बनता-संवरता-बदलता बचपन

आज का बचपन किन परिस्थितियों में उलझा है, कैसे-कैसे दबाव उन पर हैं और कितनी ही सुविधाओं से संपन्न है फिर भी परेशान है। बाल दिवस पर हमने मिली-जुली बात की कुछ अभिभावकों से। प्रस्तुत है संपादित अंश -

आज बच्चों का बचपन मशीनी हो चुका है, तकनीकी युग में बच्चे भी तकनीक के काफी करीब आ चुके हैं। एक समय वह था जब बच्चों के लिए छोटे-छोटे खेल भी खासी अहमियत रखते थे लेकिन जिस तरह तकनीक ने बच्चों के बचपन में घुसपैठ की है उससे बच्चे भी उन्हीं तकनीकी खेलों को जानते और समझते हैं। बच्चे छोटी उम्र से ही कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर अंगुलियां दौड़ाना शुरू कर देते हैं। अब उन घरेलू गेम्स की तरफ उनका ध्यान कम ही जाता है।

श्रावणी मेहरा

हाथों में टॉफी या फिर बिस्किट का पैकेट लेकर अनाथालय में बच्चों को घूमते देख बचपन का यह नजारा भी देखने मिलता है। छोटे-छोटे नौनिहाल जिन्हें इस उम्र में माता-पिता की गोद में होना चाहिए था वे आज अनाथालय की शरण में हैं। फिर भी यहां इनकी परवरिश का पूरा ख्याल रखा जा रहा है।

बच्चों की बचकानी जुबां से उनके मधुर अल्फाज कम ही सुनने मिलते हैं। दूसरी तरफ दुनिया में आने से पहले ही उनकी हिस्ट्री माता-पिता पहले ही बना लेते हैं। ठीक भी है लेकिन जरा संभलकर क्योंकि आपका दबाव कहीं बच्चे की सोच पर भारी न पड़ जाए।

- अनु तिवारी


खेलने-कूदने की उम्र में बच्चे कंधे में बस्ता टांगे स्कूल में नजर आते हैं, किताबों के बीच उनकी दुनिया सिमट कर रह गई है। बचपन तो जैसे उनके लिए सिकुड़ सा गया है। वक्त की रफ्तार में बच्चों की अठखेलियां भी कम ही नजर आती हैं। अब दो से ढाई साल की उम्र में ही यूकेजी और एलकेजी में प्रवेश का सिलसिला शुरू हो चुका है। बच्चे ठीक से बोलना भी नहीं सीख पाते और उन्हें स्कूल का रास्ता दिखा दिया जाता है।

- कविता शर्मा

मनोचिकित्सक सुधा नायडू के अनुसार-

बच्चों का नेचरल विकास होने दें। बचपन में बच्चों के विकास की गति रुकती है, तो बच्चों की मानसिक स्थिति पर भी इसका असर देखा जाता है। बचपन में बच्चों पर दबाव उन्हें दिमागी रूप से कमजोर भी बना रहा है। यह पैरेन्ट्स की जिम्मेदारी है कि बच्चों को बचकानी हरकत करने से न रोकें और उन्हें स्वस्थ परिवेश दें।

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