इंतजार किसानों की हड़ताल का!

हमारी गुप्तचर एजेंसियाँ हर बार दावा करती हैं- 'हमने आतंकवादी हमले की संभावना पहले बता दी थी', 'हमने हड़ताल की आशंका पहले जता दी थी', 'हमने विभिन्न गुटों में मतभेद और टकराव का इंतजाम कर दिया है', 'हमारे लोग हर कोने की खबर रखते हैं।' दावे करने वाले भी अफसर हैं और गड़बड़ कराने वाले भी अफसर ही हैं।

इसीलिए हर महीने एक से तीन लाख रुपए तनख्वाहशुदा तेल (पेट्रोल, डीजल, गैस) बेचने
  राजनीतिक पार्टियाँ किसानों के नाम पर चुनावी घोषणा-पत्रों, योजनाओं और कार्यक्रमों में बहुत से वायदे करती हैं, लेकिन उनकी समस्याओं के लिए अब कोई आंदोलन नहीं करता      
वाले अफसरों ने वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए तूफान खड़ा किया, बंद कमरे में कुछ सौदा किया, बाद में वेतन बढ़ाने का वायदा लिया, वहीं आला अफसरों और सत्ताधारी नेताओं ने सार्वजनिक रूप से पुलिस, डंडे, गिरफ्तारी की धमकियों से अपनी बहादुरी दिखाई और तीन-चार दिन के हाहाकार के बाद धंधा फिर चालू हो गया।

यही स्थिति लाखों रुपया लगाकर ट्रक चलाने वाले ट्रांसपोर्ट मालिकों की थी, जिन्होंने आठ दिन तक हंगामा किया। उनकी कुछ माँगें जायज थीं, कुछ नाजायज। जासूसों ने पल-पल की खबर दी। हर राज्य में ट्रक चलाने वालों के साथ नेताओं, अफसरों और पुलिस वालों की हिस्सेदारी तय रहती है। बड़े-छोटे शहरों में बसों और ट्रकों के लिए पर्दे के पीछे काला धन लगाने वालों में नेताओं का एक वर्ग सक्रिय रहता है।

स्वाभाविक है कि देश भर में हंगामा होने के बाद कुछ हफ्तों के अंदर सौदेबाजी कर सब अधिकाधिक मुनाफे का इंतजाम कर लेंगे, लेकिन क्या आम आदमी को उसका लाभ मिल पाएगा? इसी तरह शहरों की हाय-तौबा पर फटाफट रिपोर्ट देने वाले सरकारी जासूस, अधिकारी और नेता दूरदराज गाँवों में उठ रही आग के बारे में कितनी जानकारी रख रहे हैं?

अखबार या टेलीविजन समाचार चैनलों में काम करने वाले हमारे मित्र साथियों को देर-सबेर बनने वाली 'ब्रेकिंग न्यूज' का कितना पूर्वानुमान है? कल्पना करें- पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, गुजरात, केरल, असम जैसे विभिन्न राज्यों में गेहूँ, धान, चना, कपास, आम, संतरे की खेती करने वाले किसान भी हड़ताल कर दें! सर्दी, गर्मी, बरसात की परवाह न कर खेतों में कड़ी मेहनत करने के बाद जो मिलता है, उसी से उन्हें संतोष करना पड़ता है।

किसानों की रैलियाँ जरूर होती हैं, लेकिन अब तक उनकी हड़ताल नहीं देखी-सुनी गई, जबकि बैल, हल, हंसिया, गेहूँ की बाली जैसे कितने ही चुनावी चिह्न जीतते-हारते रहे हैं। कम्युनिस्ट ही नहीं, कांगे्रस, समाजवादी, भाजपा, जनता दल (भिन्न नामों वाले), लोकदल इत्यादि की राजनीतिक रोटियाँ भी खूब पकती रही हैं, लेकिन गरीब किसानों के घरों के चूल्हों का हाल लगभग वैसा ही है।

राजनीतिक पार्टियाँ किसानों के नाम पर चुनावी घोषणा-पत्रों, योजनाओं और कार्यक्रमों में बहुत
  संपन्न कहे जाने वाले राज्यों महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक में किसानों को कर्ज न चुकाने के कारण आत्महत्या के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। वे हड़ताल या बंद नहीं करते। उनकी समस्याओं के लिए शहरों में कहीं कोई आवाज उठती नहीं दिखती      
से वायदे करती हैं, लेकिन उनकी समस्याओं के लिए अब कोई आंदोलन नहीं करता। दिल्ली में बैठे अफसरों को यह अहसास नहीं है कि उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में 75 प्रतिशत से अधिक घर-परिवार खेतीबाड़ी से जुड़े हुए हैं। सरकार टेक्नॉलॉजी, विकास दर इत्यादि के जो भी दावे करती हो, असलियत यह है कि देश के 60 प्रतिशत किसान कृषि की किसी भी आधुनिक तकनीक से वंचित हैं। फसल बीमा योजनाओं के लाभ पाने की बात दूर रही, लाखों किसानों को उसकी सही जानकारी तक नहीं है। बिहार और उड़ीसा के किसानों की हालत तो सबसे बदतर है।

इन दिनों गन्ना किसानों और चीनी मिलों के मालिकों के हितों की चर्चा चल रही है। चीनी मिल मालिक आधिकाधिक मुनाफा कमाते रहे हैं। उत्तरप्रदेश में तो सरकारी कृपा से कुछ चीनी मिल मालिकों ने पिछले वर्षों के दौरान जमकर अवैध कमाई की और अब घोटाले उजागर हो रहे हैं। एक तरफ गन्ना उपजाने वाले किसानों को सही मूल्य नहीं मिलता, दूसरी तरफ चीनी मिल मालिक सरकार से हर तरह की छूट लेकर मुनाफा बढ़ाते रहे हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार में तो किसानों का भयावह शोषण एवं अत्याचार बढ़ता गया है।

दूसरी तरफ संपन्न कहे जाने वाले राज्यों महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक में किसानों को कर्ज न चुकाने के कारण आत्महत्या के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। वे हड़ताल या बंद नहीं करते। उनकी समस्याओं के लिए शहरों में कहीं कोई आवाज उठती नहीं दिखती। यदि किसी पार्टी या सरकारी आयोजन के लिए हजारों किसानों को दिल्ली लाने की बात होती है तो अफसरों के अड़ंगे लग जाते हैं। उन्हें राजधानी दिल्ली की हालत खराब होने का डर सताने लगता है।

पिछले साल केंद्रीय पंचायती राज मंत्री देश भर की पंचायतों के 6 लाख प्रतिनिधियों को बुला दिल्ली में सम्मेलन करना चाहते थे, लेकिन बड़े अफसरों और मंत्रिमंडल के साथियों ने ही प्रस्ताव रद्द करवा दिया। वैसे एक बार फिर चुनाव से पहले चुनिंदा पंचायत प्रतिनिधियों को दिल्ली लाने का प्रस्ताव घूम रहा है।

चुनावी लाभ देख शायद अनुमति मिल जाए, लेकिन सम्मेलन के साथ जरूरी है ग्रामीण किसानों को न्यूनतम सुविधाओं की जानकारी देने की, अन्यथा किसानों के नाम पर कागजी कार्रवाई होती रहेगी। आर्थिक उदारीकरण के दौर में श्रमिक आंदोलन लगभग थम से गए हैं। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट शासित राज्यों में भी किसान और मजदूर विरोधी कदमों पर कोई सरकारी अंकुश नहीं है।

इसी कारण कुछ क्षेत्रों में उग्रवादी संगठन गरीब किसानों और मजदूरों को हिंसा के रास्ते पर ले जाने में सफल हो रहे हैं। योजनाकारों को यह बात समझना होगी कि विश्व आर्थिक मंदी के दौर में भारत जैसे देश के लिए किसानों और गाँवों से ही सर्वाधिक राहत मिल सकती है। किसानों को हड़ताल और हिंसा के रास्ते पर जाने से रोकने के लिए बीज, खाद, पानी, बिजली, कच्चे-पक्के मकान, बच्चों की न्यूनतम शिक्षा की सुविधा तथा चिकित्सा व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता देना होगी।

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