करणीयमत्व कुमलेन यं तं सन्तं पदं अभिसमेच्च। सक्को उचू च सूज च सुवचो चस्स मृदु अनतिमानी॥1॥
सतुन्स्सको न सुमरो च अप्पकिच्चो च सल्लहुकवुत्ति। सन्तिन्द्रियो च निपको च अप्पगब्भो कुलेसु अननुगिद्धो॥2॥
बौद्ध धर्म कहता है कि जो आदमी शांत पद चाहता है, जो कल्याण करने में कुशल है, उसे चाहिए कि वह योग्य और परम सरल बने। उसकी बातें सुंदर, मीठी और नम्रता से भरी हों। उसे संतोषी होना चाहिए। उसका पोषण सहज होना चाहिए। कामों में उसे ज्यादा फँसा नहीं होना चाहिए। उसका जीवन सादा हो। उसकी इंद्रियाँ शांत हों। वह चतुर हो। वह ढीठ न हो। किसी कुल में उसकी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
न च खुद्द समाचरे किञ्चि येन विञ्चू परे उपवदेय्युं। सुखिनो वा खेमिनो होन्तु सव्वे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता॥3॥
वह ऐसा कोई छोटे से छोटा काम भी न करे, जिसके लिए दूसरे जानकार लोग उसे दोष दें। उसके मन में ऐसी भावना होनी चाहिए कि सब प्राणी सुखी हों, सबका कल्याण हो, सभी अच्छी तरह रहें।
ये केचि पाणभूतत्थि तसा वा थावरा वा अनबसेसा। दीघा वा ये महंता वा मज्झिमा रस्सकाऽणुकथूला॥4॥
दिट्ठा वा येव अद्दिट्ठा ये च दूरे वसन्ति अविदूरे। भूता वा संभवेसी वा सब्बे सत्ता भवन्ति सुखितत्ता॥5॥
जितने भी प्राणी हैं, फिर वे जंगम हों या स्थावर, बड़े हों या छोटे, बहुत महीन हों या स्थूल, दिखाई पड़ते हों या न दिखाई पड़ते हों, दूर हों या निकट, पैदा हुए हों या होने वाले हों, सबके सब सुखी रहें।