नए दौर में इंदिरा गाँधी की छाप

चुनाव आयोग के रिकॉर्ड और सुदूर गाँवों में यह पार्टी अखिल भारतीय कांग्रेस (आई) यानी कांग्रेस-इंदिरा के नाम से ही पहचानी जाती है। जिस तरह महात्मा गाँधी और पं. जवाहरलाल नेहरू के सपनों का भारत बहुत कुछ बदला है, उसी तरह इंदिरा कांग्रेस भी बहुत कुछ बदली है।

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"नेहरू के बाद कौन का" उत्तर कठिन था, लेकिन लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी ने सही उत्तराधिकारी बनकर दिखाया। पच्चीस साल पहले इंदिरा गाँधी अकस्मात भारतीय राजनीतिक क्षितिज से हटीं तो राजनीति की दशा-दिशा ही बदल गई। राजीव गाँधी विनम्र, योग्य, संवेदनशील, ईमानदार और समर्पित होते हुए भी इंदिरा गाँधी की तरह चतुर राजनीतिज्ञ और "आयरन लेडी" की तरह लौह पुरुष नहीं हो पाए, इसलिए नेक इरादों और आधुनिक दृष्टिकोण के बावजूद राजनीतिक षड्यंत्रों के शिकार हुए।

नरसिंह राव अपने को "चाणक्य" समझ राजनीतिक चालें खूब चलते रहे, लेकिन इंदिरा गाँधी की तरह अपने प्रतिद्वंद्वी हो सकने वाले व्यक्तियों को साथ रखकर कांग्रेस को शक्तिशाली नहीं बना सके। मनमोहनसिंह कहने को कांग्रेस के प्रधानमंत्री हैं, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व का मुकुट उन्होंने सोनिया गाँधी के सिर पर रखा हुआ है। वे केवल प्रशासकीय नेतृत्व दे रहे हैं।

इंदिरा गाँधी की तरह साहसी राजनेता संभवतः पिछले एक सौ वर्षों में किसी लोकतांत्रिक देश में नहीं हुआ होगा। भारत की आजादी की लड़ाई से लेकर बांग्लादेश निर्माण और भारत में आतंकवाद के विरुद्ध छेड़े गए संघर्ष तक उन्होंने कभी अपनी जान की परवाह नहीं की।

पंजाब को अलग कर खालिस्तान बनाने की माँग करने वाले आतंकवादियों के विरुद्ध ऑपरेशन ब्लू स्टार करने वाली इंदिरा गाँधी को गुप्तचर एजेंसियों की सूचना से पहले भी अहसास था कि उन्हें बड़ी कीमत देना पड़ सकती है, लेकिन "इंदिरा" सचमुच "इंडिया" थीं।

देवकांत बरुआ ने भले ही चापलूसी में "इंदिरा इज इंडिया" की बात कहकर बाद में इसे आलोचना का मुद्दा बनवा दिया, लेकिन इंदिरा गाँधी में हिमालय की तरह दृढ़ता थी। 31 अक्टूबर 1984 को उनके ही अंगरक्षकों ने निर्ममता के साथ उनकी हत्या की, लेकिन ऐसे अंगरक्षकों को रखने की हिम्मत केवल इंदिरा ही कर सकती थीं।

कश्मीर से कन्याकुमारी और गोआ से पूर्वोत्तर राज्यों के सुदूर गाँवों में आज भी इंदिरा गाँधी के नाम का ही सिक्का चलता है। हजारों लोग ऐसे मिल जाएँगे, जो इमरजेंसी में आई प्रशासनिक चुस्ती को याद कर वैसे कठोर प्रशासन की अपेक्षा रखते हैं।
इंदिरा गाँधी को नजदीक से जानने-समझने वाले नेताओं, अधिकारियों, राजनयिकों और पत्रकारों की संख्या अच्छी-खासी रही है। उन पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है। मुझे बहुत कम उम्र में इंदिरा गाँधी को देखने, सुनने, मिलने और रिपोर्टिंग करने का अवसर मिला। पहले 1968-69 में उज्जैन में अंशकालिक संवाददाता की तरह उनकी विशाल सभाओं को रिपोर्ट किया।

फिर 1969 में अपने विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन और राष्ट्रमंडल युवा महोत्सव में भाग लेने पहुँचे सांस्कृतिक टोली के सदस्य के रूप में उनसे मिलने-सुनने और फोटो खिंचवाने का मौका मिला। इसके बाद 1971 से 1984 तक दिल्ली के विभिन्न समाचार प्रतिष्ठानों में रहते हुए और कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं से करीबी संबंधों के कारण अनेक बार इंदिरा गाँधी से मिलने-सुनने और समझने के अवसर मिले, लेकिन दो अवसर कभी भुला नहीं सकता।

एक 1976 में, जब इमरजेंसी के दौरान परिवार-नियोजन की ज्यादतियों का आँखों देखा विवरण "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में छापने के बाद उसकी प्रति स्वयं श्रीमती गाँधी को देने गया था। अपनी रिपोर्ट सेंसर को नहीं भेजी थी, लेकिन पत्रिका बाजार में जाने से पहले एक प्रति श्रीमती गाँधी को देने का दुस्साहस खतरों भरा था। मुझे लगा था कि सजा ही मिलना है तो सीधे प्रधानमंत्री दरबार में गिरफ्तारी हो।

विश्वास यह था कि मुझ पर विरोधी या षड्यंत्रकारी या पूर्वाग्रही होने का लेबल कभी नहीं लगा था। इंदिराजी ने पत्रिका के वे पन्नो देखे, पलटे और संक्षेप में मैंने ज्यादती का विवरण बताया। उन्होंने तत्काल फोन मिलाकर उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी को जाँच-पड़ताल करवाने के निर्देश दिए। पत्रिका बाजार में पहुँची और कोई कार्रवाई नहीं हुई।

इस घटना ने मुझे पत्रकारिता में साहस के साथ तथ्य लिखने-छापने की प्रेरणा और ताकत दी। इंदिरा गाँधी जैसे नेता आज बहुत कम मिलेंगे, जो अपनी सरकार या स्वयं की आलोचना सुनने-पढ़ने के लिए तैयार हों।

इंदिरा गाँधी के साथ दूसरी अविस्मरणीय मुलाकात 1978 की थी । 1977 की बड़ी राजनीतिक पराजय के बाद इंदिराजी संघर्ष के दौर में थीं। उनसे मिलने बहुत कम लोग जाते थे और पत्रकारों से भी वे मिलना नहीं चाहती थीं।

इमरजेंसी और सेंसर से नाराज बड़ी पत्रकार बिरादरी ने उनके विरुद्ध सामग्री छापने का अभियान चला रखा था। तब मैंने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के लिए उनसे लंबी बातचीत की। 12 विलिंग्डन क्रिसेंट स्थित उनका बंगला वीरान-सा रहता था। बंगले के अहाते में 25-30 कुर्सियाँ और बस 10-12 मिलने वाले लोग। इंदिराजी का कक्ष बिलकुल सामान्य था। वे दिनचर्या के बारे में बताती हैं।

ग्रेस की कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में रोड़े अटका रही भ्रष्ट अफसरशाही को कड़ाई से कुचलने का साहस सत्ताधारी क्यों नहीं कर सकते? आतंकवादियों और नक्सलियों का सफाया करने का कठोर निर्णय लेने से भी तो व्यापक जन समर्थन मिल सकता है।
उन्होंने पहले ही कह दिया था- "मैं अभी कोई इंटरव्यू नहीं दे रही।" वे बताती रहीं- पुस्तकें पढ़ने, सुदूर क्षेत्रों से आए कांग्रेस कार्यकर्ताओं अथवा जन-सामान्य से मिलकर समस्याएँ सुनने में ही व्यस्त रहती हैं। फिर उन्होंने अपना दर्द बताया- "बंगले के छोटे से बगीचे तक के लिए ठीक से पानी नहीं मिल पा रहा है। जनता पार्टी की सरकार है। जितनी परेशानियाँ पैदा कर सकती है, कर रही है, लेकिन समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।" निराशा के उस दौर में भी वह अदम्य आत्मविश्वास ही कांग्रेस को पुनः सत्ता में लाया।

इंदिरा गाँधी की तरह धैर्य और साहस आज किसी नेता में नहीं देखने को मिलता। कांग्रेस 1989, 1996, 1998, 1999 के चुनाव में पराजित हुई, 2004 और 2009 में विजयी हुई, लेकिन किसी चुनाव में बड़े नेता इस आत्मविश्वास से भरे नहीं मिले कि वे प्रतिपक्ष को धूल चटा सकते हैं।

उन्हें अपनी पार्टी की आंशिक सफलता पर भी थोड़ा आश्चर्य होता है। इसे कुछ लोग अतिशयोक्ति और मेरा पूर्वाग्रह भी मान सकते हैं कि केवल सोनिया गाँधी पूरे धैर्य और संयम के साथ कठिन परिस्थितियों से निपटने के तेवर अपनाए रहती हैं, लेकिन स्वयं प्रधानमंत्री बनने को तैयार नहीं होतीं, इसलिए उनकी तुलना इंदिरा गाँधी से नहीं की जा सकती।

1989 के बाद से शुरू हुई गठबंधन की राजनीति ने कांग्रेस के अधिकांश नेताओं को समझौतावादी बना दिया। जब सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी या उनके कुछ विश्वस्त सहयोगी 'एकला चलो' की तर्ज पर आगे बढ़ने की बात करते हैं तो कई कांग्रेसी दिग्गज विचलित होकर समझौतों की मजबूरी और व्यावहारिकता समझाने लगते हैं।

इंदिरा गाँधी की तरह साहस आज किसी नेता में नहीं देखने को मिलता। कांग्रेस 1989, 1996, 1998, 1999 के चुनाव में पराजित हुई, 2004 और 2009 में विजयी हुई, लेकिन किसी चुनाव में बड़े नेता इस आत्मविश्वास से भरे नहीं मिले कि वे प्रतिपक्ष को धूल चटा सकते हैं।
इंदिरा गाँधी तो 1967 से 1980 के चुनावों तक अपने बलबूते कांग्रेस को खड़ी करती रहीं। जहाँ तक राजनीतिक सदाशयता की बात है, अपने प्रबल विरोधी राजनीतिक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, चरणसिंह, अटलबिहारी वाजपेयी, गुरु गोलवलकर, भूपेश गुप्त, ज्योति बसु, सुब्रह्मण्यम स्वामी तक से संवाद रखने और उनकी आलोचना से भी उपयोगी राजनीतिक बात को स्वीकारने में इंदिरा गाँधी को हिचक नहीं होती थी, लेकिन किसी के दबाव में वे झुकने को कभी तैयार नहीं हुईं।

प्रारंभिक दौर में रुपए का अवमूल्यन और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कांग्रेस के विभाजन तक के निर्णय वे ही ले सकती थीं। सन 1971 में बांग्लादेश के लिए पाकिस्तान से युद्ध और अमेरिका से बैर लेने जैसा साहस दुनिया का कोई अन्य लोकतांत्रिक नेता नहीं उठा सकता था। असल में वे किसी भी स्तर पर बैसाखियों को अपनाने के लिए तैयार नहीं थीं।

नए दौर में उसी कांग्रेस के कई नेता गठबंधन की बैसाखियों को ढूँढते रहते हैं। खतरों से नहीं खेलना चाहते। यों गरीबों से जुड़ी पार्टी होने की इंदिरा गाँधी की बनाई छवि और बहुत हद तक तय की गई नीतियाँ ही कांग्रेस को सत्ता में लाने के अवसर दिला पा रही हैं।

कश्मीर से कन्याकुमारी और गोआ से पूर्वोत्तर राज्यों के सुदूर गाँवों में आज भी इंदिरा गाँधी के नाम का ही सिक्का चलता है। आज भी हजारों लोग ऐसे मिल जाएँगे, जो इमरजेंसी में आई प्रशासनिक चुस्ती को याद कर वैसे कठोर प्रशासन की अपेक्षा रखते हैं। परिवार नियोजन की ज्यादतियों और विरोधियों को जेल भेजने की सलाह देने वाले तो स्वयं 1977 में ही विरोधी खेमे में जा मिले थे।

फिर अब कोई सत्ताधारी ऐसी गलती कर भी नहीं सकेगा, लेकिन सही अर्थों में कांग्रेस की कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में रोड़े अटका रही भ्रष्ट अफसरशाही को कड़ाई से कुचलने का साहस सत्ताधारी क्यों नहीं कर सकते? इंदिरा गाँधी की तरह सब कुछ दाँव पर लगाकआतंकवादियों और नक्सलियों का सफाया करने का कठोर निर्णय लेने से भी तो सत्ता को स्थायित्व और व्यापक जन समर्थन मिल सकता है।

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