दलाई लामा : सौम्य सत्याग्रही

- नरेन्द्र दुब

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तिब्बत बौद्ध धर्म की साधना स्थली रही है। यद्यपि दुनिया के अनेक देशों में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ है किंतु लोकजीवन में भगवान बुद्ध के विचारों का जैसा प्रवेश और प्रयोग तिब्बत में हुआ वह बेमिसाल है।

भारत में जैसी अवतार परंपरा है और माना जाता है कि राम और कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं उसी प्रकार तिब्बत में दलाई लामा को अवलोकितेश्वर भगवान बुद्ध का अवतार माना जाता है।

मान्यता है कि भगवान बुद्ध के बाद वर्तमान दलाई लामा चौहत्तरवें बुद्धावतार और चौदहवें 'दलाई लामा' हैं। दलाई यानी महासागर और लामा यानी गुरु। प्रथम दलाई लामा का जन्म सन्‌ 1351 में हुआ था। तेरहवें दलाई लामा का देहावसान 1933 में हुआ और उनका ही अवतरण या पुनर्जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के आमदो प्रांत के टेस्टसर में वर्तमान चौदहवें दलाई लामा के रूप में हुआ है।

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तिब्बत बौद्ध-धर्म कर्म-विपाक सिद्धांत को मानता है। सामान्य मनुष्यों को उनके इस जन्म के कर्मों के अनुसार ही मृत्यु के बाद दूसरा जन्म मिलता है। किंतु 'दलाई लामा' अपने भावी जन्म के बारे में स्वेच्छा से निर्णय कर सकते हैं। वे लोक कल्याण के लिए जन्म लेते हैं। दलाई लामा के स्वर्गवास के लगभग दो साल के बाद इसकी खोज की जाती है कि स्वर्गवासी दलाई लामा का पुनर्जन्म कहाँ हुआ है। इसके लिए कुछ संकेत तो स्वयं दलाई लामा अपनी मृत्यु के पूर्व अपने सहयोगियों के देते हैं जिसके आधार पर दलाई लामा के नवातार की खोज की जाती है।

वर्तमान चौदहवें दलाई लामा की भी इसी प्रकार खोज हुई थी। उनका बचपन का नाम ल्हामों थोंडुप था। जिसका तिब्बती में अर्थ होता है मनोकामना पूर्ण करने वाली माँ। दलाई लामा की खोज के बाद उन्हें ल्हासा में पोटाला महल में लाकर बाकायदा बौद्ध धर्म-विचार की शिक्षा दी गई। चिंतन, अध्ययन, स्वाध्याय, योगासन, ध्यान, धारणा आदि में निष्णात होना और तत्वज्ञान में शास्त्रार्थ में प्रवीण होना भी अनिवार्यता है। वर्षों की साधना और तपस्या के बाद उन्हें 'दलाई लामा' के पद पर विधिवत अधिष्ठित किया गया। तिब्बत सैकड़ों सालों तक स्वतंत्र देश रहा। तिब्बत के प्रथम राजा भारत के मगध देश के एक राजकुमार थे। कुछ शताब्दियों तक वहाँ राजतंत्र रहा।


किंतु 1910-11 की राज्य-क्रांति के बाद चीन ने तिब्बत पर हमला किया और तेरहवें दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी। बाद में शिमला में चीन, भारत और तिब्बत के बीच सत्रह सूत्री समझौता हुआ। जिसमें तिब्बत की स्वायत्तता को स्वीकार किया गया। उस समय भी चीन प्रारंभ में तो शिमला-चर्चा में शामिल रहा पर समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए। इस समझौते के अनुसार भारत ने ल्हासा में अपना मिशन कायम किया और भारत-तिब्बत के बीच व्यापार और आर्थिक व्यवहार चलता रहा।

तिब्बत को एक स्वतंत्र देश की मान्यता रही और उसके द्वारा जारी पासपोर्ट को दुनिया के सभी देशों ने मान्य किया था। किंतु तिब्बत ने 'लीग ऑफ नेशंन्स' और बाद में संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता के लिए आवेदन नहीं किया। दुनिया यह मानती रही कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत और राजनीतिक दृष्टि से चीन तिब्बत का संरक्षक है। चीन भी तिब्बत को एक स्वायत्त प्रक्षेत्र मानता रहा और 1949 की साम्यवादी क्रांति के बाद भी 1959 तक यथास्थिति कायम रही।

जब चीन ने अपनी सैनिक शक्ति से तिब्बत में साम्यवादी नीतियाँ लागू करने का प्रयास किया तब निहत्थी तिब्बती जनता ने विद्रोह किया। जिसे दबाने के लिए चीन ने सैनिक कार्रवाई की जिसमें हजारों लोग मारे गए और घायल हुए। तब दलाई लामा के सामने अपना देश छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा। अंततः 17 मार्च 1959 को दलाई लामा ने भारत में शरण ली। उनके यहाँ आने के बाद तिब्बत से एक लाख से ज्यादा शरणार्थी भारत आ गए।

जिस तिब्बत में तिब्बती साठ लाख थे, अब वहाँ चीनी साठ लाख हैं और तिब्बती चालीस लाख ही बचे हैं। चीन ने ल्हासा तक रेल लाइन बिछा दी है, सड़कों का जाल फैला दिया है और तिब्बत की प्राकृतिक संपदा समाप्तप्राय हो गई है। चीन ने सीमा पर सैनिक चौकियाँ स्थापित कर नेपाल, भूटान, म्यांमार और भारत की सीमाओं को असुरक्षित कर दिया है। चीन इन देशों में अपरोक्ष रूप से हिंसा और आतंकवाद को ही प्रश्रय दे रहा है।

ऐसी परिस्थिति में दलाई लामा भारत में आए तिब्बती शरणार्थियों की सेवा करने के साथ ही तिब्बत की अस्मिता की रक्षा हेतु विश्व-जनमत को जागृत करने के लिए 'सौम्य सत्याग्रह' ही कर रहे हैं। उनका विश्वास विज्ञान, अहिंसा व करुणा की शक्ति में है। विनोबाजी कहते थे कि राजनीति कालबाहर हो गई है। विश्व की समस्याओं का समाधान राजनीति से नहीं, अध्यात्म व विज्ञान के समन्वय से होगा। अब हमें 'साम्यवाद' नहीं 'साम्ययोग' चाहिए। सुसंस्कृत, श्रमनिष्ठ, तिब्बतियों की अस्मिता का प्रश्न मानवीय मूल्यों की रक्षा से जुड़ा है।

स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व में विश्वास करने वाले सभी सज्जनों का कर्तव्य है कि वे एक प्रभावी समूह बनाकर तिब्बत के प्रश्न का समाधान खोजने की पहल करें।