भगवान बुद्ध कहते हैं- जिस मनुष्य में सत्य है, धर्म है, अहिंसा है, संयम है, इंद्रियों का दमन है, सच पूछा जाए तो उसी का मल नष्ट हुआ है। वह धीर है, वही स्थविर है।
न तेन पंडितो होति यावता बहु भासति।
खेमी अवेरी अभयो पंडितो ति पवुच्चति॥
इसी प्रकार बहुत बोलने से कोई पंडित नहीं होता। पंडित तो वह है, जो दूसरों का कल्याण करता है, किसी से वैर नहीं करता और किसी से डरता नहीं।
हत्थसंयतो पादसंयतो वाचाय संयतो संयतुत्तमो।
अज्झत्तरतो समाहितो एको संतुसितो तमाहु भिक्खुं॥
ऐसे ही जिसका हाथ संयम में है, पैर संयम में है, जो उत्तम संयमी है, जो अध्यात्म में रत है, समाधियुक्त है, अकेला है, संतुष्ट है, उसे कहते हैं- 'भिक्षु'।
जिसकी इंद्रियां इस तरह शांत हो गई हैं, जैसे सारथी द्वारा दमन किए गए घोड़े, जिसमें अभिमान नहीं रह गया, जिसके चित्त के मल नष्ट हो गए हैं, ऐसे अर्हत की देवता भी चाह करते हैं।
बुद्ध ने अपने उपदेशों में भिक्षु की व्याख्या इस प्रकार की है-
*जिस भिक्षु ने शंकाओं का प्रवाह पार कर लिया है, जिसने तृष्णा का शल्य निकालकर फेंक दिया है, निर्वाण में जिसकी लौ लगी हुई है, जो निर्लोभी है और सदेवक जगत का नेता है, उसे मार्गजिन भिक्षु कहते हैं।
*निर्वाण पद को जानकर जो धर्मोपदेश तथा धर्म का विवेचन करता है, उस शंका-निवारण भिक्षु को मार्गदेशक भिक्षु कहते हैं।
*उत्तम रीति से उपदिष्ट धर्म-मार्ग में जो संयमी है, स्मृतिवान है और निर्दोष पदार्थों का सेवन करता है, उसे मार्गजीव भिक्षु कहते हैं।
*साधुओं का वेश धारण करके संघ में जबर्दस्ती घुस आने वाला धृष्ट भिक्षु गृहस्थों की अपकीर्ति फैलाता है और मायावी, असंयमी तथा ढोंगी होते हुए भी साधु के रूप में दुनिया को ठगता फिरता है, उसे मार्गदूशक भिक्षु कहते हैं।
*काया और वचन से जो शांत है, भलीभाँति जो समाहित अर्थात समाधियुक्त है, जिसने जगत के तमाम लोभों को अस्वीकार कर दिया है, उसे उपशांत भिक्षु कहते हैं।
*जो भिक्षु अपनी तरुणाई में बुद्ध के शासन (बुद्ध-धर्म)में योग देता है, वह इस लोक को इस प्रकार प्रकाशित करता है, जैसे मेघों से मुक्त चंद्रमा।
*अतिशय प्रमोदयुक्त और बुद्ध-शासन में प्रसन्नचित्त भिक्षु उस सुखमय प्रशांत पद को स्वीकार कर लेता है, जिसमें मनुष्य की समस्त वासनाएँ शांत हो जाती हैं।
*जो धर्म में रमण करता है, धर्म में रत रहता है और धर्म का चिंतन तथा धर्म का अनुसरण करता है, वह भिक्षु सद्धर्म से पतित नहीं होता।
*जो भिक्षु मैत्री की भावना से विहार करता है और बुद्ध के शासन (धर्म) में श्रद्धावान रहता है, वह सुखमय शांत-पद को प्राप्त कर लेता है, उसकी समस्त वासनाएँ शांत हो जाती हैं।
*भिक्षु को अपनी निंदा सुनकर अस्वस्थ और स्तुति सुनकर गर्वोन्मत्त नहीं होना चाहिए। लोभ, मात्सर्य, क्रोध और निंदा का उसे सदा के लिए परित्याग कर देना चाहिए।