मानव सभ्यता के समय से ही नेतृत्व करने वाले 'नायक' की भूमिका प्रमुख रही है। मनुष्य के सामुदायिक और सामाजिक जीवन को उसी के समूह में से उभरे किसी व्यक्ति ने दिशा-निर्देशित और संचालित किया है। समस्त समुदाय और उस सभ्यता का विकास नेतृत्व करने वाले व्यक्ति की सोच, समझ, व्यक्तित्व और कृतित्व पर निर्भर करता रहा है।
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बीसवीं सदी में इस राष्ट्रनायक ने भी प्रमुख किरदार निभाया। एक तरह से सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों की बागडोर इस महारथी के हाथ में रही। राजतंत्र, उपनिवेशवाद और लोकतंत्र के संधिकाल वाली इस सदी में अपने देश का परचम थामे इस राजनेता ने विश्व इतिहास की इबारत अपने हाथों से लिखी। हम बात कर रहे हैं दक्षिण अफ्रीकी गांधी नेल्सन मंडेला की, जो अब हमारे बीच नहीं हैं। मंडेला ने अपने देश को एक राष्ट्र के रूप में विश्व के मानचित्र पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दक्षिण अफ्रीका की प्रिटोरिया सरकार का शासनकाल मानव सभ्यता के इतिहास में 'चमड़ी के रंग' और नस्ल के आधार पर मानव द्वारा मानव पर किए गए अत्याचारों का सबसे काला अध्याय है। वह दुनिया की एकमात्र ऐसी सरकार थी, जिसने जातीय पृथक्करण एवं रंगभेद पर आधारित लिखित कानून बना रखा था। वहां के 75 प्रतिशत मूल अश्वेत अपनी ही जमीन पर बेगाने हो गए और बाहर से आए 15 प्रतिशत गोरी चमड़ी वाले 87 प्रतिशत भू-भाग के मालिक थे।
अश्वेतों को 16 वर्ष की आयु के बाद हर वक्त अपने पास अश्वेत होने का प्रमाण-पत्र 'पास' रखने के लिए बाध्य किया जाता था। वहां कभी 'शुद्ध गोरा' होने की जांच करने के लिए बालों में पेंसिल घुसवाई जाती थी और बालों से पेंसिल न गिरने पर गोरा होते हुए भी उस व्यक्ति को अश्वेत घोषित कर दिया जाता था।
खून का घूंट पीकर, ड्राइवर, दरबान और भृत्य के रूप में निर्वासित जीवन जीकर और जेल में क्रूर यातनाएं सहकर भी इस लड़ाके ने दक्षिण अफ्रीका को बीसवीं सदी के अंतिम मोड़ पर आजाद करवा ही दिया
अफ्रीकी अश्वेत बच्चे का जन्म 'केवल अश्वेतों के लिए' वाले अस्पताल में होता था। फिर वह इसी तख्ती वाली बस में घर जाता, ऐसी ही बस्ती में रहता, ऐसे ही स्कूल में पढ़ता, नौकरी पर लगता और ट्रेन में घूमता। 'कुत्ते और काले यहां न आएं' जैसे वाक्य महज लतीफे नहीं, उनके जीवन की सच्चाई रहे।
समंदर के किनारे और किताब के पन्ने तक गोरों ने अपने लिए सुरक्षित करा रखे थे। वहां केवल अफ्रीका के अश्वेतों पर नहीं बल्कि अन्य देशों के लोगों पर भी रंग के आधार पर जुल्म किए जाते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है गांधीजी, जिनका सामान वहां ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया और घोड़ा-गाड़ी पर बैठने के लिए चढ़ने के दौरान उन पर चाबुक बरसाए गए।
जब सारी दुनिया के लोग आजादी की सांस ले रहे थे, तब भी बीसवीं सदी के अंतिम पड़ाव तक दक्षिण अफ्रीका इन काले अंधेरों में क्रंदन कर रहा था। बर्बरता और अत्याचार के स्याह घेरे को तोड़ने का कालजयी और पराक्रमी कार्य किया नेल्सन रोलिहलाइला मंडेला ने। जिस प्रकार अन्य लोगों के योगदान के बावजूद भारत की आजादी की लड़ाई के आदर्श नायक गांधीजी हैं, उसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका की आजादी के महानायक और मसीहा हैं नेल्सन मंडेला।
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अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और उसकी यूथ लीग के माध्यम से गोरी सरकार के खिलाफ संघर्ष का जो मंत्र उन्होंने फूंका, वो प्राणशक्ति अफ्रीका के लोगों में आजादी मिलने तक कायम रही। 5 अगस्त 1962 को गिरफ्तार होने के बाद 64 में बहुचर्चित 'रिवोनिया' मुकदमे में उन्हें आजन्म कैद की सजा सुनाई गई। साढ़े सत्ताईस साल का कारावास भी उनके बुलंद इरादों और संकल्पशक्ति को कैद न कर सका बल्कि उनके आत्मबल ने लोहे की सलाखों को भी पिघला दिया। जेल की चहारदीवारी के भीतर जैसे-जैसे मंडेला की उम्र बूढ़ी होती गई, उनके इरादे और दक्षिण अफ्रीका का स्वतंत्रता आंदोलन जवान होता गया। जेल के भीतर और बाहर वे जननायक बने रहे।
अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते 10 फरवरी 1990 को उनकी रिहाई हुई और 10 मई 1994 को दक्षिण अफ्रीका में सत्ता हस्तांतरण के साथ हुई उनकी संकल्पशक्ति की पूर्णहुति। खून का घूंट पीकर, ड्राइवर, दरबान और भृत्य के रूप में निर्वासित जीवन जीकर और जेल में क्रूर यातनाएं सहकर भी इस लड़ाके ने दक्षिण अफ्रीका को बीसवीं सदी के अंतिम मोड़ पर आजाद करवा ही दिया। (वर्ष 1999 में लिखा गया यह आलेख नईदुनिया के दीपावली अंक में प्रकाशित हुआ था।)