कितना किसान हितैषी है भूमि अधिग्रहण अध्यादेश

युवा किसान संघर्ष संघ, इंदौर ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, लोकसभा की स्पीकर सुमित्रा महाजन, सभी लोकसभा सदस्यों, सभी राजनीतिक दलों और देश के किसान संघों से मांग की है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश क्रमांक 9 दमनकारी है क्योंकि यह किसानों के मानवीय, वैधानिक और संवैधानिक अधिकारों का दमन करता है, इसलिए इसे वापस लिया जाए। 
संघ का कहना है कि इसमें किसान हितैषी प्रावधानों को समाप्त कर दिया गया है और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश क्र. 9-2014 अवैधानिक और गैर-कानूनी तरीके से उद्योगपतियों, व्यापारियों, कारोबारी समूहों और कॉलोनाइरों को लाभ पहुंचाने वाला है, इसलिए इसे तुरंत वापस लिया जाए। विदित हो कि विपक्ष के दबाव के चलते मूमि अधिग्रहण अध्यादेश में सरकार ने नौ संशोधन किए हैं और मंगलवार को इसे लोकसभा से पारित करवा लिया। हालांकि सरकार ने विपक्ष के संशोधन के 52 सुझावों के स्थान पर केवल 9 को ही तरजीह दी है। इसके साथ ही सामाजिक प्रभाव का आकलन करने और सत्तर फीसदी किसानों की सहमति जैसे सुझावों को नहीं माना है।     
 
संघ का मानना है कि ब्रिटिश साम्राज्य काल के भूमि अधिग्रहण कानूनों में सार्वजनिक और निजी उद्देश्यों के लिए किए जाने वाले अधिग्रहण में अंतर किया गया था और इनके तरीकों में भी भेद था लेकिन नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में सार्वजनिक और निजी उद्देश्य के बंधन और अंतर को हटा दिया गया है जिसके चलते शासन के जरिए बहुत ही कम दामों पर भूमि को अधिग्रहीत किया जा सके। पर अब निजी उद्देश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण न करने की मांग मान ली गई है।  
 
इस प्रकार के अधिग्रहण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण परियोजनाओं, देश की सुरक्षा, सुरक्षा की तैयारी या सुरक्षा उत्पादन प्रावधानों से मुक्त होंगे। पर ग्रामीण अधोसंचरना संबंधी परियोजनाएं इसमें शामिल नहीं की जाएंगी। लेकिन कम कीमत के आवास, मकान की परियोजनाएं सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल रहेंगी। इस बिल में औद्योगिक कॉरिडोर की परिभाषा तय कर दी गई। अधोसंरचना और सोशल इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं, जिनमें पीपीपी परियोजनाएं भी शामिल हैं, के लिए भूमि अधिग्रहण पर रोक लगाई जाएगी।  
 
भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के अध्याय 2 और 3 सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन के लिए जनसुनवाई, इसका परीक्षण एवं शासन द्वारा सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट रिपोर्ट हेतु अध्याय 3 के तहत खाद्य सुरक्षा के संरक्षण का प्रावधान करते हैं। इस मामले पर सरकार ने कोई सुझाव नहीं माना। अध्यादेश 9 के चरण 2 और 3 में जोड़े गए संशोधनों से स्पष्ट है कि निजी निकाय को भी 'सार्वजनिक उद्देश्य' के समकक्ष कर दिया गया है, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। भूमि अधिनियम कानून 2013 की धारा 10-ए में सूचीबद्ध परियोजनाओं, राष्ट्रीय सुरक्षा-भारत की सुरक्षा, रक्षा तैयारी, रक्षा उत्पादन, ग्रामीण विद्युतीकरण को अध्याय 2 और 3 के प्रावधान लागू होने में छूट का प्रावधान पहले से ही किया गया है। 
 
पर इस अध्यादेश का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह था कि सर्वोच्च महत्व की परियोजनाओं को निजी होटलों, अस्पतालों व निजी शैक्षणिक संस्थानों के समकक्ष रखा गया है। ये अध्याय 2 व 3 के अंतर्गत लागू प्रावधानों से छूट प्रदान करते हैं। इस तरह ‍निजी व्यावसायिक प्रयोजनों और राष्ट्रीय सुरक्षा को समान रूप से मान्यता देना भूमि स्वामियों के अधिकारों का हनन है। अध्याय 2 और 3 के प्रावधानों को लागू होने से छूट देने के लिए धारा 10-ए जोड़ी गई है। पर सामाजिक ढांचागत परियोजनाओं, निजी स्कूलों और अस्पतालों के लिए जमीन अधिग्रहीत नहीं की जाएगी। यह अधिनियम भूमि की वास्तविक आवश्यकता, सामाजिक-आर्थिक प्रभाव के मू्ल्यांकन को रोकता है। इसे न्यायोचित नहीं माना जा सकता है।
 
अध्यादेश क्र. 9, नए भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 की धारा 24(2) के प्रावधान भी हटाता है। इसमें कहा गया है कि अवार्ड पारित होने के दिनांक से 5 वर्ष की अवधि में यदि क्षतिपूर्ति, मुआवजा नहीं दिया गया या अवार्ड देने की तिथि से 5 वर्ष की अवधि में भूमि का कब्जा नहीं लिया गया तो भूमि अधिग्रहण की कार्यवाहियां समाप्त मानी जाएंगी। यह प्रावधान किसानों, भूस्वामियों को संसद द्वारा पारित कानून के लाभ और वैधानिक अधिकारों को हटा देता है। अब बिल के संशोधित मसौदे में विस्थापित परिवार को नौकरी और कोर्ट में अपील करने का भी अधिकार देने की बात कही गई है।   
 
इसलिए किसान और भूस्वाभी अनुभव करते हैं कि 2013 का यह अध्यादेश मानवीय, वैधानिक और संवैधानिक अधिकारों का दमन करता है। इसलिए यह अध्यादेश वापस लिया जाए और यदि इसे संसद के सामने रखा जाए तो इसमें वांछित परिवर्तन किए जाएं, लेकिन सरकार ने विवादित भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक में नौ बदलाव किए हैं। इसके तहत भू अधिग्रहण से प्रभावित परिवारों और कृषि श्रमिकों के एक परिजन को नौकरी देना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके साथ ही, सरकार ने औद्योगिक कॉरिडोर की परिभाषा तय करते हुए कहा है कि कॉरिडोर के लिए सड़क या रेल मार्ग के दोनों ओर एक किमी तक ही भूमि का अधिग्रहण होगा।  
 
संशोधनों में यह बात भी शामि‍ल है कि सामाजिक ढांचागत परियोजनाओं के लिए सरकार जमीन अधिग्रहीत नहीं करेगी। साथ ही, निजी स्कूलों और अस्पतालों के लिए भी भूमि का अधिग्रहण नहीं होगा। सरकार सिर्फ सरकारी संस्थाओं, निगमों के लिए भूमि का अधिग्रहण करेगी। सरकार की ओर से मुआवजा एक निर्धारित खाते में जमा कराना होगा और नए कानूनों के तहत दोषी अफसरों पर अदालत में कार्रवाई हो सकेगी। किसानों को अपने जिले में शिकायत या अपील करने का अधिकार होगा। परियोजनाओं के लिए बंजर जमीनों का ही अधिग्रहण किया जाएगा।      
 
इस बिल को पास करवाते समय सरकार ने सामाजिक प्रभाव का आकलन करने संबंधी सुझाव को नहीं माना। साथ ही, 70 फीसदी किसानों की सहमति की भी अनिवार्यता नहीं होगी। उल्लेखनीय है कि विपक्ष‍ी दलों ने बिल में संशोधन के लिए 52 सु्झाव दिए थे लेकिन लोकसभा में इन्हें खारिज कर दिया गया। अब इस बिल को राज्यसभा से पास कराना सरकार के लिए चुनौती होगी। यदि चार अप्रैल तक संशोधित अध्यादेश या बिल, कानून (एक्ट) की शक्ल नहीं ले पाता है तो अध्यादेश रद्द हो जाएगा और इसके बाद सरकार जिन अन्य अध्यादेशों को पास कराने के बारे में सोच रही है, उन्हें पास कराना भी मुश्किल हो जाएगा। अगर बिल राज्यसभा में अस्वीकार हो जाता है तो सरकार संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर बिल पास कराने की कोशिश कर सकती है। 
 
पर विपक्ष भूमि अधिग्रहण बिल को राज्यसभा की सेलेक्ट कमेटी को भेजने के पक्ष में है। विपक्ष का कहना है कि सरकार ने यूपीए के भूमि अधिग्रहण कानून को लागू ही नहीं किया और तुरंत एक अध्यादेश ले आई। यदि इस कानून के गुण-दोषों का पता ही नहीं चला तो इसमें कैसा संशोधन? यदि यह कानून चार-पांच साल पुराना होता तो शायद यह पता चल सकता था कि यूपीए के कानून से जमीन अधिग्रहण में दिक्कत हो रही है।
 
विपक्ष भाजपा को यह भी याद दिला रहा है कि इसी पार्टी ने यूपीए के बिल को पास करने में सरकार के पक्ष में वोट किया था, तो अब साल भर के अंदर ऐसा क्या हो गया कि यह कानून खराब दिखने लगा? विपक्ष का आरोप है कि सरकार पर औद्योगिक  घरानों के पक्ष में काम कर रहा है।
 
सरकार की मुश्किल यह है कि राज्यसभा में यह बिल पहले से ही मौजूद है और लोकसभा से पारित बिल को राज्यसभा में लाने के लिए पहले पुराने बिल को वापिस लेना होगा, जो विपक्ष करने नहीं दे रहा। यदि वोटिंग की नौबत आई तो सरकार हार जाएगी। ऐसे में सरकार के पास विकल्प काफी कम हैं, क्योंकि ज्वाइंट सेशन बुलाने के लिए यह जरूरी है कि राज्यसभा भूमि अधिग्रहण बिल को पास न करे, मगर यह भी संभव नहीं हो पा रहा है।
 
राज्यसभा में जो बिल है, यदि सरकार उसे वापिस नहीं ले पाती है, तो वह छह महीने में अपने आप निष्क्रिय हो जाएगा। सरकार ऐसी हालत में ही लोकसभा और राज्यसभा का साझा सत्र बुला पाएगी यानि सरकार का मौजूदा भूमि अधिग्रहण बिल कम से कम  छह महीने के लिए लटक जा सकता है। 

वेबदुनिया पर पढ़ें