रैगिंग का रोग जहाँ सीनियरों का दिमाग विकृत कर रहा है, वहीं जूनियर स्वयं को इस हद तक प्रताड़ित पा रहे हैं कि अक्सर वे आत्महत्या जैसा कदम उठाने की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। आखिर कैसे मिले इस रोग से छुटकारा?
कॉलेज, विशेषकर तकनीकी शिक्षा संस्थानों में लाख जतन करने के बाद भी हर वर्ष कुछ होनहार छात्र रैगिंग की बलिवेदी पर कुर्बान हो रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि फर्स्ट ईयर पार होते ही युवा अचानक हिंसक हो उठता है? नवागतों को 'आई कांटेक्ट' न रखकर गुलामों की तरह नजरें झुकाकर बात करने पर मजबूर किया जाता है। होस्टल में सीनियर छात्र-छात्राओं द्वारा जूनियर छात्र-छात्राओं को कपड़े धोने पर मजबूर किया जाता है।
काले जूते पहनना, दो चोटी रखना आदि कुछ विशेष तरह की 'परिधान संहिता' लागू की जाती है। ये युवा, नोबेल पुरस्कार सम्मानित उपन्यासकार विलियम गोल्डिंग के 'लॉर्ड ऑव फ्लाइज' के स्वच्छंद किशोरों की तरह थोड़ी आजादी मिली कि बेतहाशा निरंकुश एवं हिंसक हो जाते हैं। ऐसे में प्रताड़ित छात्र, विशेषकर दूर स्थान से आया हुआ शख्स समाज में स्वयं को इतना त्रस्त, अपमानित व असुरक्षित महसूस करता है कि कभी-कभी उसे मौत ही समस्या का समाधान नजर आने लगती है।
आखिर समस्या का समाधान क्या है? सबसे पहला दायित्व माता-पिता का है। उन्हें चाहिए कि वे बच्चे के नियमित संपर्क में रहें। आज जब हम साठ-सत्तर हजार रुपए प्रवेश दिलाने में खर्च कर सकते हैं तो बच्चों को मोबाइल तो दिला ही सकते हैं, जिससे रोज नियत समय पर संपर्क किया जा सकता है। जिस शहर में आपका बेटा/ बेटी पढ़ रहे हों, संभव है वहाँ आपका कोई परिचित या रिश्तेदार रहता हो। बच्चे पर निगरानी रखने का उनसे अनुरोध किया जा सकता है।
माता-पिता में से कम से कम एक को बच्चे के साथ सखाभाव से रहना चाहिए ताकि वह अपनेसाथ हुई छोटी-मोटी तकलीफ, परेशानी या तनाव को 'शेयर' कर सके। माना कि आपने बड़ी मुश्किल से फीस की व्यवस्था की है, मगर बार-बार इसका जिक्र कर बच्चों को इतना 'ऋणी' न बनाएँ कि वे उस 'भार' से मुक्त ही न हो सकें। आपको उन्हें वह अहसास दिलाना होगा कि आपने महज अपना फर्ज पूरा किया है और अब उन्हें भी अपना फर्ज अदा करना है।
और अंत में एक प्रार्थना..! सीमा से अधिक प्रताड़ित होने पर आत्महत्या की ओर उन्मुख होने वाले युवाओं जरा इतना तो सोचो कि आत्महत्या करके तुम अपने माता-पिता और भाई-बहनों को जिन्दगी भर का नासूर देकर जा रहे हो!
सात वर्ष पूर्व मेरे पुत्र ने इंदौर के एक प्रतिष्ठित संस्थान में इंजीनियरिंग कोर्स में प्रवेश लिया। उसे सीनियर छात्रों के एक समूह ने सिगरेट पीने के लिए मजबूर किया और एक दिन किसी अपरिचित के विवाह समारोह में 'अप टू डेट' होकर बुफे में भोजन करके आने को मजबूर किया। सप्ताहांत की मुलाकात में बेटे ने जब हमें इन घटनाओं की जानकारी दी तो हमारे सामने भी वही स्थिति बनी, जो आज के पेरेंट्स की बनती होगी।
हम पति-पत्नी ने उसे परिस्थिति व समय के अनुसार धैर्य एवं संयम से काम लेने एवं सामर्थ्य के अनुसार प्रतिरोधकरने की सलाह दी। पुत्र ने अवांछित या अपरिचित के विवाह समारोह में भोजन करने, जिसे सीनियर छात्र 'स्पॉटिंग' कहते थे, में जाने से अगली बार इंकार कर दिया। हाँ, बदले में उसे थोड़ी सी प्रताड़ना व अपशब्द सहना पड़े, मगर अगली बार उन चीजों पर भी उसका दृढ़ निश्चय व संकल्प भारी पड़ा और उसे प्रताड़ना से मुक्ति मिली।
यही नहीं, पुत्र ने हमसे वादा भी किया कि जब वह सीनियर बनेगा तो न तो किसी जूनियर छात्र को प्रताड़ित करेगा और न ही कभी धूम्रपान करना या करवाने की गतिविधि में सम्मिलित होगा। जहाँ तक संभव होगा, अपने साथियों को भी ऐसा करने से रोकेगा। उसने न सिर्फ इस व्यसन से स्वयं को आज तक दूर रखा, बल्कि अपने एक साथी को धूम्रपान का परित्याग करने के लिए प्रेरित भी किया।
शिक्षण संस्थान का प्रबंधन यदि पूरी मुस्तैदी से सख्त रवैया अपनाए और सीनियर छात्रों के मन में एक बार यह पक्का विश्वास दिलाने में सफल रहे कि किसी भी सीनियर द्वारा जूनियर छात्र को प्रताड़ित करने का मतलब 'रस्टीकेट' होना ही है; और हर जूनियर छात्र के पास चौबीसों घंटे अटेंड की जा सकने वाली व सूचना देने वाले का नाम व नंबर गोपनीय रखी जा सकने वाली हेल्पलाइन का नंबर हो तो रैगिंग कर यह मध्ययुगीन आचरण निश्चित ही रोका जा सकता है।
और अंत में एक प्रार्थना..! सीमा से अधिक प्रताड़ित होने पर आत्महत्या की ओर उन्मुख होने वाले युवाओं जरा इतना तो सोचो कि आत्महत्या करके तुम अपने माता-पिता और भाई-बहनों को जिन्दगी भर का नासूर देकर जा रहे हो! यदि तुम अपने साथ हो रही ज्यादती के बारे में उन्हें बताओ तो शायद वे अपनी समझ, अपने तरीके से इसे सुलझा सकें।