बिना नकदी नहीं चलती भाई दुनिया…

क्या बिना नकदी के लेनदेन संभव है..? इसका जवाब दुनिया के किसी भी कोने की अर्थव्यवस्था में ढूंढने से भी नहीं मिलता। यह बात अलग है कि अंडमान द्वीप समूह के उत्तरीय सेंटीनेल द्वीप में रहने वाले आदिवासी या अमेजान के जंगलों में रहने वाले कबीले जरूर किसी तरह की मुद्रा का इस्तेमाल नहीं करते, तो क्या हम भी उसी युग में पहुंच जाएं..? 
 
अभी कैशलेस सोसायटी का बड़ा हल्ला मोदी सरकार द्वारा मचाया जा रहा है। अब सरकार भी बेचारी क्या करे, उसने भ्रष्टाचार और कालेधन के साथ आतंकवाद के नाम पर जनता को कतार में खड़ा कर दिया और पिछले दरवाजे से कालाधन परवारे सफेद भी होता गया। अब कतार में खड़ी जनता को कैशलेस की घुट्टी पिलाई जा रही है। दुनियाभर में जितने भी विकसित देश हैं वहां भी नोट यानि मुद्रा में बड़ा लेनदेन होता है। बिना नकदी के दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती। जब राज व्यवस्थाएं थीं तब भी सीप से लेकर कौड़ियों का इस्तेमाल विनिमय के लिए होता था, इसीलिए पैसे के साथ आज तक कौड़ी शब्द का इस्तेमाल होता है। 
 
जब कागज के साथ ये वायदा या गारंटी जुड़ गई कि उसे सोने के बदले भी विनिमय किया जा सकता है, तो वह कागज का टुकड़ा सबसे अधिक उपयोगी हो गया, जिसे हम नोट कहते हैं। पहले सरकारें अपने खजाने में रखे सोने के मूल्य के बराबर ही नोट छापती थीं, लेकिन बाद में लागत और मुनाफे की अवधारणा आ गई। उदाहरण के लिए 500 रुपए का एक नोट छापने की लागत एक रुपए आती है, तो वह देश उस तरह के 499 नोट और छाप लेता है। कागज के नोट जहां लेनदेन में आसान हुए वहीं दुनियाभर में मान्य भी हो गए, चाहे वह रूबल हो या डॉलर। दुनिया घूमने वाले भी उसी करंसी यानि नकदी में लेनदेन करते हैं और एक अजनबी के साथ भी मुद्रा के रूप में ही आसानी से लेनदेन हो जाता है। 
 
कागजी नोट के इस्तेमाल में न तो आपको मोबाइल की जरूरत है, न ही इंटरनेट कनेक्शन की। दुनिया में सबसे अधिक कानून का पालन जापान में किया जाता है। वहां भी जीडीपी अनुपात की 18 प्रतिशत नकद मुद्रा चलन में रहती है, जबकि भारत में जीडीपी अनुपात का 13 प्रतिशत ही। जर्मनी में 80 फीसदी लेनदेन नकदी होता है। यहां तक कि हांगकांग, रूस और दुनिया का चौधरी अमेरिका भी अपनी जीडीपी में 7.7 प्रतिशत नकदी का इस्तेमाल करता है। मजे की बात यह है कि अभी सरकार चलाने वाले जनता को उपदेश देते हुए विदेशों से कैशलेस की तुलना कर रहे हैं, लेकिन मैदानी हकीकत नहीं बताते। 
 
दुनिया के तमाम विकसित देशों की तुलना में भारत में बैंक शाखाओं से लेकर एटीएम और पीओएस मशीनें सबसे कम हैं। प्रति 10 लाख लोगों पर जहां अमेरिका में 360 बैंक शाखाएं हैं, तो ब्राजील जैसे छोटे देश में 938 और हांगकांग में 217, तो अभी ऑस्ट्रेलिया, जिसने बड़ा नोट बंद किया, वहां भी 269 बैंक शाखाएं हैं, जबकि भारत में मात्र 108। यही हाल एटीएम का है, अमेरिका में प्रति 10 लाख लोगों पर 1336 एटीएम हैं, तो रूस में सबसे ज्यादा 1537 और चीन में 450, तो भारत में मात्र 149 हैं। अभी पीओएस यानि स्वाइप मशीनों की बड़ी मांग चल रही है। इस मामले में भी भारत दुनिया के तमाम देशों की तुलना में फिसड्डी है। अमेरिका में 10 लाख लोगों पर सर्वाधिक 43711 पीओएस मशीनें हैं, तो भारत में सबसे कम मात्र 889 ही हैं। 
 
इसके अलावा साइबर सुरक्षा सहित टेलीफोन, मोबाइल फोन से लेकर इंटरनेट की भारत में क्या स्थिति है यह बताने की जरूरत नहीं। जो मंत्री कॉल ड्रॉप की समस्या दूर करने में फेल रहा, उस मंत्री को आज कैशलेस पर ज्ञान बांटने का जिम्मा दिया गया है। फिलहाल तो बिना नकदी वाले भारत का ढोल पीटने वाले जिम्मेदार या तो कल्पना लोक में विचरण कर रहे हैं या उन्हें जमीनी हकीकत ही पता नहीं है… खुदा खैर करे!

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