विलक्षण और अद्भुत शक्तियों के स्वामी श्रीकृष्ण, कैसी है उनकी कुंडली

यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। अभ्युत्थानमर्ध्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थ सम्भवामि युगे-युगे।।
 
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म कृष्ण पक्ष की भाद्रपद अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र, वृषभ लग्न व मध्यरात्रि में मथुरा के कारागार में हुआ था। पिता वासुदेव व माता देवकी की यह 8वीं संतान थी। जब कंस का अत्याचार चरम पर पहुंच गया, तब भगवान का अवतार हुआ।
 
गीता के चतुर्थ अध्याय के 7वें श्लोक में कहा गया है कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होगी, तब-तब मैं प्रकट होउंगा। धर्म की स्थापना व अधर्म के नाश हेतु प्रत्येक युग में मेरा अवतरण होता है। 
 
आइए, जानते हैं श्री कृष्ण की प्रचलित जन्म कुंडली के आधार पर कैसे हैं भगवान श्रीकृष्ण के जगमगाते सितारे। 
 
श्रीकृष्ण जन्म के समय चन्द्रमा तृतीयेश होकर लग्न में उच्च का था, इसी वजह से उनका पराक्रम बढ़ा-चढ़ा था। लग्न व षष्ट भाव का स्वामी शुक्र उच्च का होकर एकादश आय भाव में था। ऐसी स्थिति को परमोच्च कहा जाता है। जहां लग्न बली है वहीं पराक्रमेश भी बली है। ऐसा जातक महान पराक्रमी होता है। 
 
वृषभ लग्न होने से आप इकहरे शरीर व सांवले रंग के थे। वृषभ लग्न वालों की एक खासियत यह होती है कि वे जल्द गुस्सा नहीं होते और उन्हें एक बार गुस्सा आ जाए तो फिर वे किसी के संभाले नहीं संभलते। सुख भाव में स्वराशि का सूर्य होने से माता का भरपूर सुख मिला। 
 
द्वितीयव पंचम भाव का स्वामी बुध उच्च का मित्र राशिगत राहु के साथ होने से चतुर व तेजस्वी दिमाग के रहे। पराक्रम भाव में आय भाव का स्वामी उच्च का है यही वजह है की सभी प्रकार का ऐश्वर्य उन्हें मिला। चन्द्र व शुक्र के उच्च होने से अनेक रासलीलाएं कीं। 
 
सप्तमेश व द्वादेश का स्वामी मंगल उच्च का होकर नवम भाव में है व नवमेश उच्च का होकर षष्ट यानी शत्रु भाव में है। आपकी पत्नियों के बीच में प्रेमिका राधा का नाम ही सर्वोपरि रहा। क्योंकि चन्द्र की नीच दृष्टि सप्तम भाव पर आने से पत्नियों का नाम नहीं लोकप्रिय नहीं हुआ व प्रेमिका राधा का हुआ। 
 
उच्च के 6 ग्रह, लग्न में एक स्वराशि का ग्रह होने से श्रीकृष्ण सामने वाले की मन:स्थिति को जानने वाले तथा पराक्रमी बने। पंचम भाव में उच्चस्थ बुध के साथ राहु ने आपको अत्यंत विलक्षण बुद्धि तथा गुप्त विद्याओं का जानकार बनाया। 
 
षष्ठ भाव में उच्चस्थ शनि होने से श्रीकृष्ण प्रबल शत्रुहंता हुए। सप्तमेश मंगल उच्च होकर नवम भाव है अत: भाग्यशाली रहे। चतुर्थेश सूर्य स्वराशि में होने से हर समस्याओं का समाधान श्रीकृष्ण कर सके। उनके समक्ष बड़े से बड़ा शत्रु भी न टिक सका। सर्वत्र सम्मान के अधिकारी बने। 
 
उच्च के चन्द्र से चतुर, चौकस, चमत्कारी, अत्यंत तेजस्वी, दिव्य और अनेक विलक्षण विद्याओं के जानकार रहे। 
 
उच्च के शनि के कारण महान कर्मयोगी बने व परम शत्रुहंता भी रहे। षष्ट भाव में शनि का उच्च का होना ही शत्रुओं का काल बना। 
 
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। 
तत्र श्रीर्विजयोभूतिर्ध्रवा नीतिर्मतिर्मम।। 

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