अमेरिका-रूस की तनातनी में पुनः उभरते परमाणु होड़ के खतरे

शरद सिंगी

रविवार, 28 अक्टूबर 2018 (13:40 IST)
इसमें संदेह नहीं कि विश्व की व्यवस्था मानव सभ्यता के विकास के लिए पूरी तरह अनुकूल नहीं रही है। अपने छोटे से जीवनकाल में मानव सभ्यता ने अनेक प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाएं देखी हैं। प्राकृतिक आपदाओं पर तो मनुष्य का वश नहीं है किंतु मानव निर्मित आपदाओं की बात करें तो हमने असंख्य भीषण युद्धों और निर्दयी तानशाहों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने मानव सभ्यता के इतिहास को रक्त रंजित बनाया। इन सबके पीछे मात्र कुछ ही कारण थे। विश्व विजेता बनने का सपना, धन-संपत्ति की लूट, धार्मिक कट्टरपन, विचारधाराओं का टकराव, अहंकार इत्यादि। करोड़ों लोगों को कुछ लोगों की सनक की वजह से जान गंवानी पड़ी।
 
 
यदि ये युद्ध नहीं होते तो शायद दुनिया का चेहरा भिन्न होता। इन निरंतर होते युद्धों से थोड़ी शांति तब मिली जब 1945 में दुनिया दो हिस्सों में बंटी और महशक्तियों के बीच थोड़ा शक्ति-संतुलन स्थापित हुआ। युद्ध न हो इसके लिए रूस और अमेरिका एक-दूसरे के सामने पांच दशकों तक परमाणु बम का बटन हाथ में रखते हुए आंखों में आंख डाले खड़े रहे। यह शीतयुद्ध का कालखंड था। दुनिया इतने दशकों तक परमाणु बम के खतरे पर बैठी रही परंतु शुक्र है कि कोई हादसा नहीं हुआ अन्यथा पृथ्वी से मानवता ही समाप्त हो जाती। समय समय पर कुछ महान हस्तियों ने अपनी दूरदृष्टि से दुनिया को सही मोड़ देने का प्रयास किया और उनके न्यायोचित निर्णयों से मानव जीवन आगे बढ़ता गया।
 
ऐसा ही एक निर्णय लिया था सन् 1987 में तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव और अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने। दोनों ने माध्यम दूरी के परमाणु आयुधों का विस्तार रोकने के लिए एक (आईएनएफ) संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके अनुसार 500 से 5,500 किमी के बीच की सीमा में पृथ्वी की सतह से छोड़ी जाने वाली मध्यम दूरी की मिसाइलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। यह निर्णय परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में एक मील का पत्थर था। 
 
 
गोर्बाचेव के इस प्रयास को विश्व में बहुत सराहना मिली और उन्हें नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उसके बाद तो पिछले तीन दशकों में अमेरिका और रूस ने अपने परमाणु शस्त्रागारों को सीमित करने तथा कम करने के लिए अनेक संयुक्त समझौतों पर हस्ताक्षर किए। विश्व ने चैन की सांस ली ही थी, किंतु जैसा हम जानते हैं मनुष्य की फितरत है कि वह किसी एक स्थिति में लंबे समय तक न तो रह सकता है और न ही किसी एक संधि में वर्षों तक बंध सकता है। 
 
रूस द्वारा चोरी-छुपे इस संधि के उल्लंघन की खबरें आने लगी थीं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने इसका संज्ञान लेकर पिछले सप्ताह 1987 में की गई निरस्त्रीकरण संधि से बाहर निकलने की धमकी दे डाली। ट्रम्प ने आरोप लगाया कि रूस 'कई वर्षों से इस संधि का उल्लंघन कर रहा है।' उधर रूस ने इस आरोप को खारिज करते हुए ट्रम्प के बयान की आलोचना की है और अपनी ओर से भी उचित कदम उठाने की धमकी दे दी है। जर्मनी, अमेरिका के इस कदम की आलोचना करने वाला पहला अमेरिकी सहयोगी देश था। 
 
पूर्व सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव, जो अभी जीवित हैं, ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की इस महत्वपूर्ण परमाणु हथियार संधि से हट जाने के इरादे को हताशा भरा बताते हुए कहा कि ऐसे किसी भी कदम से परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयासों को एक बहुत बड़ा झटका लगेगा। इधर अमेरिका की परेशानी केवल रूस ही नहीं है। चीन की चिंता भी उसके सामने है क्योंकि चीन अभी तक किसी निरस्त्रीकरण संधि का हिस्सा नहीं है और वह अपने  परमाणु और अन्य परम्परागत हथियारों का जखीरा निरंतर बढ़ा रहा है। ऐसे में अमेरिका को चीन का तोड़ भी निकालना है। चीन की मारक क्षमता से कई गुना बेहतर अमेरिका की क्षमता होनी चाहिए यदि उसे दुनिया पर अपना वर्चस्व बनाए रखना है तो। 
 
जाहिर है दुनिया पुनः एक बार उस रेखा पर पहुंच चुकी है जहां से परमाणु हथियारों को बनाने की दौड़ शुरू होती है। या तो रूस और अमेरिका एक टेबल पर बैठकर चीन के साथ बात करें अन्यथा यह दौड़ पुनः आरंभ होने के पश्चात स्वयं उनके अतिरिक्त इन्हें कोई और ताकत रोक नहीं सकती और यदि ऐसा हुआ तो विश्व के नागरिकों को परमाणु युद्ध के भय में अपनी जिंदगी जीना पड़ेगी।

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