दस जनपथ विचलित क्यों...

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुनसिंह ने यह कहकर जैसे कोई गुनाह कर दिया है कि कांग्रेस में निर्णय की प्रक्रिया थोड़ी-सी बिखर गई है। उनका यह कथन भी कांग्रेस को भारी महसूस हो रहा है कि 'आजकल वफादारी का मूल्यांकन सीमित दायरे में होता है।'

  कांग्रेस के सुर्ख और संपन्न नेताओं को गरीबी की बारहखड़ी सीखना पड़ रही है ताकि वे गरीबों का दर्द समझ सकें। कांग्रेस में निर्णयों की प्रक्रियाओं पर सवाल उठाकर अर्जुनसिंह ने ऐसा कौन-सा गुनाह कर दिया है कि समूची कांग्रेस ही उन पर टूट पड़ी      
'अब तो यह ताज्जुब की बात लगेगी, लेकिन यह सच है कि गाँधी-नेहरू परिवार में सही वफादारी की पहचान करने की असीम क्षमता है और जो दिखावे के लिए वफादारी करते हैं, उनको भी पहचानने की क्षमता है।'

कांग्रेस और गाँधी-नेहरू परिवार के बारे में अर्जुनसिंह के राजनीतिक आकलन के बाद कांग्रेस में उठी लहरें इस बात को रेखांकित करती हैं कि उनके कथनों को 10 जनपथ ने सहजता से नहीं लिया है। अर्जुनसिंह के राजनीतिक जीवन के इक्यावन वर्ष पूरे हो चुके हैं।

उनके राजनीतिक सफरनामे को लिपिबद्ध करने वाली पुस्तक 'मोहिं कहाँ विश्राम' के लोकार्पण समारोह में अर्जुनसिंह ने संबोधन के दौरान इन मुद्दों को छुआ था। इससे कांग्रेस इतनी असहज हो उठी कि उसके प्रवक्ता मीडिया के सामने सक्रिय होकर अर्जुनसिंह से असहमति व्यक्त करने लगे।

सोनिया गाँधी के बचाव में उनका कथन था कि वे हमेशा स्पष्ट और पारदर्शी रही हैं। फैसले लेने के पहले वे सभी लोगों से सलाह-मशविरा करती हैं। यूपीए की 'चेयर पर्सन' के रूप में भी वे सभी घटकों से परामर्श करती रही हैं।

इन मुद्दों पर अखिल भारतीय कांग्रेस के महामंत्री दिग्विजयसिंह ने परामर्श दिया है कि अर्जुनसिंह जैसे नेताओं को इस प्रकार के बयानों से बचना चाहिए, क्योंकि वरिष्ठ नेता के नाते वे कांग्रेस के सभी प्रकोष्ठों के सदस्य रहे हैं। राजनीतिक परेशानियों से बचाने के लिए दिग्विजयसिंह की यह सलाह अर्जुनसिंह के लिए भले ही नेक हो, लेकिन कांग्रेस के लिए कदापि हितकर नहीं है।

  यदि 10 जनपथ स्वयं को लोकतांत्रिक और उदार मानता है तो ऐसे सवालों पर विचलित क्यों हो जाता है। ये सवाल कांग्रेस के लिए हितकारी हैं। क्या कांग्रेस में सच्चा लोकतंत्र सिर्फ सोनिया गाँधी की जय में ही निहित है      
कांग्रेस के नजरिए से अर्जुनसिंह के आकलन को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। वैसे भी अर्जुनसिंह जैसे प्रखर राजनीतिज्ञ जिस प्रकार शब्दों को तौलकर बोलते हैं, उनसे किसी भी किस्म की गफलत की अपेक्षा बेमानी है। उनके किसी भी 'ऑब्जर्वेशन' को दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए।

ऐसे नेता कांग्रेस में गिने-चुने ही बचे हैं, जिनकी बुद्धिमता, कार्यकुशलता, प्रतिबद्धता और वाक्‌पटुता का लोग लोहा मानते हों। अर्जुनसिंह के मुद्दों में दम है। कांग्रेस को उनका उत्तर ढूँढने के लिए सक्रिय होना चाहिए, न कि उनकी आवाज को दबाने के प्रयास करना चाहिए।

आजादी के साठ सालों में इक्यावन साल अर्जुनसिंह ने कांग्रेस की आंतरिक और बाहरी राजनीति को नजदीक से देखा है, गहराई से समझा है, सक्रियता से जिया और भुगता है। उनके सवाल कांग्रेस के मर्म को कुरेदते हैं।

आजादी के बाद यदि पं. जवाहरलाल नेहरू का कालखंड छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस में आंतरिक और बाहरी लोकतंत्र के मायने सिर्फ एक ही वाक्य में व्यक्त होते रहे हैं। वाक्य है- 'गाँधी-नेहरू' परिवार की जय...।

देशकाल और परिस्थिति के अनुसार 'जय' के पहले परिवार के सदस्यों के नाम जरूर बदलते रहे हैं। तीस साल पहले 'इंदिरा गाँधी की जय' में कांग्रेस का गौरवमयी लोकतंत्र छिपा था तो आज वह सोनिया गाँधी या राहुल गाँधी की 'जयकार' में 'चमकार' भर रहा है। जयकार के दोनों सिरों के बीच संजय गाँधी और राजीव गाँधी के नाम भी सूची में आते हैं।

दुनिया के किसी भी राजनीतिक दल में शायद इतनी सीधी, सरल और सपाट लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं होगी, जो एक ही शब्द से शुरू होकर उसी शब्द में खत्म भी हो जाए। किसी भी पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं के लिए इससे बेहतर राजनीतिक कर्म और संघर्ष क्या हो सकता है कि उन्हें सिर्फ अपने 'नेता' की जयकार के अलावा कुछ नहीं करना पड़े।

दिलचस्प यह है कि सभी कार्यकर्ता इसी जयकार को कांग्रेस का लोकतंत्र मानते हैं और इसी में उन्हें अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उद्‍घोष भी सुनाई पड़ता है। कांग्रेस में वे सभी बातें, जो इस 'जयकार' की भावनाओं को खंडित करती हैं, निषेध हैं...। वे सभी बातें, जो 10 जनपथ के दरवाजों पर सवाल खड़ा करती हैं, बगावत है...। वे सभी बातें जो कांग्रेस के मर्म को स्पर्श करती हैं, बकवास हैं...। वे सभी बातें... जो संगठन के बुनियादी सिद्धांतों को टटोलती हैं, अवांछनीय हैं...। सौ साल पुरानी कांग्रेस में वह सब कुछ निरर्थक माना जाता है जिसके रास्ते संगठनात्मक सचाइयों को नंगा करते हैं।

  कांग्रेस में वे सभी बातें, जो इस 'जयकार' की भावनाओं को खंडित करती हैं, निषेध हैं...। वे सभी बातें, जो 10 जनपथ के दरवाजों पर सवाल खड़ा करती हैं, बगावत है...। वे सभी बातें जो कांग्रेस के मर्म को स्पर्श करती हैं, बकवास हैं      
पिछले तीस वर्षों में देश की राजनीति और उसके कार्यकर्ताओं की तासीर ही बदल गई है। संगठनात्मक कार्यकलापों के नाम पर उन्हें भीड़ एकत्रित करने, नारेबाजी या धरने-प्रदर्शन की सीख मिलती है।

राजनीति के नाम पर उन्हें चंदा वसूलना या लोगों को डराना-धमकाना सिखाया जाता है। रचनात्मक राजनीति के दिन अब लद चुके हैं। लोग राजनीति में 'इन्वेस्टमेंट' करते हैं और मौका आने पर उस 'इन्वेस्टमेंट' को ब्याज सहित कई गुना वसूलते हैं।

ये बातें सभी राजनीतिक दलों पर लागू होती हैं, लेकिन कांग्रेस में यह बीमारी कुछ ज्यादा ही है। अर्जुनसिंह जब वफादारियों की बात करते हैं, तो उसके निहितार्थ निजी और स्वार्थी किस्म की वफादारियों से नहीं है।

राजनीति में सबसे ऊपर सैद्धांतिक प्रतिबद्धता होती है, जो क्रमशः दल और दल के नेता से जुड़ने की सीढ़ी बनती है। कांग्रेस में राजनीति की व्यवस्थाएँ और संरचनाएँ जनता के इर्द-गिर्द नहीं, बल्कि 'कॉरपोरेट' संस्कृति को केंद्र में रखकर संचालित होने लगी हैं।

  ये खतरनाक संकेत हैं। कांग्रेस में युवा नेताओं के नाम पर ऐसे लोगों की भीड़ जमा हो गई है जिनकी पृष्ठभूमि पाँच सितारा संस्कृति की चमक-दमक से बनी और सजी है। उन्हें सार्वजनिक जीवन के तकाजों को पूरा करने के लिए गरीबी की बारहखड़ी सीखना पड़ रही है      
ये खतरनाक संकेत हैं। कांग्रेस में युवा नेताओं के नाम पर ऐसे लोगों की भीड़ जमा हो गई है जिनकी पृष्ठभूमि पाँच सितारा संस्कृति की चमक-दमक से बनी और सजी है। उन्हें सार्वजनिक जीवन के तकाजों को पूरा करने के लिए गरीबी की बारहखड़ी सीखना पड़ रही है। राजनीति में ये हालात उस उत्तराधिकार की राजनीति की देन है, जो कमोबेश सभी दलों में घर बना बैठी है।

इसी उत्तराधिकार की राजनीति के कारण ही फैसलों में विलंब होता है, क्योंकि सारा गुणा-भाग करके हितों को सुनिश्चित करने के बाद ही आगे बढ़ना मजबूरी है। आखिरकार उत्तराधिकारियों को गरीबी की बारहखड़ी सीखने में भी तो वक्त लगता है। कांग्रेस इस बात को समझती है, लेकिन कोई उसे यह तथ्य सार्वजनिक तौर पर समझाए, वह उसे कबूल नहीं है।

आजकल कांग्रेस या किसी भी दल में सत्तालोलुप लोगों का जमावड़ा ज्यादा है। 'चमचों' की घेराबंदी में रचनात्मक राजनीति का दम घुट रहा है। सोनिया गाँधी या 10 जनपथ के प्रवक्ता कितना ही क्यों न कहें कि उन्हें चमचागीरी पसंद नहीं है अथवा यह दिखाने की कोशिश करें कि उन्हें पसंद नहीं है कि कोई राहुल गाँधी को कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करे, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि कांग्रेस में सारी कसरत ही उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए चल रही है।

भले ही ऐसे भाव व्यक्त करने वाले नेताओं को कांग्रेस के प्रवक्ता डाँटें या उनकी मंशाओं का खंडन करें, लेकिन 10 जनपथ उनसे अनमन नहीं है। यदि सच में ही आपको यह सब पसंद नहीं है तो अर्जुनसिंह के कुछ सार्थक, संजीदा और संवेदनशील सवालों पर विचलित क्यों होते हैं...। 10 जनपथ को ऐसे सवालों का जवाब तो देना होगा...। (लेखक नईदुनिया के समूह संपादक हैं)

वेबदुनिया पर पढ़ें