भूख को राक्षस बनने से रोकें

उमेश त्रिवेदी

गुरुवार, 8 नवंबर 2007 (11:51 IST)
देश की आर्थिक नीतियों के सामने संपन्नता जितनी बड़ी चुनौती है, भूख उससे कई गुना बड़ी चुनौती है। परेशानी यह है कि संपन्नता और भूख, दोनों ही विकास के खूँटे से बँधे हैं। नीति-नियंताओं का अंशमात्र एकतरफा रुझान इस खूँटे को उखाड़ सकता है।

पिछले पंद्रह साल के अनुभव चेतावनी दे रहे हैं कि 'ग्लोबलाइजेशन' के नाम पर सिर्फ रेशमी धागों से बना आर्थिक नीतियों का ताना-बाना देश के लिए कतई कारगर और क्रियाशील सिद्ध नहीं हो पाएगा। भूख को 'लेफ्ट' या 'राइट' के चश्मे से देखना मुनासिब नहीं है और न ही इस मुद्दे की बहस के आसपास शब्दों, सिद्धांतों और प्राथमिकताओं के मकड़जाल खड़े किए जाना चाहिए।

भूख आज आपके सामने हाथ पसारे खड़ी है, तो इसके मायने यह कतई नहीं हैं कि वह हमेशा ही ऐसे खड़ी रहेगी। भूख मनुष्य की प्राथमिक जरूरत है। इस मसले पर सरकार को मनुष्यता के समग्र पहलुओं को ध्यान में रखकर अर्थतंत्र की प्राथमिकताओं को बुनना और बनाना होगा।

हमेशा ध्यान में रखना होगा कि भूख को राक्षस बनने से रोकना समाज और व्यवस्था की पहली आवश्यकता है, पहली प्राथमिकता है। भूख का राक्षस जाग उठा तो कोई भी तंत्र, कोई भी वाद, कोई भी व्यवस्था टिक नहीं पाएँगे।

जबकि पाँच सितारा सपनों का कोहराम मचा हुआ है, भूख-प्यास और बेजारी की तरफदार दलीलें खोटे मुहावरों की तरह संपन्नता के कानों में चुभती है। इसके बावजूद संतुलन के बिंदुओं की तलाश में किसी न किसी तरीके से लगातार इन बातों को उठाते रहना वर्तमान की जरूरत है।

पिछले सप्ताह दिल्ली में संसद भवन के सामने प्रदर्शन के लिए पहुँचे अठारह राज्यों के पच्चीस हजार वनवासी आदिवासियों की गुहार में 'भूख' आगाह कर रही थी कि उसे राक्षस बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाए।

एकता परिषद ने वनवासियों की जनादेश-यात्रा का आयोजन गाँधीगिरी की ताकत को दिखाने की गरज से सत्याग्रह की तर्ज पर किया था। यात्रा 2 अक्टूबर को गाँधी जयंती के दिन ग्वालियर से शुरू हुई थी। एकता परिषद के अध्यक्ष श्री बी.वी. राजगोपाल के नेतृत्व में निकली यात्रा कई अर्थों में अदभुत थी। इसने आर्थिक नीतियों को लेकर लोगों के सामने कई सवाल खड़े किए हैं।

रैली ने अपने सत्याग्रही और शांत तौर-तरीकों से यह सोचने को भी मजबूर किया है कि गाँधीवादी प्रवाह की धाराएँ और उनकी ताकत अभी भी कायम है। कोशिश की जाए तो ये फिर हावी हो सकती हैं।

बहरहाल, जनादेश-यात्रा के इस गाँधीवादी उपक्रम का सबब देश में भूमि सुधारों के लिए सरकार पर दबाव बनाना है। आजादी के बाद से ही देश में भूमि सुधारों को राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने क्रियान्वयन की दृष्टि से सबसे ऊपर और जरूरी माना था, फिर भी भूमि सुधारों का इतिहास कदापि उल्लेखनीय नहीं रहा है।

भूमि सुधारों से जुड़े समूचे घटनाक्रम का खतरनाक पहलू यह है कि कोई डेढ़ दशक पहले आए 'ग्लोबलाइजेशन' के दौर में बनी आर्थिक विकास की नीतियों में इन मुद्दों को लगभग दरकिनार कर दिया गया है। देश में तीन-चौथाई से ज्यादा आबादी यानी कोई अस्सी करोड़ लोग अपने जीविकोपार्जन के लिए सीधे-सीधे खेती से जुड़े हुए हैं।

1990 के बाद आर्थिक नीतियों में आए बदलावों ने खेती-किसानी पर सबसे ज्यादा असर डाला है। खाद-बीज और अलग-अलग तरीके से खेती को दी जाने वाली रियायतों को समेटने और क्रमशः समाप्त करने का सिलसिला शुरू हो गया है। वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था के कारण देश की आर्थिक विकास की परिकल्पनाएँ लगभग बदल गई हैं।

समानता और न्यायपूर्ण आर्थिक व्यवस्था के सिद्धांत को तजकर यह माना जाने लगा है कि आर्थिक वृद्धि में ही सारी समस्याओं के समाधान अंतर्निहित है। इसीलिए खेती-किसानी से जुड़े सभी पहलुओं का, चाहे वह बीज-खाद का मसला हो या जमीन का, बाजारीकरण हो रहा है।

बाजारीकरण की इन घटनाओं का दर्दनाक तथ्य है कि अब सरकार स्वयं किसानों के बजाय उन तत्वों की मददगार बन रही है, जो अस्सी करोड़ लोगों की भूख से सीधी जुड़ी खेती-किसानी को गोरखधंधों में तब्दील करना चाहते हैं।

देशी-विदेशी अर्थतंत्र का शिकंजा इतना मजबूत हो चला है कि सर्वहारा वर्ग के कंधों पर बैठी बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के घर में ही 'नंदीग्राम' जैसे हादसे होने लगे हैं। फिर कांग्रेस या भाजपा शासित सरकारों से कोई 'किसानी-अपेक्षा' करने के बारे में सोच पाना ही संभव नहीं है। सरकार भले ही जनता के वोटों से, जनता के नाम पर, जनता के लिए बने, लेकिन जनकल्याणकारी नीतियों को निर्धारित करने की उसकी शक्तियाँ दिन-ब-दिन सीमित होती जा रही हैं। उस पर गरीबी के बजाय संपन्नता को पोषित करने का दबाव ज्यादा है।

वैश्वीकरण के नाम पर बनी आर्थिक नीतियों में देश के नब्बे फीसदी खेतिहर ग्रामीण समाज को विकास के हाशिए पर धकेलने का जो उपक्रम शुरू हुआ है, वह ऊँचाइयों की बजाय खाइयों की ओर धकेलता है। हमारे वनवासी और किसान जिन आँकड़ों के आधार पर जनादेश लेकर सरकार के पास पहुँचे हैं, यदि उन पर गौर नहीं किया गया, तो सब कुछ उलट-पलट हो जाएगा।

नवासियों का यह जनादेश तथ्यों का वह आईना है, जिसमें आर्थिक नीतियों के चेहरे पर फफोले साफ नजर आते हैं और उनके इलाज के लिए आगाह करते हैं। आर्थिक नीतियों में खेती-किसानी और ग्रामीण समाज की अनदेखी का नतीजा ही है कि आजादी के बाद से अब तक भूमिहीनता पाँच करोड़ से बढ़कर पैंतीस करोड़ तक पहुँच गई है।

बेरोजगारी की मात्रा नौ करोड़ से बढ़कर उनतीस करोड़ तक हो चुकी है। आँकड़ों की स्याह सच्चाइयों के बावजूद यदि देश के शासक यह सिद्ध करने में जुटे हैं कि गरीबी, भुखमरी, पलायन और बेरोजगारी का एकमात्र इलाज औद्योगिक विकास ही है, तो यह प्रयास खतरनाक हो सकता है।

औद्योगीकरण विकास का एक पहलू है, समग्र नहीं। भारतीय रिजर्व बैंक के साथ-साथ एशियन विकास बैंक और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्टों में यही तथ्य उभरा है कि कृषि आधारित विकास के बिना गरीबी उन्मूलन संभव नहीं है।

भारत में गरीबी की सच्चाइयाँ भयावह हैं। उन पर गंभीरता से गौर करना होगा। साठ साल की तथाकथित विकास नीतियों के कथानक में साढ़े पाँच लाख से ज्यादा गाँव पेट बाँधे कातर भाव से उपेक्षाओं के हाशिए पर खड़े हैं।

भूमि कानूनों की विवेचना के लिए सिर्फ यही तथ्य काफी है कि साठ वर्षों में चार करोड़ लोगों को विकास के नाम पर विस्थापित किया जा चुका है। भूमि-सुधारों को लेकर एकता परिषद के शोध चौंकाने वाले हैं। ये बातें सिहरन पैदा करती हैं कि वन संरक्षण कानून के चलते पचासी लाख वनवासियों को अपनी ही मातृभूमि पर अतिक्रमणकर्ता घोषित कर दिया गया है।

आजाद भारत में 224 राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों के नाम पर 56 लाख वनवासियों को उजाड़ा जा चुका है। छत्तीसगढ़ में गत पाँच वर्षों में पचास हजार एकड़ भूमि औद्योगीकरण के लिए अधिगृहीत की गई। नतीजतन राज्य से पलायन करने वालों का प्रतिशत ग्यारह से बढ़कर अठारह फीसदी हो गया।

आजाद भारत में कथित भूमि सुधारों के 272 कानून तथा 13 संवैधानिक संशोधन के जरिए व्यवस्थाओं को सुधारने के प्रयास किए गए हैं। लेकिन जमीन का यथार्थ अन्याय की दर्दनाक कहानियों से भरा पड़ा है। देश में 78 प्रतिशत बड़े किसान उच्च वर्ग के हैं, तो 83 प्रतिशत सीमांत किसान आदिवासी और दलित तबके के हैं।

1991 की जनगणना के मुताबिक 64 प्रतिशत दलित और 16 प्रतिशत आदिवासी भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं। यदि इनकी परिस्थितियों का वस्तुनिष्ठ आकलन करके आर्थिक नीतियों में इनकी आवश्यकताओं को समायोजित नहीं किया गया, तो परिस्थितियाँ विस्फोटक हो सकती हैं।

वनवासियों की अहिंसक और सत्याग्रही जनादेश यात्रा 'ग्लोबलाइजेशन' में सराबोर सरकार के सोच में परिवर्तन के लिए मील का पत्थर साबित हो, यह अपेक्षा सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है।

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