क्रिसमस : ईश्वर प्रेम के कृतज्ञता का पर्व

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क्रिसमस का पर्व हमसे भ्रातृ-प्रेम द्वारा हमारे प्रति ईश्वर के प्रेम की कृतज्ञता प्रकट करने को कहता है। सच्चे आनंद की अनुभूति तभी होगी जब हम अपने भाई-बहनों से प्रेम करेंगे। हमारा आनंद दूना हो जाता है जब हम अपना आनंद, अपना जीवन और अपना प्रेम दूसरों के साथ बाँटते हैं।

यह आनंद तभी मिलेगा जब हम अपने प्रेम को तथा अपने को दूसरों के साथ बाँटते हैं, किंतु ख्रीस्त जयंती हमारी इस मूल्य-प्रणाली को उलट-पुलट कर देती है। इस पर्व पर हम अवतार के रहस्य को मानते हैं। अवतार का अर्थ है शरीर धारण करना। ईश्वर, येशु में मनुष्य बन गया। उसने स्वयं मानव जाति के साथ तादात्म्य स्थापित किया और पृथ्वी पर आकर पृथ्वी का एक अंग बन गया।

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संत योहन के अनुसार- शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। इसका अर्थ हुआ कि भौतिक तत्व, संसार और शरीर में कुछ अच्छाई और सौन्दर्य है। सृष्टि का रहस्य हममें कहता हे कि ईश्वर ने संसार की सृष्टि की और उसे अपनी सृष्टि अच्छी लगी।

अवतार का रहस्य अर्थात्‌ क्रिसमस हमसे कहता है कि ईश्वर संसार का एक अंग बनकर संसार में संसार का होकर और संसार के लिए बना रहा। शब्द ने देह धारण किया और हमारे साथ मनुष्य बनकर मनुष्यों के बीच रहा।

क्रिसमस हमसे कहता है कि ईश्वर ने हमारे इतिहास में इसलिए प्रवेश किया कि वह संसार को, भीतर से परिवर्तित कर सके। संत आइरीनियस कहते हैं- ईश्वर की महिमा पूर्ण मनुष्य होकर जीने में है। इसलिए सच्ची आध्यात्मिकता का अर्थ है इस संसार में पूर्ण मनुष्य होकर रहना। येशु ख्रीस्त इसलिए मनुष्य बन गए, ताकि वे हमारे शरीर और आत्मा दोनों की रक्षा करें।

हम सोचते हैं कि पाप का कारण शरीर है, इसलिए शरीर को त्यागना चाहिए। लेकिन वास्तव में मुक्ति के मार्ग की बाधा पाप है, और इस पाप का कारण शरीर नहीं बल्कि हम स्वयं हैं। हमारा अहंकार। अतः हमें पलायन करना है तो अपने अहंभाव से और स्वार्थ से पलायन करना चाहिए, न कि शरीर से या संसार से।

क्रिसमस हमसे कहता है कि संसार जैसा है वैसा ही उसे स्वीकार करें। उसका आदर करें। और प्रेम सहित उसमें परिवर्तन लाएँ। अतः येशु के समान हमें भी इस संसार में रहकर उसकी भलाई के लिए काम करते रहना चाहिए।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि क्रिसमस हमें मानव के प्रति ईश्वर में प्रेम की याद दिलाना मात्र नहीं, प्रत्युत अपने शरीर का महत्व समझने, संसार को प्यार करने, पूर्णता के साथ उसमें रहने एवं उसके सुधार के लिए काम करने को कहता है। हमसे फिर कहता है कि अपने अहंकार और स्वार्थ को त्याग दें, संसार को नहीं।

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