह करते हैं-
1. उस पर एकाएक संकट आ पड़ने पर वे उसकी रक्षा करते हैं, 2. संकट काल में वे उसकी सम्पत्ति की भी रक्षा करते हैं, 3. विपत्ति में उसे धीरज बँधाते हैं, 4. विपत्ति-काल में उसका त्याग नहीं करते, 5. उसके बाद उसकी संतान पर भी उपकार करते हैं।

5. सेवक की सेवा- सेवकों को सूचित करनेवाली जो नीचे की दिशा है, उसकी पूजा के पाँच अंग है-
1. उनकी शक्ति देखकर उनसे काम करने को कहना, 2. उन्हें यथोचित वेतन देना, 3. बीमार पड़ें तो उनकी सेवा-सुश्रूषा करना, 4. यथावसर उन्हें उत्तम भोजन देना, 5. समय-समय पर उनकी उत्तम सेवा के बदले उन्हें इनाम इत्यादि देना।

अनुग्रह- इन पाँच अंगों से मालिक अगर सेवकों की पूजा करता है तो अपने मालिक पर वे पाँच प्रकार का अनुग्रह करते हैं-
1. मालिक के उठने से पहले उठते हैं, 2. मालिक के सोने के बाद सोते हैं, 3. मालिक के सामान की चोरी नहीं करते, 4. उत्तम रीति से काम करते हैं, 5. अपने मालिक का यश गाते हैं।

6. साधु-संतों की सेवा- साधु-संतों की जो ऊपर की दिशा है, उसकी पूजा के ये पाँच अंग हैं-
1. शरीर से आदर करना, 2. वचन से आदर करना, 3. मन से आदर करना, 4. शिक्षा के लिए आएँ तो उन्हें किसी प्रकार की हानि न पहुँचाना, 5. उन्हें उनके उपयोग की वस्तु देना।

अनुग्रह- इन पाँच अंगों से जो आर्य श्रावक साधु-संतों की पूजा करता है, उस पर वे साधु-संत छः प्रकार का अनुग्रह करते हैं-
1. पाप से उनका निवारण करते हैं, 2. कल्याणकारक मार्ग पर उसे ले जाते हैं, 3. प्रेमपूर्वक उस पर दया करते हैं, 4. उसे उत्तम धर्म की शिक्षा देते हैं, 5. शंका-निवारण करके उसके मन का समाधान करते हैं, 6. उसे सुगति का मार्ग दिखा देते हैं।

दान, प्रिय वचन, अर्थचर्या और समानात्मकता, अर्थात दूसरों को अपने समान समझना, ये लोक-संग्रह के चार साधन हैं। बुद्धिमान मनुष्य इन चारों साधनों का उपयोग करके जगत में उच्चपद प्राप्त करता है।

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