धरती पर बढ़ता संकट

राकेश त्रिवेदी

रविवार, 10 जून 2007 (00:52 IST)
विकास और पर्यावरण जब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, तब दूसरे पहलू के प्रति सरकारों की प्रतिबद्धता क्यों दिखाई नहीं देती? यह सच है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और टेक्नोलॉजी के उपयोग के बगैर विकास संभव नहीं है।

लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हवा, पानी, ऊर्जा के बगैर विकास की निरंतरता कायम नहीं रह सकती। राजनीति का लक्ष्य सिर्फ वोट को पाना है। इसके लिए तात्कालिक विकास को वह महत्व दे रही है, क्योंकि स्थायी या टिकाऊ विकास के परिणाम दूरगामी होते हैं इसलिए तुरंत परिणाम दिखाई नहीं देते। वोट के लिए इतना लंबा इंतजार नहीं किया जा सकता। इसलिए किसी भी देश की राजनीति ने अपने एजेंडे में पर्यावरण को जगह नहीं दी। सारे निर्णय वोट की मानसिकता को लेकर लिए जा रहे हैं।

हाल ही में अमेरिका में सहस्राब्दी पारितंत्र मूल्यांकन (मिलेनियम इकोसिस्टम्स इवैल्यूएशन) के निदेशक मंडल की ओर से यह वक्तव्य जारी किया गया है कि इस पृथ्वी के प्राकृतिक क्रियाकलापों में मानव की बढ़ती दखलंदाजी से अब यह दावा नहीं किया जा सकता कि भावी पीढ़ी के लिए भी पृथ्वी की यही क्षमता कायम रह सकेगी। निदेशक मंडल का यह निष्कर्ष 1,300 वैज्ञानिकों के चार साल के गहन विश्लेषण पर आधारित है।

इन वैज्ञानिकों ने पाया है कि हमारी अर्थव्यवस्था को प्राकृतिक प्रणालियों से उपजी चौबीस प्रकार की सेवाएँ चला रही हैं, जैसे पीने का पानी, जलवायु का नियमन, प्राणवायु का निर्माण, ऊर्जा का प्रवाह, खाद्य श्रृंखला आदि। इन सेवाओं में से पंद्रह को हम उनके टिकाऊपन की सीमा से पीछे धकेल चुके हैं। धरती पर तापमान बढ़ रहा है, वन तेजी से सिकुड़ रहे हैं, जनसंख्या और वाहन बढ़त बनाए हुए हैं। साथ ही खाद्यान्ना, ऊर्जा, धातु और इमारती लकड़ी की माँग भी बढ़ रही है।

जैव विविधता को सहेजने वाली मूँगा चट्टानों (कोरल रीफ्स) का चालीस प्रतिशत पतन हो चुका है। नदियों और झीलों से पानी का दोहन 1960 के मुकाबले दोगुना बढ़ चुका है। जीवों की प्रजातियाँ प्राकृतिक दर से 1 हजार गुना ज्यादा तेजी से विलुप्त हो रही हैं। सर्वाधिक संकट मछलियों पर छाया हुआ है। 13 करोड़ टन प्रतिवर्ष की दर से मछलियाँ पकड़ी जा रही हैं।

ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है। जीवाश्म ईंधन का उपयोग बढ़ा है, यही कारण है ग्लोबल वार्मिंग का। जिन पारितंत्रों (इकोसिस्टम्स) का कार्य कार्बन डाई ऑक्साइड को जज्ब करना होता है वे भविष्य में इस लायक रह पाएँगे कि नहीं, यह संदेहास्पद हो गया है। मानव सभ्यता के 10 हजार सालों में इतनी तपन कभी नहीं बढ़ी, जो 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक और 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक में महसूस की गई।

पिछले एक सौ सालों में तापमान में हुई 1 डिग्री की वृद्धि के तो हम सब साक्षी हैं। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। उत्तरी ध्रुव के समुद्र जो गर्मी के दिनों में भी बर्फ से ढँके रहते थे, अब वहाँ की 27 प्रतिशत बर्फ पिघल चुकी है। समुद्रों का जलस्तर बढ़ेगा। वैज्ञानिक तबाही की ओर ध्यान दिला रहे हैं, लेकिन उनकी बात को नजरअंदाज किया जाता है। पहली बार अमेरिका के मीडिया ने वैज्ञानिकों के मत को मान्यता देते हुए घोषणा की है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अब बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। 'टाइम' पत्रिका और 'एबीसी वर्ल्ड न्यूज' ने वैज्ञानिकों की पैरवी की है जबकि पेट्रोल लॉबी परंपरागत तरीके से मीडिया और वैज्ञानिकों को अपने वश में करने में जुटी हुई है।

वैज्ञानिक न भी कहते तो क्या, प्रकृति तो खुद चेतावनी देती है। अमेरिका में दक्षिण लुसियाना और मिसीसिपी में कुछ उदाहरण सामने आए हैं। मिसीसिपी नदी का प्रवाह अपनी जरूरतों के लिए बदला गया और मुहानों के नम क्षेत्रों को नष्ट कर दिया गया। भूमि से पानी और तेल का दोहन शुरू किया गया। आज यह स्थान पेट्रोलियम उद्योग का एक हब बन चुका है। मानव हित में ये कदम जरूरी बताए गए थे इसलिए लोग मौन रहे।

इस मानवीय कृत्य ने न्यू ऑरलेन को खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। अमेरिका का यह वह शहर है, जो 18वीं शताब्दी में जब बसा था तब समुद्र के स्तर से ऊँचा था। लेकिन 2005 में आए चक्रवात (हरीकेन) कैटरीना ने इसे तबाह कर दिया। तब यह इलाका पानी में 1 मीटर डूबा हुआ था। इस एक ही प्राकृतिक आपदा से अमेरिका को 12 अरब डॉलर की आर्थिक क्षति हुई थी, जो सालभर की दुनिया की प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुई क्षति से ज्यादा थी।

प्रकृति पर बढ़ रहे दबाव का पता लगाने का पैमाना है वस्तुओं की बढ़ती कीमतें। पेशेवर व्यावसायिक उत्पादकों के लिए बाजार की प्रतिस्पर्धा उत्साहवर्धक हो सकती है, लेकिन पृथ्वी की जीवन स्फूर्ति (वाइटेलिटी) के लिए यह खतरे से कम नहीं है। अर्थव्यवस्था और राष्ट्रों की स्थिरता की सेहत प्रकृति के संतुलन पर ही निर्भर होती है।

वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसी नीतियाँ व्यापारिक एकीकरण के लिए जरूरी समझी गई हैं। अब पर्यावरण सुधार की तकनीक बेचने वाले देशों की चल पड़ी है। यूरोप पवन ऊर्जा की तकनीक लेकर बाजार में खड़ा है तो अमेरिका कचरे के प्रबंधन और मल-जल के शुद्धिकरण के संयंत्र लगाने को तैयार है। विकासशील देश उनके लिए अच्छे बाजार हैं।

मानव का इस धरती पर अंतिम लक्ष्य यदि मोक्ष को पाना है तो भावी पीढ़ी के साथ अन्याय करके वह उसे कैसे प्राप्त कर सकेगा? अगली पीढ़ी पर प्रकृति का ढेर सारा कर्ज छोड़कर जाना किस मोक्ष को पाने का मार्ग है? मानव का अंतिम लक्ष्य तो स्थायी विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) होना चाहिए ताकि हमारे बच्चे भी खुशहाल जीवन जी सकें। प्रबंधन कौशल के इस युग में अब यह हमारी योग्यताओं पर ही निर्भर करेगा कि इस ग्रह के उजड़े बाग को हम कैसे सहेज पाते हैं।

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