'दूरदर्शन' के एक कार्यक्रम में एक युवा सहभागी ने बहुत तीखे अंदाज में सवाल उठाया- 'राजस्थान में एक अशिक्षित गोलमा देवी को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाना कितना अनुचित है? क्या यह लोकतंत्र के लिए बहुत शर्मनाक नहीं है?' अन्य सहभागियों का स्वर लगभग सहमति का था, लेकिन उतने ही तीखे अंदाज में मेरा उत्तर था- 'असल में लोकतंत्र का अर्थ यही है और न यह अनुचित है न ही दुर्भाग्यपूर्ण। यह ठीक है कि गोलमा देवी को समय रहते पिता, पति, परिवार, समाज और सरकार से शिक्षा की सुविधा मिलती तो बहुत अच्छा होता। फिर भी मेरे विचार में गोलमा देवी दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से अधिक समझदार साबित हो सकती हैं, क्योंकि वे दुनिया के गरीब लोगों का कष्ट, मासूम बच्चों के लिए आवश्यक न्यूनतम दूध और दाने, सामान्य महिलाओं की समस्याओं को अच्छी तरह जानती हैं तथा सरकार में जिद करके कई कल्याणकारी योजनाओं को क्रियान्वित करवा सकती हैं।'
शिक्षित और संपन्न लोग ही समाज का भला कर सकते हैं, यह धारणा टूटती जा रही है। व्यावहारिक ज्ञान रखने वाले लोग भी अधिक सफल और लोकप्रिय हो रहे हैं। उदार आर्थिक नीति वाली केंद्र सरकार अमेरिका से मोबाइल के जरिए अँगरेजी पढ़ाने की व्यवस्था पर गौरव करने के...
युवा सहभागी थोड़ा विचलित हुआ लेकिन अन्य दर्शकों को तर्क-कुतर्क के लिए कोई बड़ा बिंदु नहीं मिला। वैसे लोकतंत्र में मेरी इस बात से असहमति रखने वालों के प्रति मेरे मन में कोई अवमानना का भाव नहीं है। मेरा निवेदन मात्र यह है कि देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों से उच्चतम डिग्री लेने वाले शासक भी व्यावहारिक धरातल पर विफल हुए हैं, क्योंकि उन्हें जनता की सही नब्ज का पता ही नहीं चलता।
यदि केवल शिक्षित और संपन्न लोग ही समाज का भला कर सकते तो देश-दुनिया का हाल कब का बहुत अच्छा हो जाता! राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की धर्मपत्नी कस्तूरबा अशिक्षित थीं और बापू ने ही उन्हें धीरे-धीरे पढ़ाया, लेकिन भारत से अफ्रीका तक कस्तूरबा की सेवा और समझदारी की बातें उनकी जीवनी में मिल जाएँगी। भारत में पचासों ऐसी पंचायतें हैं जहाँ अशिक्षित महिलाओं ने अतिशिक्षित अफसरों और नेताओं से बेहतर काम किया है।
लोग बिहार में राबड़ी देवी के शासनकाल का उल्लेख कर दुष्परिणामों की बात करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि कानूनी फंदों और पार्टीजनों की निष्ठा में अविश्वास के कारण लालू यादव ने अचानक धर्मपत्नी राबड़ी देवी को सिंहासन सौंपा था और जेल से राज चलाने की उनकी कोशिश गलत थी। उस समय मैंने राबड़ी देवी की ऐसी मजबूरियों और कष्ट पर लिखा था। बाद में वे एक हद तक अपने ढंग से राज-काज, राजनीति समझने लगीं और बाकायदा चुनाव भी जीत गईं।
इसलिए लोग यह क्यों नहीं याद करते कि उसी बिहार में शिक्षित, संपन्न और उच्च वर्ग के बिन्देश्वरी दुबे, जगन्नाथ मिश्र, सत्येन्द्र नारायण सिंह के शासनकाल में तो कई गुना अनियमितता, गड़बड़ियाँ, भ्रष्टाचार, अपराध, हत्याकांड हुए। वहीं लगभग मैट्रिक शिक्षा प्राप्त कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के कल्याण में एक अहम भूमिका निभाई। 'महारानी' जयललिता तो बहुत पढ़ी-लिखी और फिल्मी कलाकार रही हैं, लेकिन तमिलनाडु में क्या कम प्रशासनिक गड़बड़ियाँ और भ्रष्टाचार हुआ? दूसरी तरफ इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की शिक्षा की डिग्रियाँ भारत में हुए अधिकांश प्रधानमंत्रियों से कम रहीं, लेकिन भारत को सशक्त, आधुनिक, कम्प्यूटर क्रांति में अग्रणी तो उन्हीं ने बनाया।
लोकतंत्र पर शोध करने वाला कोई संस्थान यदि ईमानदारी से गहन अध्ययन करवाए तो पिछले 61 वर्षों में सत्ता में अक्षमता, दुरुपयोग और भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं में अधिकांश ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त ही मिलेंगे। उच्च शिक्षा प्राप्त प्रशासनिक सेवा के कई अफसर हवाई किले बनाते रहे और हजारों गाँवों को आज भी न्यूनतम सुविधाएँ नहीं मिलीं। कम्प्यूटरों के प्रयोग में पारंगत अफसर और नेताओं की तुलना में गाँव और मंडियों में अच्छा हिसाब-किताब न्यूनतम शिक्षा प्राप्त लोग करते रहे हैं।
उत्तर भारत की ही बात करें। शिवराजसिंह चौहान और रमन सिंह प्रशासनिक और कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की दृष्टि से जनता की परीक्षा में अधिक खरे उतरे। उनकी शिक्षा-दीक्षा दोनों प्रदेशों के कुछ पूर्व मुख्यमंत्रियों से कम रही होगी, लेकिन उन्हें जनता की समस्याओं की पकड़ रही है। अनेक विवादों और हम जैसे पत्रकारों की आलोचनाओं के बावजूद लोग उत्तरप्रदेश में मायावती को अच्छा प्रशासक मानते हैं।
सुशासन के लिए शिक्षा से अधिक जरूरी है समझदारी। जहाँ तक ऊँची शिक्षा से अच्छे परिणामों की बात है तो हाल के वर्षों में अमेरिका, योरप, अफ्रीका, लातिनी अमेरिका तथा एशिया में हुई आतंकवादी घटनाओं का विश्लेषण करवा लें। निष्कर्ष निकलेगा कि कई आतंकवादी अमेरिका-योरप में अच्छी-खासी शिक्षा प्राप्त किए हुए हैं। वह जमाना गया, जब केवल गरीबी और अशिक्षा के कारण लोग गलत रास्ते पर चले जाते थे। साहित्य, संगीत, कला, मीडिया जैसे क्षेत्रों में भी मात्र विश्वविद्यालयीन ऊँची डिग्री प्राप्त लोगों की तुलना में व्यावहारिक ज्ञान पाए लोग अधिक सफल और लोकप्रिय हुए हैं।
बहरहाल, गोलमा देवी की योग्यता पर चर्चा करते समय यह अभियान अवश्य चलाया जा सकता है कि राजनीतिक पार्टियाँ कम से कम अपने मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए आचार संहिता में अपनी पत्नी या पति को न्यूनतम शिक्षा देने की बात भी अनिवार्य करें। जो नेता अपने परिजनों तक को साक्षर नहीं बना सकता, वह अपने गाँव, शहर और प्रदेश में साक्षरता का कार्यक्रम कितना क्रियान्वित कर सकेगा?
यदि अशोक गेहलोत जमीनी अनुभव के कारण वसुंधरा राजे से अधिक योग्य और सफल मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकारे जा सकते हैं तो भारतीय विदेश सेवा की परीक्षा पास मीरा कुमार की अपेक्षा गोलमा देवी अधिक सफल मंत्री क्यों नहीं साबित हो सकतीं?
कांग्रेस हो या भाजपा, सरकार बनने से पहले विधानसभाओं के चुनाव होते हैं। विधानसभा, लोकसभा या राज्यसभा के लिए उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया बहुत पहले शुरू कर दी जाए। यदि कोई उम्मीदवार निरक्षर भी है और जमीन से जुड़ा ईमानदार और निष्ठावान है तो उसे 100 दिन में साक्षर क्यों नहीं बनाया जा सकता? आखिरकार, फ्रेंच और जर्मन जैसी भाषाओं के ज्ञान के लिए 30 से 90 दिन के पाठ्यक्रम बहुत सफल रहते हैं। उनमें तो अँगरेजी का ज्ञान न होना अधिक उपयोगी माना जाता है। नई भाषा मूल रूप से सिखाई-पढ़ाई जा सकती है तो भारत में हिन्दी, मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम के माध्यम से साक्षर बनाना कितना कठिन है?
यदि अशोक गेहलोत जमीनी अनुभव के कारण वसुंधरा राजे से अधिक योग्य और सफल मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकारे जा सकते हैं तो भारतीय विदेश सेवा की परीक्षा पास मीरा कुमार की अपेक्षा गोलमा देवी अधिक सफल मंत्री क्यों नहीं साबित हो सकतीं? उदार आर्थिक नीति वाली केंद्र सरकार अमेरिका से मोबाइल के जरिए अँगरेजी पढ़ाने की व्यवस्था पर गौरव करने के बजाए महात्मा गाँधी की बुनियादी शिक्षा और साक्षरता अभियान को व्यावहारिक ढंग से सफल क्यों नहीं बनाती?