-डॉ. विजय अग्रवाल यदि आप मेरे इस लेख को पढ़ रहे हैं, तो आपके साथ यही स्थिति हो सकती है कि या तो आप रोजगार की तलाश में हैं या फिर रोजगार में हैं।
यदि आप तलाश में हैं तो एक तरह की परेशानी महसूस कर रहे होंगे। आपकी यह परेशानी जायज है, क्योंकि आज रोजगार की तलाश करना कोई आसान काम नहीं रह गया है।
लेकिन आश्चर्यजनक मजेदार बात तो यह है कि जो रोजगार में हैं, वे भी परेशानी में नजर आते हैं। तलाश के दौरान तो ऐसा लगता है कि यदि एक बार रोजगार मिल जाए तो जिंदगी जन्नत में तब्दील हो जाएगी और सारी परेशानियों का अंत हो जाएगा। लेकिन जैसे ही कोई रोजगार में आता है, उसे लगता है कि वहाँ से तो एक नई परेशानी शुरू हो गई है।
इसके बाद वह फिर इस रोजगार में रहते हुए किसी दूसरे रोजगार की तलाश में लग जाता है। जब उसे दूसरा रोजगार मिल जाता है, तो यहाँ भी उसकी हालत पहले जैसे ही हो जाती है। इसके फलस्वरूप वह तीसरे की खोज करने लगता है। और इस प्रकार ताउम्र रोजगार की उसकी तलाश जारी रहती है। मैं इस तरह के एक-दो नहीं, बल्कि सैकड़ों लोगों को जानता हूँ। बल्कि सच तो यह है कि जितने लोगों को जानता हूँ उनमें से ज्यादातर लोग ऐसे ही हैं।
इसका एक दूसरा पक्ष यह है कि जो लोग रोजगार में हैं, वे यही सोचते हैं कि रोजगार बदल देने से समस्या समाप्त हो जाएगी। यदि स्थान बदल जाए, तो समस्या समाप्त हो जाएगी। यदि इस डिपार्टमेंट से हम उस डिपार्टमेंट में चले जाएँ, तो वहाँ समस्या नहीं रहेगी।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जब उनका स्थान बदला जाता है और उनका विभाग बदला जाता है, तब भी समस्या ज्यों की त्यों रहती है। हाँ, उसके स्वरूप में 19-20 का फर्क भले ही आ जाता है। लेकिन जिंदगी जीने के तौर-तरीकों में इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं आता।
मित्रों, मैं यह बात आपको केवल यह यकीन दिलाने के लिए कर रहा हूँ कि हमारी समस्याएँ कहीं बाहर नहीं होतीं, वे हमारे अंदर ही होती हैं। सच तो यह है कि हम ही वे समस्याएँ होते हैं और चूँकि हम जहाँ जाते हैं वहाँ खुद को ही लेकर जाते हैं, इसलिए हमारे साथ वे समस्याएँ भी वहाँ पहुँच जाती हैं। ये समाप्त नहीं होतीं। ये बनी रहती हैं और इस प्रकार हमारे जीवन में लगातार हस्तक्षेप करते हुए हमारे अच्छे-खासे जीवन को नर्क के करीब पहुँचा देती हैं।
सोचिए कि आखिर ऐसा क्यों होता है? यह कोई बहुत बड़ी अर्थशास्त्रीय समस्या नहीं है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम किसी भी नौकरी में जाने से पहले उस नौकरी के बारे में अपने दिमाग में एक 'इमेज' बना लेते हैं। हम स्वप्न के स्तर पर नौकरी को जीने लगते हैं। जब नौकरी को जागकर जीने की स्थिति आती है, तब उसका तालमेल हमारे स्वप्न की नौकरी से नहीं बैठ पाता।
स्वप्न और सचाई के बीच का यही फासला हमारी जिंदगी के लिए सबसे बड़ी समस्या बन जाता है। ऐसा उन लोगों के साथ तो बहुत ही ज्यादा होता है, जो अपनी नौकरी को ही अपनी जिंदगी बना लेते हैं।
मित्रों, नौकरी जिंदगी नहीं होती। हो ही नहीं सकती। ऐसा होना भी नहीं चाहिए। नौकरी जिंदगी नहीं होती है, बल्कि जिंदगी को चलाने का माध्यम मात्र होती है। दोनों बिलकुल अलग-अलग चीज हैं। जो इस सचाई को समझकर हमेशा अपनी नौकरी से दो कदम की दूरी का फासला बनाकर चलते हैं वे ही अपनी जिंदगी को जी पाते हैं। अन्यथा वे जिंदगी को नहीं जीते, अपनी नौकरी को जीते हैं।
याद रखिए कि दुनिया में ऐसी कोई भी नौकरी नहीं है, जो समस्या से रहित हो। तो ऐसी स्थिति में, जबकि हम नौकरी को ही जी रहे हों, तो यह बहुत स्वाभाविक है कि हमें उन समस्याओं को भी जीना पड़ेगा। इससे भला हम कैसे बच सकेंगे। यह संभव ही नहीं है कि आप तालाब में डुबकी लगाएँ और चाहें कि आपके बाल भीगें नहीं।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप व्यापारी हैं या नेता, आप डॉक्टर हैं या इंजीनियर, वकील हैं या न्यायाधीश, झाडू लगाने वाले हैं या झाडू बनाने वाले। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क यदि पड़ता है तो केवल इस बात से कि आपमें कितनी कूवत है कि आप अपने काम से ऊपर उठकर अपनी जिंदगी का सफर तय करते हैं। काम में आनंद लीजिए। यह काम की गुणवत्ता को बढ़ाएगा।
यकीनन इससे आपकी जिंदगी की गुणवत्ता भी बढ़ेगी। लेकिन काम को जीवन का पर्यायवाची कभी मत बनाइए। उससे हमेशा थोड़े ऊपर उठकर बैठना सीखिए। देखिए कि कैसे आपकी सारी समस्याएँ खत्म हो जाती हैं। मन खुश रहने लगेगा और स्वाभाविक है कि इससे आपके दूसरों के साथ संबंध भी अच्छे हो जाएँगे। संबंधों का अच्छा होना एक प्रकार से अच्छे जीवन की ही निशानी तो है।