मेरे नौजवान दोस्तों, इस बात को तो आप ही महसूस कर रहे होंगे कि समय बहुत बदल गया है और कई मायनों में यह बदलाव बहुत बेहतर दिशा में हुआ है। इसमें सबसे बेहतर बदलाव है काम करने वाले लोगों की माँग का बढ़ना। साथ ही समाज में उनकी कद्र का होना भी, लेकिन हमें इसे थोड़ा अलग तरीके से समझना पड़ेगा, क्योंकि अभी भी आमतौर पर कहा तो यही जाता है कि हमारे यहाँ रोजगार की बहुत कमी है, लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है?
कुछ ही दिनों पहले हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने कहा था कि हमारे यहाँ कार्यकुशल लोगों की बहुत कमी है। उनके कार्य कार्यकुशल शब्द पर गौर कीजिए। हमारे यहाँ लोगों की कमी नहीं है। आबादी के मामले में तो हम दुनिया में दूसरे नंबर पर हैं, लेकिन कार्यकुशल लोगों की निश्चित रूप से बेहद कमी है। जब मैं कार्यकुशल लोगों की कमी की बात कर रहा हूँ तो इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि डॉक्टर, इंजीनियर्स की कमी है या वकील और प्रबंधकों की कमी है। इस कार्यकुशल शब्द को बहुत व्यापक स्तर पर सोचा और समझा जाना चाहिए।
किसी भी काम को करने का अपना एक वैज्ञानिक तरीका होता है। यहाँ तक कि जब हम चलते और उठते-बैठते हैं तब भी चलने और उठने-बैठने का एक वैज्ञानिक तरीका अपना काम कर रहा होता है। हमारे लिए उस समय ठीक से चल पाना मुश्किल हो जाएगा, जब हम चलते समयअपने दोनों हाथ एकसाथ आगे की ओर या एकसाथ पीछे की ओर ले जाएँ। इसका वैज्ञानिक तरीका यही है कि जब एक हाथ आगे की ओर जाए तो दूसरा हाथ पीछे की ओर।
इस बात को तो आप ही महसूस कर रहे होंगे कि समय बहुत बदल गया है और कई मायनों में यह बदलाव बहुत बेहतर दिशा में हुआ है। इसमें सबसे बेहतर बदलाव है काम करने वाले लोगों की माँग का बढ़ना। साथ ही समाज में उनकी कद्र का होना भी।
जिंदगी जीने के बहुत से तौर-तरीके तो हम देखकर और समझकर सीख जाते हैं और ये काफी कुछ वैज्ञानिक भी होते हैं। काम करने के भी बहुत से तौर-तरीके हम देखकर ही सीखते हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि वे बहुत वैज्ञानिक नहीं होते। अगर कोई तरीका कई पीढ़ियों से गलत होता आ रहा है तो हम भी उसे गलत तरीके से करने लगते हैं और कुछ समय बाद वहीं तरीका सही लगने लगता है। कम से कम मुझे तो ऐसा लगता ही है कि हमारे काम करने के बहुत से तरीके गलत हो चुके हैं, किंतु उन्हें हम सही मान रहे हैं।
मुझे ऐसा लगता है कि अब, जबकि शिक्षा को सीधे-सीधे व्यवसाय से जोड़ने की बात हो रही है और इसके लिए अनेक तरह के प्रशिक्षण संस्थान खुल रहे हैं, इस पर विस्तार से सोचा जाना चाहिए। जाहिर है कि इस तरह से सोचे जाने का काम उन निजी उद्यमियों को करना चाहिए,जिनके लिए यह आसान है और उनके अपने रोजगार का जरिया भी है।
आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव हुए हैं। मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन के नए-नए संस्थान खुलते जा रहे हैं। यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन इनकी अपनी समस्याएँ हैं। समस्याएँ ये हैं कि जहाँ इन संस्थानों में एक अच्छा विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकता है, वहीं उसके पास पढ़ाई करने के लिए एक अच्छा आर्थिक आधार भी होना चाहिए।
हमें सोचना उन विद्यार्थियों के लिए होगा, जो पढ़ने में तो बहुत अच्छे नहीं हैं, लेकिन काम करना चाहते हैं। हमें उनके लिए भी सोचना होगा, जो न तो पढ़ने की स्थिति में हैंऔर न ही जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर है। ऐसा इसलिए, क्योंकि किसी भी समाज का विकास उसकी संपूर्णता में होता है, न कि कुछ वर्गों के विकास में।
इस लिहाज से मुझे जरूरी लगता है कि हमारे समाज में जो बहुत छोटे-छोटे काम भी होते हैं, उनके लिए आवश्यक प्रशिक्षण देने वाले संस्थान खुलें और छोटी-बड़ी सभी जगहों पर खुलें तथा काफी संख्या में खुलें।
उदाहरण के तौर पर निजी उद्यमी ऐसे संस्थान खोल सकते हैं, जहाँ झाड़ू-पोंछा लगाने, बर्तन माँजने, ठेला लगाने, चाय और पान की दुकान खोलने, बाल बनाने, जूता ठीक करने, बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, सोनारगिरी, बिजली के छोटे-मोटे उपकरण ठीक करने, साइकल, मोटरसाइकल और गाड़ियाँ सुधारने, रेडियो, घड़ियाँ और ट्रांजिस्टर ठीक करने, ड्राइवरी सिखाने, टायलेट साफ-सफाई हाउस कीपिंग, चपरासीगिरी, मकानों की मरम्मत करने, प्लम्बर का काम, ईट बनाने तथा दीवार खड़ी करने जैसे सैकड़ों काम सिखाए जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि अभी यह काम हो नहीं रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ये सारेकाम बहुत ही परंपरागत तरीके से हो रहे हैं। मुझे इस बात की पूरी-पूरी गुंजाइश लगती है कि यदि इस काम में लगी हुई श्रमशक्ति को थोड़ा-सा दक्ष कर लिया जाए तो न केवल काम की गुणवत्ता बढ़ जाएगी, बल्कि वस्तु की उत्पादन लागत भी कम होगी। साथ ही काम करने वालों का जीवन स्तर भी काफी कुछ बढ़ेगा। इससे देश की भी एक अलग छवि बन सकेगी।
यहाँ मैं अपनी बात फिर से एक उदाहरण देकर समाप्त करना चाहूँगा। हमारे यहाँ सभी जगह रिक्शे चलते हैं। ऑटो, टैक्सियाँ चलती हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने रिक्शे और ऑटो वालों को कुछ इस तरह का प्रशिक्षण दे सकें कि उन्हें अपने ग्राहकों से किस तरह बर्ताव करना चाहिए? उन्हें खुद किस तरह रहना चाहिए? उन्हें अपने शहर के बारे में भी जानकारी होना चाहिए, ताकि अपनी सवारी के लिए गाइड का भी काम कर सकें। मुझे यह भी लगता है कि निजी उद्यमियों के साथ-साथ इस काम को करने की जिम्मेदारी हमारे कुछ स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) भी ले सकते हैं और अनुदान के जरिए वे अपने इस काम को अंजाम दे सकते हैं।
(लेखक पत्र सूचना कार्यालय, भोपाल के अपर महानिदेशक है) [email protected]