पिछले सप्ताह विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध पुनः जहर उगला। अमर्त्य कुमार सेन बंगाली मूल के एक भारतीय अर्थशास्त्री और दार्शनिक हैं। सन् 1972 के पश्चात उनकी कार्यभूमि इंग्लैंड और अमेरिका रही, जहां उन्होंने काम किया और साथ ही विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में प्रोफेसर भी रहे।
उन्होंने लोककल्याणकारी अर्थशास्त्र, आर्थिक और सामाजिक न्याय, अकाल के आर्थिक सिद्धांतों और विकासशील देशों के नागरिकों की खुशहाली को मापने के सूचकांक पर काम किया। सन 1998 में अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार और लोककल्याणकारी अर्थशास्त्र में उनके काम के लिए 1999 में उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था। समाज के सबसे गरीब सदस्यों की समस्याओं का अर्थशास्त्र समझने के लिए इंग्लैंड में भी उन्हें कई सम्मान मिले। उनके पास बांग्लादेश की मानद नागरिकता भी है।
अतः इसमें संदेह नहीं कि अमर्त्य सेन एक विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं, किंतु भारत के सन्दर्भ में वे विवादास्पद शख्सियत अधिक रहे। जब भी कोई शिक्षाविद अपने झुकाव अथवा व्यक्तिगत पसंद/नापसंद की वजह से अपने ज्ञान को राजनीतिक रंग देता है तो स्वयं ही वह अपने कद को छोटा करता है। फिर वह शिक्षाविद न रहकर राजा के दरबार में रहने वाले भांड की तरह हो जाता है।
सोनिया और राहुल के प्रति उनके झुकाव और मोदीजी के प्रति उनकी नापसंदगी को उन्होंने किसी से छुपाया नहीं है। व्यक्ति जितना बड़ा होता है उतना ही उसे झुकना भी आना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि शोध का न तो कोई धर्म होता है और न कोई रंग। साथ ही किसी विशेषज्ञ को मान्यता मिल जाने भर से उसे किसी दूसरे अर्थशास्त्री की आलोचना का अधिकार भी नहीं मिल जाता। यदि आर्थिक नीतियां गणित के फार्मूले की तरह परिणाम देतीं तो फिर दुनिया में गरीबी रहती ही क्यों? भारत को इतने वर्ष नहीं लगते अपनी मंज़िल पर पहुंचने के लिए।
कांग्रेस सरकार के समय अमर्त्य सेन को नालंदा विश्विद्यालय का कुलाधिपति बनाया गया था। नालंदा विश्विद्यालय की प्राचीन गरिमा को जीवित करने की तत्कालीन सरकार की सोच तो अच्छी थी किन्तु उसे गलत हाथों में देकर धन के दुरुपयोग के अतिरिक्त कुछ नहीं हुआ इसलिए क्षुब्ध होकर पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कुलाध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था।
डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी अमर्त्य सेन के कड़े आलोचक हैं और उनके अनुसार सेन ने नालंदा विश्विद्यालय को मिले सरकारी अनुदान के करोड़ों रुपए फिजूल खर्च किए। पचास लाख की सालाना तनख्वाह प्राप्त करने वाले सेन कभी-कभी ही नालंदा विश्विद्यालय को अपना मुंह दिखाते थे। डॉ. स्वामी तो उन पर क़ानूनी कार्यवाही की मांग भी करते हैं और आरोप लगाते हैं कि सेन ने अनुदान में मिले तीन हजार करोड़ का भारी दुरुपयोग किया।
अमर्त्य सेन तीन शादियां कर चुके हैं और उन्होंने अपने आपको नास्तिक घोषित कर रखा है। सन 2006 में अमर्त्य सेन ने इंग्लैंड में एक भाषण में कहा था कि यदि धर्म पर आधारित कोई स्कूल हो तो केवल ईसाई स्कूल होने चाहिए। क्योंकि वे स्वयं कोलकाता के सेंट जेवियर्स स्कूल से शिक्षित हैं और इसी स्कूल से पढ़े उनके मित्र अच्छे नागरिक हैं।
उनके इस तर्क के आधार पर वे चाहते हैं कि अन्य धर्मों के स्कूलों को बंद कर देना चाहिए। पिछले सप्ताह ये महाशय अपने इंटरव्यू में कहते हैं कि भारत के विकास के लिए 'हिंदुत्व' रोड़ा है। अब इनसे पूछिए कि हज़ारों वर्ष पुरानी संपन्न संस्कृति इन्हें विकास के मार्ग में रोड़ा कैसे लगती है? वही संस्कृति जिसने विश्व को नालंदा और तक्षशिला जैसी शिक्षण संस्थाएं दी थीं।
ऐसे आदमी के हाथों नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने का काम सौंपना बुद्धिमत्ता तो नहीं थी। कुलाधिपति का सरकारी पद पर होते हुए भी वे मोदी सरकार की आलोचना लगातार करते रहे। अतः दूसरी अवधि के नवीनीकरण के लिए मोदी सरकार की बेरुखी से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
इस तरह हमने देखा कि अमर्त्य सेन ने धर्म और राजनीति के चिल्लर विवादों में पड़कर अपने कद को स्वयं ही नुकसान पहुंचाया है। भारत के संदर्भ में उनका योगदान नकारात्मक रहा बावजूद इसके कि उन्हें भारत सरकार ने 'भारत रत्न' से सम्मानित किया था।
इनका नाम इतिहास में दर्ज उन लोगों में शुमार होगा जो विद्वान् तो थे किन्तु अपनी विद्वता का उपयोग समाज के हित में नहीं किया। ओछी लोकप्रियता पाने और चर्चा में बने रहने के लिए मीडिया का उपयोग अधिक किया। समझ में नहीं आता कि भारत रत्न पाने के बाद भी इन्हें भारत के सपूतों की श्रेणी में रखा भी जाएगा कि नहीं।