लोग कहते हैं कि हर व्यक्ति का अंतिम ठिकाना तो शमशान घाट है या फिर कब्रिस्तान। लेकिन जो साधुओं की जमात से हैं वे जानते हैं कि जन्म और मृत्यु तो सिर्फ दो छोर हैं जिसके बीच भ्रम, विरोधाभास, भटकाव और संताप की एक लंबी रेखा है। यही भव सागर है जिसे पार करने के लिए मृत्यु पूर्व ही प्रयास करने होते हैं और जो बगैर प्रयास किए मर गया समझो की व्यर्थ गया।
डेविड हेनरी थारो का कथन था कि बंगला, गाड़ी, प्रसिद्धि, पद और पैसा प्राप्त करने के बाद भी जीवन से सुकून चला जाता है तो समझों तुम असफल हो। सफलता इस बात में निहित हैं कि तुम कितने निडर और सुकून से जी रहे हो। लेकिन ओशो महासुकून की बात करते हैं कि अब समझ जाओ कि तुममें और पशु-पक्षियों के जीवन में कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं हैं बल्कि तुम तो उनसे भी गए-बीते हो।
ओशो के अनुसार तो साधुओं का अंतिम ठिकाना है मोक्ष। जिसे बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा जाता हैं। जन्म और मृत्यु का चक्र उसी तरह चलता रहता है जिस तरह की धरती का पानी वाष्प बनकर आकाश में बादल बन जाता है और फिर वही बरसकर नदी या तालाब का जल बन जाता है। यह वाष्पिकृत होने की क्रिया बहुत ही संताप भरी होती है।
शरीर में रहकर जीना ही संताप भरा होता है। शरीर छोड़ने के बाद भी सूक्ष्म और कारण शरीर में व्यक्ति कुछ समय तक रहता है फिर प्रकृति उसे सुषुप्ति में सुलाकर उसकी स्मृतियों का क्षय करने के बाद नए गर्भ में धकेल देती है। नए गर्भ से जन्म लेकर व्यक्ति नया संसार रचने लगता है। अर्थात फिर से वही बेवकुफियाँ जो करते आए हैं। यह सभी आदत का खेल है। जैसा यह जीवन वैसा ही अगला जीवन। कुछ खास रद्दो-बदल नहीं। नाम नया, काम पुराना लेकिन नई टेक्नोलॉजी के साथ। बैलगाड़ी छूट गई लेकिन सफर करने की आदत नहीं छूटी। छूट गया संसार पर नहीं छूटा संसार से प्यार।
सफर को रोक कर जो 'स्थिर चित्त' हो जाता है भगवान कृष्ण ऐसे व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ कहते हैं। योगियों में स्थितप्रज्ञ श्रेष्ठ है। यही सिद्ध कहलाता है लेकिन जिसे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है उसे जैनधर्मी अरिहंत कहते हैं। अरिहंतों को नमस्कार। अरिहंत तो बहुत हुए उसी तरह जिस तरह की बुद्ध और भगवान भी बहुत हुए, लेकिन कुछ को ही हम जानते हैं। उनमें से एक हैं ओशो रजनीश।
ओशो का जन्म 11 दिसम्बर 1931 को भारत के मध्यप्रदेश राज्य के जबलपुर-सागर शहर के पास गाडरवाड़ा में हुआ था। ओशो ने दुनिया के सभी धर्मों की व्याख्या की। लेकिन धर्म से ज्यादा उन्होंने जीवन से संबंधित प्रत्येक विषयों के ज्ञान, विज्ञान और मनोविज्ञान का खुलासा किया।
धर्म, देश, राजनीति, समाज आदि के पाखंड पर चोट करने के कारण सभी उनके विरोधी बन गए थे। ओशो ने नव-संन्यास और नए समाज की रचना की जिसके कारण भी उन्हें बहुतों की आलोचना का शिकार होना पड़ा। लेकिन वे खुद एक शिकारी थे इसीलिए दुनिया के सभी तरह की विचारधाराओं का शिकार करके चले गए।
ओशो कहते हैं कि दुनिया विचारधाराओं और अनुयायियों की वजह से बेहाल है इसलिए तुम मेरी बातों से प्रभावित होकर मेरा अनुयायी मत बनना अन्यथा एक नए तरीके की बेवकूफी शुरू हो जाएगी। मैं जो कह रहा हूँ उसका अनुसरण मत करने लग जाना। खुद जानना की सत्य क्या है और जब जान लो की सत्य यह है तो इतना कर सको तो करना कि मेरे गवाह बन जाना। इसके लिए भी कोई आग्रह नहीं है।
यदि आज भी सूली देना प्रचलन में होता तो निश्चित ही ओशो को सूली पर लटका दिया जाता लेकिन अमेरिका ऐसा नहीं कर सकता था इसलिए उसने ओशो को थेलिसियम का एक इंजेक्शन लगाया जिसकी वजह से 19 जनवरी, 1990 में ओशो ने देह छोड़ दी।