मीडिया के साथ आदिम-सलूक

प्रिंट मीडिया और पत्रकारिता से जुड़े हर शख्स के लिए यह बड़ी खुश खबर है कि हिन्दुस्तान दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा न्यूज पेपर मार्केट है। देश में बढ़ती साक्षरता और नई टेक्नोलॉजी के कारण दुनिया में भारत की यह स्थिति बनी है। वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूज पेपर्स द्वारा हाल ही में लंदन में जारी एक शोध रिपोर्ट में यह बात उभरकर सामने आई है।

   भारत विश्व के उन चार बड़े बाजारों में एक है, जो प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में तेजी से विकसित हो रहे हैं। पहले स्थान पर चीन है, जहाँ प्रतिदिन 107 मिलियन प्रतियाँ बिकती हैं। भारत में 99 मिलियन प्रतियाँ हर दिन पाठकों के हाथों में पहुँचती हैं      
रिपोर्ट के आँकड़े खुलासा करते हैं कि भारत अखबारों के मामलों में विश्व के उन चार बड़े बाजारों में एक है, जो प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में तेजी से विकसित हो रहे हैं। पहले स्थान पर चीन है, जहाँ प्रतिदिन 107 मिलियन प्रतियाँ बिकती हैं। उसके बाद भारत का क्रम आता है, जहाँ 99 मिलियन प्रतियाँ हर दिन पाठकों के हाथों में पहुँचती हैं।

जापान 68 मिलियन प्रतियों के साथ तीसरे क्रम का बड़ा बाजार है, जबकि अमेरिका लगभग 51 मिलियन अखबारी प्रतियों के साथ चौथे स्थान पर आता है। बड़े बाजार की प्रभावशीलता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि 2007 में भारत में अखबारों की बिक्री में 11.2 प्रतिशत का इजाफा हुआ है, जबकि पिछले पाँच वर्षों में यह वृद्धि 35.51 प्रतिशत दर्ज की गई है।

प्रिंट मीडिया के बाजार की चमक सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती है। आगे की कहानी बताती है कि दुनिया के सौ सर्वाधिक बिक्री वाले अखबारों में 74 एशिया में प्रकाशित होते हैं और उनमें 62 सर्वाधिक प्रसार वाले अखबार हिन्दुस्तान, चीन और जापान के हिस्से में आते हैं। प्रिंट मीडिया का बढ़ता बाजार इस बात का परिचायक है कि देश में समृद्धि के साथ-साथ सूचना की भूख बढ़ रही है।

किसी भी समाज में अखबारों का उत्थान देश की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में सार्थक और सकारात्मक बदलाव का प्रतीक है। प्रिंट मीडिया के भारतीय बाजार के बारे में यह धारणा सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि अखबारों का यह बड़ा बाजार असहिष्णुता, आतंक और अनुशासनहीनता की तंग गलियों में दिशाहीन-सा भटक रहा है। उन रास्तों पर ताला लगा है, जो सही अर्थों में प्रिंट मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के राजपथ की ओर ले जाते हैं।

कुछ माह पहले एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी 'मीडिया एडवोकेसी ग्रुप' के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी कि प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत का स्थान 115 है। विडंबना यह है कि भारत से आगे खड़ा मीडिया का पहला बड़ा बाजार चीन का क्रम तो इससे भी नीचे आता है।

जाहिर है कि प्रिंट मीडिया के दो बड़े बाजारों में प्रेस की आजादी के हालात सवाल करते हैं कि मीडिया में यह सब क्या घट रहा है? क्यों घट रहा है? किसके इशारे पर घट रहा है? यदि एक तरफ मीडिया के बाजार आसमान छू रहे हैं, तो दूसरी तरफ प्रेस की आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जमीन में दफन करने के प्रयास किए जा रहे हैं? देश के सामने बड़ा सवाल है कि उत्तरदायी पत्रकारिता, उत्तरदायी समाज एवं उत्तरदायी शासन-प्रशासन संवेदनशील और समन्वित तरीकों से आमजनों के हितों के रक्षक कैसे सिद्ध होंगे? वर्तमान में ये तीनों संस्थाएँ अलग-थलग नजर आ रही हैं।

  भारत में मीडिया का दूसरा बड़ा बाजार बीमार, बेबस, बर्बर और बेरहम है। पिछले सप्ताह गुजरात, महाराष्ट्र में घटी दो घटनाएँ इस तथ्य को शिद्दत से सामने लाती हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आजादी के मसले सैद्धांतिक बयानबाजी के अलावा कुछ नहीं हैं      
भारत में मीडिया का दूसरा बड़ा बाजार बीमार, बेबस, बर्बर और बेरहम है। अलग-अलग तरीकों से यह हर दिन उजागर होता है। पिछले सप्ताह गुजरात, महाराष्ट्र में घटी दो घटनाएँ इस तथ्य को शिद्दत से सामने लाती हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आजादी के मसले सिर्फ सैद्धांतिक बयानबाजी के अलावा कुछ नहीं हैं। कतिपय अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मीडिया में व्यावहारिक धरातल पर ये हमेशा गुलाटी खाते नजर आते हैं।

उपरोक्त दोनों घटनाएँ इस अवधारणा को पुष्ट करती हैं कि मीडिया यदि व्यवस्था के खिलाफ उड़ान भरेगा, तो उसके पंख कतर दिए जाएँगे। गुजरात और महाराष्ट्र के घटनाक्रमों में ऐसा कुछ नहीं था, जिसके कारण शासन-प्रशासन और राजनीतिक कार्यकर्ता आतंक और प्रतिशोध पर उतर आए। गुजरात में 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने स्थानीय स्तर पर पुलिस के कतिपय बड़े अधिकारियों की पदस्थापनाओं को लेकर प्रश्न उठाए थे।

अखबार का कथन था कि जिन अधिकारियों की पृष्ठभूमि साफ-सुथरी और विश्वसनीय नहीं हो, उन पर यह कैसे भरोसा किया जाए कि वह नागरिकों की रक्षा का दायित्व निबाह सकेंगे? अखबार ने आशंका व्यक्त की थी कि इन अफसरों के 'अंडरवर्ल्ड' से भी संबंध रहे हैं? गुजरात की सरकार और अधिकारियों को लगा कि इस खबर से बड़ा कोई देशद्रोह नहीं हो सकता और उन्होंने समाचार पत्र के संपादक और संवाददाता को राष्ट्रद्रोह के मुकदमों से लाद दिया। जब उच्च न्यायालय ने पत्रकारों को जमानत दे दी, तो उन पर दो नए मुकदमे दर्ज करके फिर कटघरे में खड़ा कर दिया गया।

महाराष्ट्र में लोकसत्ता के संपादक का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने मुंबई के मेरीन ड्राइव पर सौ करोड़ की लागत से शिवाजी की प्रतिमा स्थापित करने के औचित्य पर सवाल उठा दिया था। उनका कहना था कि जब महाराष्ट्र के कई इलाकों में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, क्या सौ करोड़ का खर्च उनकी दशा सुधारने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता? बस, यह बात राष्ट्रवादी कांग्रेस के राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं को पसंद नहीं आई। उन्होंने संपादक के घर पर तोड़फोड़ की, काला डामर पोता और उन्हें आतंकित करने की कोशिश की।

दिलचस्प यह है कि महाराष्ट्र की कांग्रेस और एसीपी की मिली-जुली सरकार उन्हें कोई सुरक्षा मुहैया नहीं करवा सकी। इन दोनों मामलों पर एडिटर्स गिल्ड सहित अनेक पत्रकार संगठनों ने जबर्दस्त विरोध दर्ज कराया है।

  एडिटर्स गिल्ड ने तीखे लहजे में आगाह किया है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे जितना शक्तिशाली क्यों नहीं हो, प्रेस की आजादी के लिए खतरा नहीं बनना चाहिए। सभी सरकारों को प्रेस की आजादी की रक्षा के लिए सुदृढ़ उपाय सुनिश्चित करना चाहिए      
एडिटर्स गिल्ड ने तीखे लहजे में आगाह किया है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे जितना शक्तिशाली क्यों नहीं हो, प्रेस की आजादी के लिए खतरा नहीं बनना चाहिए। सभी सरकारों को प्रेस की आजादी की रक्षा के लिए सुदृढ़ उपाय सुनिश्चित करना चाहिए।

दोनों मामले, जो कि किसी भी अखबार की सामान्य कार्यशैली का हिस्सा हो सकते हैं, सत्ता-प्रतिष्ठानों में प्रवाहित एक ही किस्म की तानाशाही प्रवृत्तियों को रेखांकित करते हैं। महाराष्ट्र की घटनाओं में कांग्रेस-एसीपी के कार्यकर्ता और उनकी सरकारें सामने दिख रही हैं, तो गुजरात में भाजपा सरकार की शासकीय मशीनरी हाथ में तलवार लेकर अभिव्यक्ति का कत्लेआम मचाने के लिए लपक रही हैं।

जाहिर है असहिष्णुता, आतंक, हठधर्मिता और दमनकारी प्रवृत्तियाँ वर्तमान राजनीति और प्रशासन का हिस्सा बन चुके हैं। किसी एक दल, एक विचार, एक अवधारणा या एक संप्रदाय को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि पूरे कुएँ में ही भाँग पड़ी है। सभी उन्मत्त और उन्मादी नजर आ रहे हैं। देश की कोई भी पार्टी यह दम नहीं भर सकती कि वह मीडिया या प्रेस की स्वतंत्रता की पक्षधर है।

भारतीय राजनीति से प्रजातांत्रिक मूल्य, विश्वास, सहनशीलता, परस्पर आदरभाव जैसे तत्व अब खत्म होते जा रहे हैं। राजनीति अब सेवा के बजाय सत्ता का सबब बन चुकी है। स्वाभाविक ही सत्ता के रास्तों में जो भी खलल पैदा करेगा, वह हिंसा, प्रतिशोध और नाराजी का शिकार होगा। लेकिन यहाँ यह भी सोचना होगा कि प्रेस की आजादी पर होने वाले हमलों के संदर्भ में सामाजिक उदासीनता क्यों नजर आ रही है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की धाराएँ पतली क्यों हो चली हैं?

  प्रेस और सत्ता-प्रतिष्ठानों के बीच अभिव्यक्ति के सवाल पर संघर्ष नया नहीं है, यह शाश्वत है। लेकिन आजाद भारत में 'प्रेस' को ऐसे मसलों में हमेशा समाज की मदद मिलती रही है, इसलिए उसका पलड़ा हमेशा भारी रहा है      
प्रेस और सत्ता-प्रतिष्ठानों के बीच अभिव्यक्ति के सवाल पर संघर्ष नया नहीं है, यह शाश्वत है। लेकिन आजाद भारत में 'प्रेस' को ऐसे मसलों में हमेशा समाज की मदद मिलती रही है, इसलिए उसका पलड़ा हमेशा भारी रहा है।

किसी भी राजनीतिक या सामाजिक आंदोलन की तरह अभिव्यक्ति का संघर्ष भी हमेशा समाज की मुख्य धारा का संघर्ष रहा है, लेकिन अब ये लड़ाइयाँ हाशिए पर सरक रही हैं। इसका कारण यह है कि पहले मीडिया समाज के लिए संचालित होता था। अब वह मार्केट के लिए मार्केट के हिसाब से आकार ले रहा है। मीडिया का दिशाबोध वे ताकतें हैं जिनके अपने व्यावसायिक हित हैं। शायद इसलिए अब प्रेस की आजादी के मसले हुंकार भरते हुए या दहाड़ते हुए नजर नहीं आते हैं।

मीडिया को अपनी दिशा और दशा को समाज से जोड़कर ही रखना होगा, क्योंकि उसके व्यावसायिक दायित्वों में सामाजिक सरोकारों के तत्व भी स्थायी रूप से जुड़े हैं। मीडिया सरकार और सत्ता प्रतिष्ठानों से लोहा लेने में तभी सफल हो पाएगा, जबकि समाज उसके साथ होगा। मीडिया को यह गाँठ बाँधकर भविष्य की रणनीति को बनाना होगा। प्रचार-प्रसार और टीआरपी के आँकड़ों के बीच सामाजिक सरोकार लुप्त नहीं होना चाहिए। (लेखक नईदुनिया के समूह संपादक हैं)

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