सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले के बाद आरुषि की आत्मा इस समय खुश हो रही होगी या कराह रही होगी? तमाम असुरक्षित असभ्य माहौल में एक बेटी जिस घरौंदे में दुबक कर सोती है, एक नन्ही चिड़िया जहां सबसे ज्यादा प्यार और अपनत्व की गर्माहट महसूस करती है कैसे वहीं पर 'खूनी' कांटे निकल आए....जन्मदाता के दोषी पाए जाने पर न्याय की राहत अनुभव करेगी या फिर एक बार अपने ही माता-पिता के निर्मम हाथों को याद करते हुए मर जाएगी?
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एक स्त्री जब मां बनती है तब अपनी पूरी शक्ति अपने कोमल शिशु की सुरक्षा में लगा देती है लेकिन क्या जब वही शिशु उसकी आशा के अनुरूप व्यवहार न करें तो उसे खत्म कर देती है... कैसे भूल जाती है कि वह मां है? नहीं, अगर ऐसा होता है तो मानव सभ्यता में ऐसे किस्से कलंक-कथा के रूप में दर्ज होते हैं।
अधिकांश मामलों में बच्चे हमेशा ही निर्दोष होते हैं। क्योंकि बच्चे तो अंतत: माता-पिता के ही संस्कारों का प्रतिबिंब होते हैं। वह वही दोहराते हैं जो वह अपने से बड़ों का देखते-सुनते-समझते हैं। माता-पिता की जैसी परवरिश होती है वह उसी का प्रतिफल देते हैं। अफसोस की बच्चों की तरफ से बोलने वाली अब तक कोई ऐसी अदालत नहीं बनी है जो उनके अधिकारों की सही रूप में रक्षा कर सके। उन्हें कृतघ्न बोलने के लिए पूरा समाज खड़ा है पर माता-पिता को दायित्वों का पाठ पढ़ाने के लिए कोई 'शाला' नहीं बनी है।
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अगर आरुषि के कदम भटक भी गए थे तो तलवार दंपत्ति खुद को सजा देते कि हम बच्ची पर ध्यान नहीं दे सके यह कैसे सही हो सकता है कि बच्ची को ही खत्म कर अपने झूठे सम्मान की रक्षा कर ली जाए। वास्तव में यह कदम समाज की उस सोच का परिणाम है जिसमें बच्चे को जन्म देने भर से माता-पिता उनको अपनी संपत्ति मान लेते हैं। बच्चे का अपना कोई वजूद है, उसकी अपनी भावनात्मक और संवेदनात्मक जरूरतें हैं। उसके अपने स्वतंत्र विचार हैं यही समझने में हम चूक जाते हैं।
मात्र रुपयों का अंबार लगा देने से बच्चा पल जाता तो आए दिन उन किस्सों की बाढ़ नहीं आती जिनमें ज्यादातर अमीर घरानों के बच्चे अपराध करते पाए जाते हैं। बच्चे को जरूरत होती है एक प्यार भरे हाथ की, एक संबल देते साथ की, विश्वास जगाते मजबूत जज्बात की। सबसे महत्वपूर्ण कि उसे यह बात हमेशा-हमेशा पता हो कि चाहे पूरी दुनिया उसके साथ ना हो पर माता-पिता हर हाल में उसके साथ हैं। और उसका यह विश्वास हमेशा-हमेशा सच हो तभी तो हमारी सामाजिक-पारिवारिक बुनियाद की रक्षा हो सकेगी।
तलवार दंपत्ति के दोषी पाए जाने पर हर्ष मनाने की बजाय अपनी संस्कृति और परवरिश के विघटन का अफसोस मनाया जाना चाहिए। सोचना यह होगा कि क्यों इस तरह के विवेकहीन माता-पिता की संख्या बढ़ती जा रही है?
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हम बच्चों से उम्मीद तब करें जब हमने उन्हें प्यार, साथ, विश्वास और सहारा दिया हो जब उनकी उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत हो। कम से कम जन्म से लेकर 18 बरस तक तो जिम्मेदारी माता-पिता की ही बनती है आखिरकार उस नन्ही सी जान को इस दुनिया में आप लाए हैं वह खुद चलकर आपके घर नहीं आया है ना ही कोई आकर उसे आपकी दहलीज पर रख गया है। बच्चे के सामने तमाम तरह की अपेक्षाओं की सूची रखने से पहले अपने दायित्वों की सूची तैयार करें कहां हम कमजोर हैं और कहां हमें ध्यान देना है।
तलवार दंपत्ति के बहाने हर माता-पिता एक आईना अपने समक्ष रखें कि अगर उनके अपने बच्चे उनकी उम्मीद के अनुरूप व्यवहार नहीं करते पाए गए तो क्या अपेक्षित संयम का परिचय देंगे अगर हां तो ही आप माता-पिता कहलाने के अधिकारी हैं वरना तो तलवार' से लेकर खाप पंचायत तक के हाथ रक्तरंजित है अपनी ही संतानों के खून से.. कहीं आप कट्टरतावाद की उसी पंक्ति में तो नहीं खड़े हैं....?
आज 25 नवंबर को महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के उन्मूलन के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जा रहा है और हम 'वर्षांत' के मुहाने पर आकर ऐसी शर्मनाक घटनाओं के प्रतिदिन साक्षी बन रहे हैं.... बनते जा रहे हैं।