क्या कुछ हासिल होगा कश्मीर वार्ता से?

कश्मीर अगर शांत हो जाए तो भारत के कलेजे में चुभता हुआ शूल हमेशा के लिए बाहर निकल जाएगा। हर भारतवासी चाहता है कि कश्मीर में शांति और स्थिरता कायम हो, वह अन्य राज्यों की तरह एक सामान्य राज्य बने। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जब कश्मीर में सभी पक्षों से बातचीत की घोषणा करते हुए खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त किया तो उनके कथनों के सार भी यही था।
 
दिनेश्वर शर्मा कश्मीर में काम कर चुके हैं और नई दिल्ली में खुफिया ब्यूरो के कश्मीर डेस्क पर भी रहे हैं। इस नाते कहा जा सकता है कि कश्मीर के संदर्भ में उनके पास वैसी जानकारियों होंगी, जो हमारे-आपके पास नहीं हैं। वे इस समय असम के अलगाववादियों से बातचीत कर रहे हैं। दिनेश्वर शर्मा ने कहा भी कि उम्मीद है कि उन्हें जो जिम्मेवारी मिली है उस पर वे खरे उतरेंगे। उनके अनुसार कश्मीर में शांति बहाली उनका मुख्य उद्देश्य होगा। हम भी यही कामना करेंगे कि वे सफल हों।
 
लेकिन क्या वाकई कश्मीर इस स्थिति में है कि किसी वार्ताकार के साथ बातचीत करने से वहां स्थिति में सुधार आ जाएगा? आखिर इसके पहले भी हमने बातचीत के प्रयास देखे हैं और कश्मीर आज तक अशांत है। इस आधार पर यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि जब वार्ता से पहले मामला हल नहीं हुआ तो आगे कैसे होगा?
 
वास्तव में अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में केसी पंत व अरुण जेटली को पहले वार्ताकार नियुक्त किया गया था। उसके बाद एनएन वोहरा वार्ताकार नियुक्त हुए थे। हुर्रियत नेताओं से आडवाणी एवं वाजपेयी ने भेंट की थी। पाकिस्तान के साथ अलग बातचीत हो रही थी। रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत को प्रधानमंत्री कार्यालय में विशेष तौर पर कश्मीर के लिए ही नियुक्त किया गया था। उस समय ऐसा माहौल बना था, मानो अब कश्मीर समस्या का समाधान हो ही जाएगा।
 
सच कहा जाए तो वाजपेयी से ज्यादा किसी प्रधानमंत्री ने स्वयं कश्मीर समस्या के समाधान का प्रयास नहीं किया था। परिणाम क्या हुआ? आज हमारे सामने है। उसके बाद  यूपीए सरकार में भी 2 बार इसके प्रयास हुए। 2007 तथा फिर 2010 में। 2010 में दिलीप पाडगांवकर, एमएन अंसारी तथा राधा कुमार को वार्ताकार नियुक्त किया गया। इन्होंने 22 जिलों में 600 प्रतिनिधियों से मुलाकात की। 3 बार गोलमेज वार्ता भी की गई। अंत में 2011 में इस समिति ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी।
 
इस समिति ने रिपोर्ट में ऐसी बात कह दी जिसको स्वीकार करना देश की किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं था। मसलन, कश्मीर से सेना को धीरे-धीरे कम किया जाए, मानवाधिकार उल्लंघन के मामले पर तुरत ध्यान दिया जाए, विशेष सैन्य बल कानून यानी अफस्पा की समीक्षा की जाए तथा अशांत क्षेत्र कानून को खत्म कर दिया जाए आदि। ऐसा लगा यह रिपोर्ट नहीं, बल्कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे अलगाववादियों तथा पाकिस्तान की मांग को प्रस्तुत किया जा रहा है। जाहिर है, इस रिपोर्ट को सरकार को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा।
 
तो अतीत निराशाजनक है। किंतु यह सोचना ठीक नहीं होगा कि जो कुछ पहले नहीं हुआ वह आगे नहीं हो सकता। वाजपेयी सरकार यदि 2004 में सत्ता से बाहर नहीं होती तो शायद प्रयास और सघन होता और हो सकता था कुछ परिणाम भी आ जाता। यूपीए में ऐसे लोगों को वार्ताकार ही बनाया गया जिनकी सोच कश्मीर के बारे में देश की मुख्य धारा से अलग थी। ऐसे लोगों का चयन भूल थी।
 
उम्मीद करनी चाहिए कि खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक होने तथा जम्मू-कश्मीर के अंदरुनी हालातों से ही नहीं, वहां के नेताओं के बारे में खुफिया रिपोर्टों से अच्छी तरह वाकिफ दिनेश्वर शर्मा ज्यादा व्यावहारिक रवैये अपनाएंगे। सरकार ने वार्ता की शुरुआत लंबे अनुभवों के बाद की है। हालांकि इसके संकेत मिल रहे थे।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त 2017 को लाल किले की प्राचीर से कहा था कि कश्मीर का समाधान न गोली से होगा, न गाली से बल्कि गले लगाने से होगा। यह एक तुकबंदी जैसी थी जिसकी आलोचना भी हुई। लेकिन उसमें यह संदेश था कि वे ऐसे लोगों से बातचीत को तैयार हैं, जो कश्मीर समस्या का वाकई न्यायिक समाधान चाहते हैं।
 
राजनाथ सिंह ने पिछले वर्ष 8 जुलाई को आतंकवादी बुरहानी वानी के मारे जाने के बाद 5 बार कश्मीर का दौरा किया। पिछले सितंबर में भी अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अलग-अलग प्रतिनिधिमंडलों से बातचीत की। इन सब बातचीत का निष्कर्ष यही था कि इसके लिए किसी विशेष व्यक्ति को नियुक्त किया जाए, जो कि सतत समग्र वार्ता करे तथा उसके आधार पर अपनी रिपोर्ट केंद्र एवं प्रदेश सरकार को दे।
 
कम से कम अभी तक का निष्कर्ष यही है कि सरकार ने भावुकता में आकर ऐसा निर्णय नहीं किया है। मोदी सरकार की कश्मीर नीति में उतार-चढ़ाव रहे हैं, कठोरता और नरमी दिखाई दी है, किंतु आप यह नहीं कह सकते कि अनावश्यक भावुकता का कभी वह शिकार हुई है। एक बार कह दिया कि हुर्रियत से बातचीत नहीं करेंगे तो अभी तक नहीं किया गया।
 
यही नहीं, पाकिस्तान ने जब हुर्रियत को महत्व देना आरंभ कर दिया तो पाकिस्तान के साथ बातचीत रद्द कर दी गई। इतने कठोर रुख का प्रदर्शन इसके पूर्व किसी सरकार ने नहीं किया था। हालांकि राजनाथ सिंह से जब पूछा गया कि क्या हुर्रियत से भी बातचीत होगी? तो उन्होंने कहा कि किससे बातचीत करनी है, इसका फैसला दिनेश्वर शर्मा ही करेंगे। यानी उन्होंने इससे इंकार नहीं किया। तो यहां अभी थोड़ा अनिश्चय बना हुआ है। देखते हैं क्या होता है। किंतु कुछ परिस्थितियों पर ध्यान दीजिए।
 
सरकार ने आतंकवादियों की पूर्ण सफाई का अभियान चलाया हुआ है। 1 वर्ष में करीब 165 आतंकवादी मारे गए हैं। यह एक रिकॉर्ड है। एक-एक क्षेत्र की घेरकर सफाई की जा रही है। इस समय शोपियां में सफाई अभियान चल रहा है। लंबे समय बाद हुआ है, जब सेना और अर्द्धसैनिक बलों के साथ स्थानीय पुलिस का इतना अच्छा समन्वय बना है। इसका असर हुआ है और पाकिस्तान की कश्मीर को 1990 के दशक में ले जाने की रणनीति सफल नहीं हुई। भारी संख्या में उसने आतंकवादी भेजे हैं जिन्होंने हमले भी खूब किए हैं, पर उनका काम तमाम भी उसी अनुपात में हो रहा है। दूसरे, यह पहली बार हुआ है, जब अलगाववादी नेताओं के खिलाफ आतंकवाद को वित्तपोषण करने के मामले में मुकदमा दर्ज हुआ एवं वे गिरफ्तार किए गए हैं। राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए इसकी जांच कर रही है। हुर्रियत नेताओं पर पहली बार इससे दबाव बढ़ा है और उनके अंदर यह भय कायम हुआ है कि कभी भी कोई गंभीर मामले में गिरफ्तार हो सकता है। ये स्थितियां पहले की वार्ताओं के पूर्व नहीं थीं।
 
जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक ने पिछले दिनों कहा था कि सुरक्षा बलों ने अपना काम कर दिया है, अब सरकार को अपना काम करना चाहिए। इसका असर बचे हुए हुर्रियत नेताओं पर हुआ होगा। वे इस समय मनोवैज्ञानिक दबाव में हैं। हालांकि व्यावहारिक पहलू तो यही है कि हुर्रियत के नेता हमारे देश को तोड़ने की बात करते हैं, वे कश्मीर के भारत से अलग होने के हिमायती हैं और उनका विचार बदल नहीं रहा इसलिए उनसे बातचीत करने का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन उनको इतना तो बताया ही जा सकता है कि आप या तो 'सुधर' जाएं, पाकिस्तानपरस्ती छोड़ें नहीं तो फिर आपके खिलाफ भी 'कार्रवाई' की जाएगी।
 
देश की एकता के लिए केवल नरम रवैये से काम नहीं चलता, कठोर रुख भी समय की मांग होती है और दबाव बनाकर भी कुछ लोगों को रास्ते पर लाए जाने की रणनीति फलदायी होती है। इस तरीके से हुर्रियत के साथ बात करने में कोई समस्या नहीं है। तो देखते हैं क्या होता है? हमें विश्वास है कि सरकार ने भारतीय संविधान के अंतर्गत बातचीत की जो नीति बनाई है, उस पर वह कायम रहेगी।
 
अलगाववादियों को छोड़कर अगर किसी को सरकार से कोई शिकायत है और वह वाजिब है तो उसे स्वीकारने या उसमें सुधार करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। कश्मीर को हम घाटी तक सीमित मान लेते हैं, जबकि इसके अन्य क्षेत्र भी हैं। जम्मू और लद्दाख भी इसमें हैं। उनके प्रतिनिधियों से बातचीत होगी। कश्मीरी पंडितों से होगी। कश्मीरी पंडितों का मसला 27 सालों से लटका हुआ है। कश्मीर में ही 5-6 जिलों को छोड़ दें तो बाकी लोग शांति से जीने के हिमायती हैं। बातचीत में उनको भी महत्व दिया जाए। 1947 में पाकिस्तान से आए और अब तक जम्मू-कश्मीर के नागरिक न बनाए गए लोगों से भी बातचीत होनी चाहिए।
 
जो लोग अभी भी तर्क दे रहे हैं कि बिना पाकिस्तान को शामिल किए बातचीत का कोई अर्थ नहीं, उनको बोलने दीजिए। पाकिस्तान न पहले बदला है और न ही निकट भविष्य में उसके बदलने की कोई उम्मीद ही है। हम अपने घर को पहले ठीक करें और वार्ता से इसमें मदद मिल सकती है तो उसे आजमाने में कोई हर्ज नहीं है।

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