रायपुर। राजे-रजवाड़ों का दौर समाप्त होने के बाद भी छत्तीसगढ़ की राजनीति में राजघरानों की खासी भूमिका रही है और इन चुनावों में भी राजघरानों के सदस्य अपनी मौजूदगी दर्शा रहे हैं।
अविभाजित मध्यप्रदेश में तो छत्तीसगढ़ की करीब डेढ़ दर्जन सीटों पर राजघरानों का वर्चस्व रहता था। राजघरानों के प्रभाव वाली इन सीटों पर या तो राजघराने का ही कोई व्यक्ति चुनाव लड़ता था या उसका कोई खास आदमी टिकट पाता था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है।
बस्तर, डोंगरगांव, खरागढ़, कवर्धा, सक्ती, बसना और अंबिकापुर के राजघराने खासतौर पर राजनीति में सक्रिय हैं। दिलचस्प बात यह है कि राजघरानों का झुकाव कांग्रेस की ओर अधिक रहा है।
हाल ही में भाजपा में शामिल हुए बस्तर के 22वें राजा कमलचंद्र भंजदेव ने बताया कि ऐसा नहीं है कि राजघरानों के लिए राजनीति महत्वपूर्ण रही है। अगर मैं अपनी बात करूं तो मैं लोगों के लिए कुछ करना चाहता हूं इसलिए मैंने राजनीति की राह चुनी। मेरे पूर्वज भी राजनीति में रहे हैं और उनका अपना नजरिया रहा होगा।
अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने से पहले छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था और उन दिनों चुनावों में अक्सर राजघरानों के लोग चुनावों में अपनी किस्मत आजमाते थे। आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ वर्ष 2000 में अस्तित्व में आया। लंबे समय तक कांग्रेस का गढ़ रहे छत्तीसगढ़ में बीते दो चुनावों से भाजपा ने बहुमत हासिल किया।
बीते दो चुनावों में लगातार मुंह की खाती आ रही कांग्रेस ने इस बार कई बदलाव किए हैं जिनमें राजघरानों से खुद को दूर रखना भी शामिल है। इस बार कांग्रेस ने केवल दो राजघरानों के सदस्यों को ही टिकट दिया है।
अंबिकापुर राजघराने के टीएस सिंहदेव इसी सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी हैं। पार्टी में खास महत्व रखने वाले सिंहदेव कांग्रेस पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष भी हैं। हालांकि पिछला चुनाव उन्होंने बहुत कम मतों से जीता था।
बसना राजघराने के देवेंद्र कुमार सिंह एक बार फिर कांग्रेस के प्रत्याशी हैं। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि विपरीत परिस्थितियों में विकास का लक्ष्य कांग्रेस ही पूरा कर सकती है। जब पृथक छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आया था तब खरागढ़ सीट से वहां के राजघराने के सदस्य देवव्रत सिंह, इसी राजघराने की गीतादेवी सिंह डोंगरगांव से, कवर्धा सीट से वहां के राजघराने के सदस्य योगेश्वरराज सिंह और बसना से देवेन्द्र बहादुर सिंह सदस्य थे। इस बार कांग्रेस ने साफ-सुथरी छवि वाले देवव्रत सिंह के बजाय उनके करीबी को खरागढ़ से टिकट दिया है।
अविभाजित मध्यप्रदेश में डोंगरगढ़ सीट का प्रतिनिधित्व गीता देवी सिंह के पति और खरागढ़ राजा दिवंगत शिवेन्द्र बहादुर सिंह करते थे और खरागढ़ सीट का प्रतिनिधित्व शिवेन्द्र बहादुर सिंह की भाभी रश्मि देवी सिंह करती थीं। देवव्रत सिंह रश्मिदेवी के ही पुत्र हैं।
कवर्धा राजघराने के कई सदस्य राजनीति में रहे हैं। वहां की रानी शशिप्रभा देवी को लोग आज भी याद करते हैं जो कांग्रेस की विधायक बनी थीं।
कवर्धा सीट से पिछली बार चुनाव हार चुके योगेश्वरराज सिंह इस बार फिर इसी सीट से टिकट चाहते थे लेकिन पार्टी ने उनकी जगह, कवर्धा सीट से मोहम्मद अकबर को प्रत्याशी बनाया। अकबर पंडरिया सीट से विधायक हैं।
नाराज योगेश्वरराज सिंह ने अपने करीब 300 समर्थकों के साथ कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा कि अकबर बाहरी व्यक्ति हैं। उन्हें टिकट देना कवर्धा की जनता का अपमान है। दिलचस्प बात यह है कि 1998 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े योगेश्वर ने भाजपा के डॉ. रमन सिंह को हराया था।
2003 में उन्होंने भाजपा के डोसिया राम साहू को हराया था लेकिन 2009 के चुनाव में डोसिया राम से हार गए थे। इस बार भाजपा ने अशोक साहू को टिकट दिया है।
सक्ती राजघराने के सुरेंद्र बहादुर सिंह का टिकट का दावा भी इस बार पार्टी ने खारिज कर दिया। नाराज होकर सिंह गोंडवाना गणतंत्र पार्टी में शामिल हो गए और उसके टिकट पर सक्ती सीट से चुनाव मैदान में ताल ठोंक रहे हैं।
चंद्रपुर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर संसदीय सचिव युद्धवीर सिंह चुनाव लड़ रहे हैं, जो जशपुर राजघराने के सदस्य हैं। पिछली बार कांग्रेस की गैरमौजूदगी में उनको आसान जीत मिली थी।
दिवंगत केंद्रीय मंत्री दिलीपसिंह जूदेव के पुत्र युद्धवीर दूसरी बार चुनाव मैदान में हैं। उनको पिछली बार अपने पिता की लोकप्रियता का पूरा फायदा मिला था। इस बार पिता के निधन से उपजी सहानुभूति के उनके पक्ष में वोटों में तब्दील होने की उम्मीद है। जूदेव के प्रति लोगों में गहरी श्रद्धा और सम्मान है। (भाषा)