नए का जुनून

-भूपति चक्रवर्त

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नए-नए नाम से शुरू होने वाले नए-नए कोर्स क्या सचमुच नए होते हैं या फिर नएपन के प्रति हमारे जुनून को भुनाने का हथकंडा...?

नए के प्रति चाहत मानव सभ्यता के विकास की एक मुख्य प्रेरणा शक्ति रही है। सभी आविष्कार इसी चाहत का नतीजा माने जा सकते हैं। इस प्रवृत्ति के लिए एक शब्द 'निओफीलिया' का इस्तेमाल किया जाता रहा है। अब इस शब्द का प्रयोग कई अन्य संदर्भों में भी किया जाने लगा। समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह शब्द केवल 'नए के प्रति आकर्षण' तक सीमित नहीं रह गया है। इस शब्द ने अपनी सीमाएँ तोड़ दी हैं। इसमें समाई प्रवृत्ति 'नए के प्रति जुनून' में तब्दील होने लगी है। विकसित देशों में यह प्रवृत्ति गंभीर रूप अख्तियार कर चुकी है और अब इसने भारत जैसे विकासशील देशों में भी जड़ें जमाना शुरू कर दी हैं।

'न्यू साइंटिस्ट' में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक अमेरिकी लोग हर साल दस करोड़ मोबाइल फेंक देते हैं। अर्थात लोग एक साल के भीतर ही अपना मोबाइल फोन बदल लेते हैं। बाजार में जब भी मोबाइल का कोई नया मॉडल आता है, युवा उसे हाथों-हाथ लेते हैं। जाहिरहै, इसमें मोबाइल कंपनियों की चाँदी हो जाती है। लेकिन इस तरह मोबाइल फेंकने के दो दुष्परिणाम हैं : एक, मोबाइल में ऐसी धातुओं व पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है जो घातक होते हैं। इससे यह 'मोबाइल कूड़ा' पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित हो रहा है।दूसरा, इस प्रकार संसाधनों का दुरुपयोग अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत असर डाल रहा है। यही स्थिति कार, टेलीविजन या अन्य उत्पादों के साथ भी हो रही है।

यह सच है कि इस समस्या से विकसित देश ज्यादा पीड़ित हैं, लेकिन यह भी सच है कि 'निओफीलिया' हमारे समाज में भी पैर पसार रहा है।

यह जुनून केवल उपभोक्ता वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रह गया है। नए अकादमिक पाठ्यक्रमों खासकर विज्ञान, प्रौद्योगिकी व प्रबंधन के क्षेत्र में नई-नई शाखाओं-उपशाखाओं के प्रति भी आकर्षण में बढ़ोतरी हुई है। निओफीलिया पर इस नजरिए से भी विचार करने की जरूरत है।

दिलचस्प बात यह है कि किसी जमाने में जो विषय स्नातकोत्तर कक्षाओं में पढ़ाए जाते थे, वे अब स्नातक कक्षाओं में पढ़ाए जाने लगे हैं। प्रबंधन पाठ्यक्रम, कम्प्यूटर एप्लीकेशन, सूक्ष्म जीवविज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी, पर्यावरण अध्ययन, नैनो प्रौद्योगिकी इत्यादि इसी के उदाहरण हैं।पहले माना जाता था कि इन विषयों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों को कम से कम स्नातक होना चाहिए, ताकि उनका आधार मजबूत बन सके। इसके बाद उक्त विषयों का अध्ययन आसान हो सकेगा। लेकिन अब यह धारणा बदल चुकी है।

वैसे अक्सर यह देखने में आता है कि इन पाठ्यक्रमों की विषय वस्तु पुराने पारंपरिक पाठ्यक्रमों की ही नई पैकेजिंग होती है। अगर कुछ विश्वविद्यालयों के बीएससी इलेक्ट्रॉनिक के नए पाठ्यक्रम पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलेगा कि इसकी 80 से 85 फीसदी विषय वस्तु पारंपरिक बीएससी भौतिकी के पाठ्यक्रम से ही ली गई है। यहाँ तक कि कुछ विश्वविद्यालयों में एमएससी इलेक्ट्रॉनिक में जो प्रयोग शामिल किए गए हैं, वे कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में बीएससी भौतिकी में पहले से ही शामिल हैं।

आजकल शिक्षा के बाजार में स्व-वित्तपोषित व कथित आधुनिक पाठ्यक्रमों की भरमार है। इन विषयों को पढ़ाने वाले या तो अतिथि शिक्षक होते हैं या पार्ट टाइम टीचर। इनकी योग्यता अक्सर संदेह के घेरे में रहती है। ऐसे में इन नए पाठ्यक्रमों का क्या औचित्य है? लेकिनविडंबना यह है कि इसके बावजूद बड़ी संख्या में विद्यार्थी इन पाठ्यक्रमों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं।

'स्व-वित्तपोषित' शब्द से ही स्पष्ट है कि विद्यार्थी जो पढ़ना चाहता है, उसका पूरा खर्च यानी शिक्षकों के वेतन से लेकर प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री पर होने वाला खर्च स्वयं विद्यार्थी को ही वहन करना होगा। पाठ्यक्रम की यह लागत अलग-अलग संस्थानों मेंअलग-अलग हो सकती है। पाठ्यक्रम अविराम चलते रहें, यह विद्यार्थियों की संख्या पर निर्भर करता है। अर्थात्‌ जितने अधिक विद्यार्थी होंगे, उस पाठ्यक्रम के बंद होने की आशंका भी उतनी ही कम होगी। संस्थानों का पूरा जोर इस बात पर रहता है कि अधिक से अधिक विद्यार्थियों को प्रवेश के लिए प्रेरित किया जाए। ऐसे में विद्यार्थियों की योग्यता व शैक्षणिक पृष्ठभूमि को परे रख दिया जाता है। पाठ्यक्रमों को आकर्षक बनाने के लिए नए व आधुनिक नामों के साथ पेश किया जाता है। ये नए व आधुनिक नाम इतने लुभावने होते हैं कि विद्यार्थी वउनके अभिभावक इनके जाल में फँस ही जाते हैं। उन्हें लगता है कि वैश्वीकरण के युग में ये पाठ्क्रम बेहतर नौकरी की गारंटी बनेंगे। लेकिन क्या वाकई ऐसा होता है?

बेहतर भविष्य की गारंटी के दावों के पक्ष में इन संस्थानों के पास कोई विश्वसनीय आँकड़े नहीं हैं। न ही इन संस्थानों में ऐसा कुछ है जिनसे इनकी विश्वसनीयता साबित होती है- न तो प्रशिक्षित स्टाफ और न ही ढाँचागत सुविधाएँ। लेकिन इसके बावजूद ये संस्थान कुकुरमुत्तों की भाँति लगातार फैलते जा रहे हैं।

इसकी प्रमुख वजह निओफीलिया ही मानी जा सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त हो रहा यह निओफीलिया उपभोक्ता सामग्री या नए फैशन के प्रति बढ़ते जुनून की तुलना में कहीं अधिक गंभीर व घातक है। ऐसे में वक्त का तकाजा यही है कि हम इस पूरे मसले पर गंभीरतापूर्वक विचार करें और हाथ से निकलती जा रही स्थिति को काबू में करने का प्रयास करें।