नवरात्रि : मातृ-शक्ति के प्रति कृतज्ञता

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- रजनीश बाजपेई
नवरात्रि त्योहार है उस मातृ-शक्ति के प्रति कृतज्ञता का जिसने प्रकृति के नृत्य में सक्रिय भाग लिया। प्रकृति ने स्त्री को अपने महारास में शामिल किया। उसे इस सृष्टि का विधायक दर्जा दिया। उसे सृजन में शामिल किया। नवरात्रि इस चेतन प्रकृति माँ के प्रति कृतज्ञता है।

अगाध श्रद्धा भाव से भरा हुआ मानव नवरात्रि के समय सब कुछ भूलकर उत्साह और उमंग से नाचने लगता है। शब्द किसी निश्चित सीमा तक ही भावों को व्यक्त करने में समर्थ होते हैं, लेकिन भावों के अतिरेक को मनुष्य शारीरिक क्रिया के माध्यम से ही व्यक्त कर पाता है। उसी का परिणाम नृत्य के रूप में प्रकट होता है। लोग झूम उठते हैं, नाचते हैं, वह नृत्य कोई साधारण नृत्य नहीं होता।

उसी असाधारण नृत्य का उसी महारास का नाम है गरबा। कितना सुहाना होता है क्वाँर के उत्तरार्ध का यह सुहाना मौसम। यह वह समय है जब पृथ्वी अपने पूरे संतुलन में होती है और वह भी चार महीने की बारिश के बाद प्रकृति की तरफ अपना धन्यवाद ज्ञापित कर रही होती है। प्रकृति इस समय नृत्य कर रही होती है जिसके साथ उसका अवयव मानव उसमें एकाकार हो जाता है।

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जब नृत्य की बात आती है तो स्वभावतः नारी ही उसमें पूर्ण दक्षता के साथ उभरकर आती है। क्योंकि स्त्री स्वयं एक नृत्य है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि सामान्यतः स्त्री पुरुषों की अपेक्षा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है! स्त्री के व्यक्तित्व में एक संतुलन दिखाई पड़ता है। एक आंतरिक नृत्य दिखाई पड़ता है। इसके पीछे एक बड़ा बायलॉजिकल कारण छिपा है। जब बच्चा पहली बार निर्मित होता है तो उसमें 24 अणु पुरुष के होते हैं व 24 स्त्री के।

यदि निषेचन की प्रक्रिया में 48 अणु जुड़ते हैं और पहला सेल निर्मित होता है तो वह स्त्री होती है। जबकि माँ के 24 अणु और पिता के 23 अणु से जो पहला सेल निर्मित होता है वह पुरुष का होता है। इतनी छोटी-सी बात इतना बड़ा अंतर उत्पन्ना कर देती है। आजीवन पुरुष के व्यक्तित्व के साथ वह असंतुलन चलता है जिसे वह विभिन्न क्रिया-कलापों द्वारा पाटने का प्रयास करता रहता है। इस बात को भीतर ही भीतर जानते हुए भी स्त्री कभी इस पर अहंकार प्रदर्शित नहीं करती। शायद इसलिए उसमें स्त्री-सा सौंदर्य, स्त्री-सा संतुलन तथा सहनशीलता और स्त्री-सी गरिमा कभी नहीं आ पाती।

ऐसा नहीं कि स्त्री सिर्फ माँ है। उसके कितने रूप हैं उन्हें ही व्यक्त करने को सृष्टि ने नवरात्रि पर्व को जन्म दिया। नौ के अंक को पूर्णांक माना गया है। इसमें सब समाया है। सारी सृष्टि समाई है। यह व्यक्त करता है कि नारी साधारण नहीं है। यह नौ रूपों में समाए इसके प्रतिनिधि रूप हैं। यह महागौरी है, तो महाकाली भी बन सकती है। यह स्कंदमाता और शैलपुत्री तो है ही, पर कात्यायनी और कालरात्रि भी है। इस देश ने लाखों सालों से सिर्फ जीवन को समझने में स्वयं को अर्पित कर दिया। नवरात्रि का पर्व तथा उल्लास उस समझ के प्रतिनिधि हैं जो ऋषियों की परंपरा के रूप में इसे हासिल हुई। इनमें गहरे आध्यात्मिक अर्थ छुपे हुए हैं। ये सूत्र इस मानव जीवन के लिए उतने ही कीमती हैं जितने विज्ञान के लिए न्यूटन और आईंस्टीन के सूत्र।

सृजन में ही सुख है। खोज में ही शांति है। उसकी खोज जिसके लिए यह मानव जीवन अस्तित्व में आया। हर मनुष्य के भीतर एक हूक-सी छूट रही है कि वह प्रकृति के इस अलौकिक खेल में स्वयं को शामिल करे। वह यह समझे कि वह क्यों है इस पृथ्वी पर। इस हूक को दबाने के लिए मानव ने कितनी अनर्गल ईजादें कर लीं। बिना कारण हिमालय पर चढ़ गया। बम बना डाले।

अब स्वयं ही उस महाविनाश से चिंतित दिखाई पड़ रहा है जिसके रास्ते स्वयं उसने खोजे हैं। अब पुरुष उन अंधे बीहड़ों में घुसा स्वयं को असहाय और निरीह महसूस कर रहा है। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, जब स्त्री अपनी गरिमा को भूल पुरुष द्वारा तय रास्ते पर चल पड़ती है।

पुरुषों की सत्ता पुरुषों के असंतुलन ने बनाई, उसको शिखरों पर उसकी असंतुष्टि ने पहुँचाया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मातृशक्ति पुरुषों के दृष्टिकोण से स्वयं को सिद्ध करे। सत्ता ही पाठ्यक्रम और गोल्डमेडल पाने के रास्ते तय करती है। चूँकि पुरुष सत्ता रही है और पुरुष ने अपने हिसाब से यह सब तय किया। पश्चिम में स्त्री जागी लेकिन यह विडंबना ही है कि वह पुरुष बनने को अग्रसर हो गई। स्त्री पुरुष से हीन नहीं पर भिन्न है। स्त्री की माँ की गरिमा उसे समाज का मार्गदर्शक बनाती है, क्योंकि कभी न कभी हर पुरुष दयनीय अवस्था में उसके सामने पड़ा होता है जिसे वही दुनियादारी सिखाती है।

स्त्री स्वयंसिद्ध है। उसे किसी के सामने स्वयं को प्रदर्शित करने की और न्याय माँगने की जरूरत नहीं। कितना बड़ा प्रतीक है उसकी शक्ति का कि कालों के काल महाकाल, उसके पैरों के नीचे आ गए। जब भौतिक मानकों पर भी सिद्ध करने की बात आई तो स्त्री ने कहाँ अपने को सिद्ध नहीं किया। आज दुनिया के कौन से ऐसे क्षेत्र हैं जो उसकी पहुँच से दूर हैं। आज के समय में स्त्री को पुरुष द्वारा स्थापित मानकों पर चलने की आवश्यकता नहीं बल्कि स्वयं द्वारा तय उन आदर्शों पर चलने की आवश्यकता है जो स्त्री के संपूर्ण स्त्रीत्व को पूरी तरह विकसित कर दें।

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता। कितने रूपों में नारी शक्ति को स्थापित किया गया है। कितने ऊँचे प्रतिमान हैं नारी के जिसके प्रतीक हैं ये प्राचीन पर्व और त्योहार। जिनको आज नए सिरे से व्याख्यायित किए जाने की आवश्यकता है, जिसका अधिकार अब प्रकृति को विनाश के सिरे तक पहुँचाने वाले पुरुष के पास नहीं बल्कि संतुलन, सामंजस्य, समता और शक्ति की प्रतीक मातृशक्ति के पास होगा। तभी मानवों के बचने की संभावना है जब इन त्योहारों में छिपे प्रतीकों को हम अपने-अपने वर्तमान को सुधारने में प्रयोग कर सकेंगे। आने वाले युग की व्याख्या नारी अपने अर्थों में कर सकने का साहस फिर माँ काली की तरह कर सकेगी

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