शताब्दियों से हमने खुद को लगातार एक त्रासद प्रश्न के उत्तर की खोज में जोते रखा और वह प्रश्न यह है कि मनुष्य अंततः भ्रष्ट क्यों हो जाता है? बहरहाल, अब जबकि भूमंडलीकरण की इस ताजा हड़बोंग के साथ भारतीय समाज में वर्चस्व का एक नया चरण आरंभ हो चुका है।
इसमें 'ज्ञान', 'दौलत' और 'हिंसा' की एक ऐसी दुरुह त्रयी गढ़ी जा रही है, जो 'भ्रष्टाचार' और 'सत्ता' के मध्य अटूट और अंतरंग संबंध बनाती है। इसलिए, वित्तीय पूँजी के इस अस्थिर कालखंड में सत्ता का चरित्र उत्तरोत्तर बदलता ही चला गया है।
आज जितना भ्रष्टाचार सार्वजनिक क्षेत्र में बताया जाता है, क्या निजी क्षेत्र में उससे कम है? क्या दोनों के बीच एक गहरी अंतर-निर्भरता नहीं है? वित्तीय पूँजी के निष्करुण युग ने भ्रष्टाचार को ही एक संस्थान का रूप दे दिया है
यह नया सत्ता-विमर्श है, जो एक जबर्दस्त जिरह की माँग करता है। महान अर्थशास्त्री कौटिल्य ने जिस तत्व को आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व राज्य के विकास को अवरुद्ध करने वाले घटकों में गिना था- वह थी घूसखोरी। इसे उन्होंने 'भ्रष्ट आचरण' की संज्ञा दी थी। उन्होंने कहा था, 'राज्य निर्धारित सार्वजनिक पद का निजी लाभ के लिए दुरुपयोग भ्रष्टाचार है।'
यहाँ प्रसंगवश हम एक चीनी यात्री के उस विस्मय को याद कर सकते हैं, जब वह चाणक्य को देखता है कि रात में उसने अपना अभी तक जल रहा 'दीया' बुझाया और दूसरा दीया जला लिया। बावजूद इसके कि पहले में तेल शेष था। चाणक्य का जवाब था कि अभी तक वह राज्य का कामकाज निपटा रहा था और वह जलता हुआ दीया राज्य का था, निजी कामकाज के लिए उसका उपयोग भ्रष्टाचार की श्रेणी में आएगा और चूँकि अब मैं अपना खुद का कामकाज आरंभ करने वाला हूँ, इसलिए, मेरा निजी दीया जला रहा हूँ।
कहने का कुल जमा मकसद यह कि यह उदाहरण 'राज्य में सत्ता प्राप्त व्यक्ति के नैतिक आचरण के तत्कालीन प्रतिमान को रेखांकित करता है', जहाँ आत्मानुशासन के लिए निर्धारित वर्जनाएँ रही आई थीं। दुर्भाग्यवश नई सदी में विदेशी पूँजी के देसी पैरोकारों ने भ्रष्ट आचरण का एक नितांत नया और विचित्र संस्करण तैयार कर लिया है।
भ्रष्टाचार की, नैतिकता की दृष्टि से तैयार की गई पूर्व की दीर्घकालिक परिभाषाएँ निर्ममता के साथ ध्वस्त कर दी गई हैं। बहरहाल, भ्रष्टाचार को लेकर अब बगैर उत्तेजित हुए एक सामाजिक स्वीकृति तैयार कर दी गई है। रिश्वत ऊपर की कमाई का गौरव बन गई है। ऊपर की और अतिरिक्त कमाई ऐसी है, जैसे मुकुट में मोरपंख।
'रिश्वत' शब्द नैतिकतावादियों के द्वारा पूँजी की गति पर लगाया गया लांछन है। दरअसल, जिसे आप रिश्वत कहते हैं, वह तो 'स्पीड मनी' है। वह काम की इच्छित गति के लिए ल्यूब्रिकेंट की भूमिका अदा करती है। रिश्वत कहकर उसे बदनाम न किया जाए
विदेशी पूँजी के प्रताप में नहाते हुए 'नैतिकता' से मैल की तरह मुक्ति पा ली गई है। बाजार की अधीरता के सामने हमारा सर्वस्व स्वाहा हो गया है। मसलन, अब रिश्वत की एक नई व्याख्या की जा रही है कि रूढ़-नैतिकतावादी लोग अर्थशास्त्र की गति को नहीं जानते। व्यापार पूँजी के प्रवाह के साथ चलता है। उसे हर क्षण गति चाहिए। नैतिकता एक स्पीड ब्रेकर है। वह अवरोध है इसलिए उसे अविलंब हटाया जाना चाहिए।
'रिश्वत' शब्द नैतिकतावादियों के द्वारा पूँजी की गति पर लगाया गया लांछन है। दरअसल, जिसे आप रिश्वत कहते हैं, वह तो 'स्पीड मनी' है। वह काम की इच्छित गति के लिए ल्यूब्रिकेंट की भूमिका अदा करती है। रिश्वत कहकर उसे बदनाम न किया जाए। यह चंचला पूँजी की नैतिकी है जिसमें रिश्वत राज्य के विकास को अवरुद्ध नहीं करती, बल्कि उसे आसान बनाती है।
कहने की जरूरत नहीं कि यह भारत के व्यापार और उद्योगों से जुड़े अभिजनों (इंडस्ट्रियल-इलिट) के लिए कानून की जटिलता से मुक्ति का मार्ग है। दरअसल, मुक्त अर्थव्यवस्था के शिकंजे में वह अनिश्चतताओं से बुरी तरह घिर गया है। लेस्ली पामर ने हांगकांग, भारत और इंडोनेशिया के समाजों के उच्च वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए कहा कि यह वर्ग, एक किस्म की 'मेन्युफैक्चर्ड-अनसर्टेनिटीज' के बीच फँस गया है अर्थात् अप्रत्याशित अनिश्चितताओं से घिर गया है जिसके चलते वह भविष्य की आश्वस्ति की आतुरता में रिश्वत को कामकाज की जटिलता को कम करने का कारगर हथियार मानता है।
रिश्वत आसानियाँ पैदा करती है, जबकि विरोधाभास यह है कि समाज में भ्रष्टाचार की व्याप्ति की सबसे ज्यादा निंदा भी यही वर्ग करता है। वह उसे समाप्त करने का हल्ला भी करता है और उसको ऑक्सीजन भी यही वर्ग देता है। अब नैतिकता को रिश्वत न दे पाने वाले लोग, रिश्वत न ले पाने वाले लोगों का छातीकूट रूदन बताते हैं। उन्होंने मान लिया है कि नैतिकता एक अनुर्वर किस्म का उपहासात्मक उपदेश है।
नैतिकता की ऊँचे आवाज में बात करने से सत्ताएँ बनती हैं, लेकिन नैतिकताओं को अमल में लाने से सत्ताएँ ढह जाती हैं। अतः उससे एक निश्चित दूरी जरूरी है।
रिश्वत की ऊर्जा व्यवस्था को स्फूर्त बनाती है। रिश्वत पाकर काम करने वाला कर्मचारी अतिरिक्त सक्रियता दिखाने लगता है। इसलिए कुछ लोग रिश्वत की वैधता की भी वकालत करते हैं। यह वैसा ही है जैसे समलैंगिकता को आबादी रोकने में कारगर बताया जाता है
नैतिकता को किफायती नैतिकता में बदलना आवश्यक है, क्योंकि इस बहुराष्ट्रीय निगमों के वर्चस्व वाले बाजार-समय में कॉर्पोरेटी चिंतकों के द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार 'एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था' में आवश्यक प्रतिस्पर्धा को बढ़ाता है। नतीजतन, इससे व्यवस्था की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।
रिश्वत की ऊर्जा व्यवस्था को स्फूर्त बनाती है। रिश्वत पाकर काम करने वाला कर्मचारी अतिरिक्त सक्रियता दिखाने लगता है, इसलिए कुछ लोग रिश्वत की वैधता की भी वकालत करते हैं। यह वैसा ही है जैसे समलैंगिकता को आबादी रोकने में कारगर बताया जाता है जबकि हकीकत में यह चंचला पूँजी की विकृत नैतिकी ही है।
जाहिर तौर पर देखें तो शायद भारतीय समाज बाहर से सांस्कृतिक 'एकरूपता' का भ्रम पैदा करता है, लेकिन हकीकतन हमारा पूरा समाज, बदलते समय में धीरे-धीरे, दो स्पष्ट भागों में बँट चुका है। एक वह हिस्सा जहाँ पूँजी का अपार आधिक्य है और दूसरा वह हिस्सा, जहाँ पूँजी का अपार अभाव है। यह नया बाइनरी अपोजिशन है। 'हम' और 'वे' का नया बँटवारा। और दोनों ही एक-दूसरे से युद्धरत हैं।
एक के लिए उसका 'पेट' ही उसकी नैतिकी है, जबकि दूसरे के लिए उसकी 'पूँजी' ही उसकी 'नैतिकी' है। इन्हीं के अनुसार उनके वर्ग-आचरण तय होते हैं- पेट के लिए कोई आचरण भ्रष्टता की श्रेणी में नहीं आता, ठीक उसी तरह पूँजी के लिए भी सभी आचरण भ्रष्टता की परिभाषा से बाहर हैं। पूँजी अपशिष्ट से मिले या अपवित्र से, कोई आपत्ति नहीं। भ्रष्टाचार की यही जन्म कथा है।
मुझे अक्सर बचपन में पढ़ी एक कहानी की बिलकुल पहली पंक्ति याद आती है, जो इस तरह थी 'राजू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।' प्रथम पंक्ति में ही एक वर्गद्रोही दृष्टि छुपी हुई है, जो प्रकारांतर से यह बताती है कि गरीब तो बेईमान और भ्रष्ट होता ही है।
भारत में अर्थशास्त्रियों की एक नई नस्ल भ्रष्टाचार को शीतयुद्धोत्तर विश्व में एक अंतरराष्ट्रीय महामारी की तरह बता रही है, जिससे बचना संभव नहीं है। उसे वे 'ग्लोबल-फिनामिना' बताते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने इसमें श्रीवृद्धि करने में मदद की है
यह तो राजू की निजी विशेषता थी कि वह गरीब होने के बावजूद ईमानदार था। बहरहाल, यही वह दृष्टि है, जो बार-बार यह बताने का अथक प्रयास करती है कि गरीबी ही भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है। इसे प्रवृत्तिमूलक बताकर मुक्ति पा ली जाती है। वे छूट जाते हैं, जो 'पूँजी', 'ज्ञान' और 'हिंसा' की त्रयी के हिस्से हैं। वे प्रतिष्ठा-मूल्य बन जाते हैं।
भारत में अर्थशास्त्रियों की एक नई नस्ल भ्रष्टाचार को शीतयुद्धोत्तर विश्व में एक अंतरराष्ट्रीय महामारी की तरह बता रही है, जिससे बचना संभव नहीं है। उसे वे 'ग्लोबल-फिनामिना' बताते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने इसमें श्रीवृद्धि करने में मदद की है। जबकि भ्रष्टाचार स्वदेशी हो या विदेशी, वह मूलतः राज्य के विकास को अवरुद्ध करके उसे सामाजिक परिवर्तन की व्याधिग्रस्त व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत कर देता है।
बहरहाल, इतने सारे घनमथन और विवेचन के बाद प्रश्न यहीं आकर टिकता है कि आज जितना भ्रष्टाचार सार्वजनिक क्षेत्र में बताया जाता है, क्या निजी क्षेत्र में उससे कम है? क्या दोनों के बीच एक गहरी अंतर-निर्भरता नहीं है? वित्तीय पँूजी के निष्करुण युग ने भ्रष्टाचार को ही एक संस्थान का रूप दे दिया है और उसके संस्थानीकरण में वेल्थ, वायलेंस और नॉलेज की त्रयी काम कर रही है।
उसने राजनीति को भी पूँजी निवेश का नया और प्रतिस्पर्धी परिक्षेत्र बना दिया है। ऐसे में भ्रष्टाचार के विरुद्ध मात्र नैतिक-तर्कों के तीरों से कुछ नहीं होगा। सामाजिक विषमता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाएगी, जो वर्ग संघर्ष की भी शक्ल नहीं ले पाएगी। चूँकि बाजारवाद ने अपनी लोक-लुभावन रणनीति से जनता में विषमताओं को लेकर उठने वाली आपत्तियों को छीन लिया है इसलिए जनआंदोलन की भूमिका अनुर्वर हो चुकी है। मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, बाजार ने उसे अधीन कर लिया है। वह उसकी चाकरी में लगा हुआ है। वह भी मूल्यों के लिए घाटा उठाने को तैयार नहीं है।
बहरहाल, आज मूल्यों की स्थिति यह है कि वे शाश्वत हैं या सापेक्ष, परंपरागत हैं या परिवर्तनशील- वे सब हमारे समय की हकीकत से युद्धरत हैं। वे जख्मी आँख से मनुष्य की ओर टकटकी लगाकर लगातार ताक रहे हैं कि उन्हें उम्मीद है कि उनको बचाने की बेकली में दौड़ते हुए कुछ आगे आएँगे, लेकिन विडम्बना यह कि आने वाले उसे बचाने नहीं बल्कि उसको दफन करने के लिए दौड़कर आ रहे हैं।
कर्मठता संकटग्रस्त है और ईमानदारी प्रश्नांकित। ऐसे में भ्रष्टाचार हमें नैतिकता की निर्लज्ज अनसुनी के लिए तैयार करता है। लेकिन, हमें याद रखना चाहिए कि भविष्य का जब सौदा होगा तो उसमें हमारे नैतिक अतीत को बहुत बड़ी हानि होगी। (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)