खुद बन जाएँ दूसरों के लिए रोल मॉडल

- डॉ. विजय अग्रवाल

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जिंदगी में हम क्या बनते हैं, इसका इस बात से बहुत गहरा ताल्लुक होता है कि हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं। और हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं, इसका गहरा ताल्लुक इस बात से होता है कि हमने अपनी जिंदगी के लिए किसे अपना रोल मॉडल बनाया है।

इसी सिद्धांत को ध्यान में रखकर मैंने कुछ समय पहले मध्यप्रदेश के ऐसे विद्यार्थियों पर एक शोध कार्य किया, जिनमें से ज्यादातर की पृष्ठभूमि गाँव और कस्बों की थी। उनसे जो दो महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे गए थे, उनमें से पहला प्रश्न यह था कि वे क्या बनना चाहते हैं तथा दूसरा प्रश्न था कि वे किसे अपना आदर्श मानते हैं।

पहले प्रश्न के जवाब में ज्यादातर युवाओं ने अधिकारी बनने की बात लिखी थी तो किसी ने बड़ा अधिकारी बनने की बात। मैं समझता हूँ कि ऐसा उन्होंने इसलिए लिखा था, क्योंकि हमारी कस्बाई मानसिकता अभी भी सामंतवादी सोच से उबरनहीं पाई है। सरकारी अधिकारी का दबदबा हमारे दिमाग में अभी तक ठीक उसी प्रकार बना हुआ है, जिस प्रकार से हम भारतीयों के दिमाग में अँगरेजी भाषा का दबदबा बना हुआ है।
  जिंदगी में हम क्या बनते हैं, इसका इस बात से बहुत गहरा ताल्लुक होता है कि हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं। और हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं, इसका गहरा ताल्लुक इस बात से होता है कि हमने अपनी जिंदगी के लिए किसे अपना रोल मॉडल बनाया है।      


मेरे दूसरे प्रश्न के उत्तर में अधिकांश ने अपना आदर्श अपने पिता को बताया था। उसमें एक प्रश्न यह था कि आपके पिता क्या करते हैं। इनमें से ज्यादातर के पिता किसान थे या छोटे व्यापारी थे, मजदूर थे या दफ्तरों में काम करने वाले छोटे कर्मचारी थे। यहाँ मुझे गलत बिलकुल न समझें। मेरे लिए मजदूर, किसान और छोटे कर्मचारी उतने ही सम्माननीय हैं, जितना सम्माननीय कोई भी बड़ा अधिकारी, मैनेजर और उद्योगपति हो सकता है। फिर जब बात पिता की आती है, तब न तो वह मजदूर रह जाता है और न मालिक। पिता तो केवल पिता ही होताहै।

यहाँ हम सबके लिए सोचने और समझने की बात यह है कि हम जो बनना चाहते हैैं, और वह बनने के लिए हमने जो अपना रोल मॉडल चुना है, क्या वे दोनों एक-दूसरे से मैच करते हैं? देखिए, बात सीधी-सी है कि यदि आपको हिन्दुस्तान से अमेरिका जाना है तो दुनिया की दाहिनी दिशा की ओर यात्रा करनी होगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप पहुँचना चाहते हैं चन्द्रमा पर और उसके लिए छलाँग लगा दें हिन्द महासागर में। यदि आपने मंजिल का निर्धारण कर लिया है और आपकी दिशा सही नहीं है तो मैं यही कहूँगा कि आपकी मंजिल भी सही नहीं है। या तो मंजिल के अनुसार दिशा को चुनिए या फिर यदि आपने दिशा चुन ली है, तो वह जहाँ पहुँचा दे उसे ही अपनी मंजिल समझिए।

दरअसल होता यह है कि हमारे रोल मॉडल हमारे लिए 'लाइट हाउस' का काम नहीं करते। वे न तो उनमें ईंधन भरते हैं और न ही उनके लिए आश्रय स्थल बनते हैं। वे तो केवल गहरी अँधेरी रात में अपनी टिमटिमाहट से उन्हें यह बताते रहते हैं कि सही रास्ता उधर है, ताकि उस सुनसान सागर में वे स्टीमर भटक न जाएँ। यह पक्का जानिए कि यदि लाइट हाउस की तारों की तरह चमचमाने वाली वह हल्की-सी रोशनी किसी वजह से बुझ जाए, तो स्टीमर अपने गंतव्य तक पहुँच नहीं सकेंगे।

बस, मुझे रोल मॉडल की भूमिका इतनी ही लगती है। हमारा रोल मॉडल हमारे लिए चुनौती बनकर हमारे आगे-आगे चलता रहता है और पुकार-पुकार कर कहता रहता है कि 'मुझे छुओ, मुझे पकड़ो'। हम दौड़कर अपना हाथ बढ़ाते हैं कि इतने में वह थोड़ा-सा और आगेनिकल जाता है। वह फिर से पहली वाली आवाज लगाता है और हम फिर से उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते-करते ही एक ऐसी स्थिति आती है कि वह रोल मॉडल हमें अपने आगोश में भरकर अपने कंधे पर बिठाकर हमारी जीत की घोषणा कर देता है।

मित्रो, मेरे कहने का मतलब केवल इतना ही है कि अपनी जिंदगी के लिए एक रोल मॉडल चुनिए और याद रखिए वह रोल मॉडल आदर्श और चुनौतियों से भरा मॉडल हो। यदि आपका मॉडल आपके सपनों के अनुसार हुआ तो एक दिन ऐसा आएगा, जब आप खुद दूसरों के लिए रोल मॉडल बन जाएँगे।

(लेखक पत्र सूचना कार्यालय, भोपाल के निदेशक हैं)