राष्ट्रपति चुनाव के बहाने ईरान में उदारवाद और कट्टरवाद का संघर्ष

शरद सिंगी
दो सप्ताह पहले इस लेखक ने फ्रांस में उदारवादी नेता मैक्रोन के अगले राष्ट्रपति निर्वाचित होने की संभावना व्यक्त की थी और वही निर्वाचित हुए भी। इस जीत के बाद लगा कि दुनिया में जो इस समय कठोर राष्ट्रवाद की आंधी चल रही है उसने थोड़ा विश्राम लिया है। ब्रिटेन में ब्रेक्सिट और अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रम्प के चुनावों के समय राष्ट्रवाद की यह आंधी अपनी पूरी तीव्रता पर थी। मेक्रोन की इस जीत का आशय विशेषज्ञ अपने अपने तरीके से समझा रहे हैं। कुछ कहते हैं कि दुनिया में यकायक जो राष्ट्रवाद का एक ज्वार आया था शायद अब पुनः पीछे जा रहा है तो कुछ का मानना है कि फ्रांस में मेक्रोन की जीत मात्र एक अपवाद सिद्ध हो सकती है, किंतु एक चुनाव के परिणाम से हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। इस वर्ष तीन और महत्वपूर्ण चुनाव होना शेष हैं। मई में ईरान, जून में इंग्लैंड और फिर सितंबर में जर्मनी में चुनाव होने हैं। इन तीनों के परिणाम ही विश्व के आने वाले समय की धारा की दिशा को निश्चित करेंगे। इन चुनावों के नतीजों के बाद ही हमें कुछ संकेत मिलेंगे कि विश्व की जनता की सोच का रुख इस समय किस ओर है। 
 
ईरान के राष्ट्रपति के चुनाव 19 मई को हैं। जाहिर है विश्व की आंख अब फ्रांस से हटकर ईरान पर लग गई है। अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा आरोपित आर्थिक प्रतिबंधों से ईरान की बर्बाद हुई अर्थव्यवस्था और बदतर हुए अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बीच चार वर्षों पूर्व हमने उदारवादी नेता हसन रूहानी के राष्ट्रपति बनने के पश्चात् आशा जताई थी कि ईरान के पश्चिमी देशों के साथ परमाणु समझौते के आसार बढ़ेंगे और दुनिया की मुख्यधारा से विलग हुआ ईरान पुनः मुख्यधारा से जुड़ेगा। परमाणु समझौता भी हुआ और ईरान पर से आंशिक आर्थिक प्रतिबंध भी उठे। वर्षों की कश्मकश के बाद पश्चिमी देशों और ईरान के बीच चल रहे गतिरोध के समाप्त होने के संकेत मिलने लगे थे और ईरान एक बार फिर विश्व की मुख्यधारा में शामिल होता नज़र आने लगा था, किंतु अग्रलिखित कारणों से पुनः एक ठहराव आया और ईरान परमाणु करार से होने वाले लाभों से वंचित रहा। 
 
ईरान में एक पार्टी तंत्र है, विपक्षी दल नहीं है और संसद में रूढ़िवादी कट्टरपंथियों का बोलबाला है। रूढ़िवादियों के बीच रास्ता बनाना राष्ट्रपति रूहानी जैसे सुधारवादियों के लिए हर कदम पर चुनौती बना रहा। रूहानी के साथ जनता की ताकत तो है किंतु  ईरान के प्रशासन पर रूढ़िवादियों की और सेना पर कट्टरपंथियों की पकड़ ढीली नहीं हुई और उन्होंने हसन रूहानी के निर्णयों में अनेक अवरोध डाल दिए। नतीजा यह हुआ कि परमाणु समझौते से जो लाभ ईरान को मिलने थे वे नहीं मिल सके। उलटे कट्टरपंथियों को अमेरिका के साथ परमाणु समझौता रास नहीं आया और उन्होंने अमेरिका की मंशा के विरुद्ध यमन, सीरिया और लेबनान स्थित अपने उग्रवादी संगठनों को समर्थन और सहयोग बढ़ा दिया। 
 
इस माह में होने वाले चुनावों में हसन रूहानी अपनी सुधारवादी छवि लेकर पुनः मैदान में हैं वहीं कट्टरपंथी और राष्ट्रवादी उम्मीदवार भी मैदान में हैं। लड़ाई कांटे की मानी जा रही है। हसन रूहानी जीतते हैं तो आर्थिक और सामाजिक सुधार और आगे बढ़ने की उम्मीद है अन्यथा पहले की तरह ही अनेक प्रतिबंधों के साथ ईरान विश्व समाज से बाहर दिखता नज़र आएगा। इस चुनाव की एक रोचक बात यह है कि हसन रूहानी ने अपने ही एक समर्थक उपराष्ट्रपति इशाक जहांगीरी को अपने ही विरुद्ध खड़ा कर लिया है। ये भी एक सुधारवादी नेता हैं जो अच्छे वक्ता हैं और टेलीविज़न की बहसों में रूढ़िवादियों की जमकर खबर लेते हैं। कहते हैं कि उनकी उम्मीदवारी एक रणनीति के तहत है ताकि जनता को सुधारवादी नीतियों की ओर आकर्षित किया जा सके और तय है कि चुनाव से ठीक पहले वे हसन रूहानी के पक्ष में अपना नाम वापस ले लेंगे।   
 
भारत के लिए मित्र देश ईरान वाणिज्यिक और सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो चुका है विशेषकर अब जबकि उसके साथ चाबहार पोर्ट पर समझौता हो चुका है। जैसा हम पहले भी लिख चुके हैं, चाबहार पोर्ट में भारत की उपस्थिति से उसे अफगानिस्तान और मध्य एशिया के बाज़ारों में सीधे पहुँच मिलती है तथा साथ ही पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट पर हो रही  चीन की सामरिक गतिविधियों पर भी नज़र बनी रहती है। 
 
भारत तो यही चाहेगा कि दूसरी बार भी हसन रूहानी ही निर्वाचित हों और व्यापारिक संबंधों में घनिष्ठता बढ़े। दूसरा बड़ा कारण यह है कि भारत को ईरान का साथ चाहिए पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए। भारत और अफ़ग़निस्तान के साथ ईरान भी पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियों से परेशान है और पिछले हफ्ते ही ईरान, पाकिस्तान को  घर में घुसकर आतंकवादियों के ठिकानों को नष्ट करने की चेतवानी भी दे चुका है। इस तरह अफगानिस्तान, ईरान और भारत के साथ रहने से पाकिस्तान पर निरंतर दबाव बना ही रहेगा। हमारा विश्वास है कि उदारवाद से राष्ट्रवाद से कट्टरवाद से पुनः उदारवाद का सिलसिला यूं चलता ही रहेगा जब तक कि विश्व समाज इनके गुण-दोषों से अच्छी तरह परिचित नहीं हो जाता और तभी विश्व एक संतुलन की अवस्था को प्राप्त करेगा।
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