समस्याओं का मूल कहां है?

-ललित गर्ग
 
हर मनुष्य सफल होना चाहता है और सफलता के लिए जरूरी है समस्याओं से संघर्ष। समस्याओंरूपी चुनौतियों का सामना करने, उन्हें सुलझाने में जीवन का उसका अपना अर्थ छिपा हुआ है। समस्याएं तो एक दुधारी तलवार होती हैं, वे हमारे साहस, हमारी बुद्धिमत्ता को ललकारती हैं और दूसरे शब्दों में वे हम में साहस और बुद्धिमानी का सृजन भी करती हैं। मनुष्य की तमाम प्रगति, उसकी सारी उपलब्धियों के मूल में समस्याएं ही हैं। यदि जीवन में समस्याएं नहीं हों तो शायद हमारा जीवन नीरस ही नहीं, जड़ भी हो जाए। किसी ने सटीक कहा है कि-
 
हर मुश्किल के पत्थर को बनाकर सीढ़ियां अपनी,
जो मंजिल पर पहुंच जाए उसे 'इंसान' कहते हैं।
 
प्रख्यात लेखक फ्रेंकलिन ने सही ही कहा था- 'जो बात हमें पीड़ा पहुंचाती है, वही हमें सिखाती भी है।' और इसलिए समझदार लोग समस्याओं से डरते नहीं, उनसे दूर नहीं भागते।
 
बाबा आमटे ने भी एक जगह लिखा है- 'समस्याओं को आगे बढ़कर गले लगाइए, उसी तरह जैसे कोई जवां मर्द बैल से डरकर भागता नहीं, आगे बढ़कर उसके सींग पकड़ता है, उससे जूझता है, उस पर काबू करता है। हम सब में ऐसा ही उत्साह, ऐसी ही ललक, ऐसी ही बुद्धि होनी चाहिए, समस्याओं से जूझने के लिए।' 
 
पर अधिकांश लोग इतने बुद्धिमान, ऐसे उत्साह से भरे नहीं होते। समस्याओं में छिपे दर्द से बचने के लिए हम में से अधिकांश लोग, उन समस्याओं से कतराने की कोशिश करते हैं, हम उनसे मुंह मोड़ना चाहते हैं, उन्हें अनदेखा करना चाहते हैं, उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखना चाहते हैं, उन्हें भूल जाना चाहते हैं। कभी-कभी समस्याओं का अस्तित्व भी है, यह ही नहीं मानते। सोचते हैं, ऐसा रुख अपनाने से शायद समस्याएं अपने आप गायब हो जाएंगी। कभी-कभी इन समस्याओं की उपेक्षा करने, उन्हें भूलने के लिए मादक द्रव्यों का सहारा भी लेते हैं- शराब, सिगरेट, नींद की गोलियां आदि।
 
समस्याओं से आगे बढ़कर जूझने की बजाय हम उनसे बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं। उनकी पीड़ा भुगतने की बजाए हम उनसे दूर भाग जाना चाहते हैं। समस्याओं से कतराने, उनमें छिपी भावनात्मक व्यथा से बचकर निकल जाने की यह प्रवृत्ति ही मनुष्य की तमाम मानसिक रुग्णता का मूल कारण है। ऐसी प्रवृत्ति हम सभी में न्यूनाधिक रूप में विद्यमान है और हम सभी मानसिक रुग्णता के शिकार हैं। कभी कम, कभी अधिक। इसी कारण हम मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ भी नहीं होते। कभी-कभी हम समस्याओं के स्पष्टतः बुद्धिमत्तापूर्ण अच्छे समाधान खोजने की चेष्टा करने के बजाय कल्पना लोक में विचरकर उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं। ऐसे कल्पना लोक में जो यथार्थ से, वास्तविकता से बहुत दूर होता है।
 
जिंदगी कठिन है- अधिकांश लोग इस सत्य को नहीं देख पाते या देखना नहीं चाहते। इसके बदले वे संताप करते रहते हैं कि उनकी जिंदगी में समस्याएं ही समस्याएं हैं। वे उनकी विकरालता, उनके बोझ की ही शिकायत करते रहते हैं। परिवार में, मित्रों में इसी बात का रोना रोते रहते हैं कि उनकी समस्याएं कितनी पेचीदी, कितनी दुःखदायक हैं और उनकी दृष्टि में ये समस्याएं न होतीं तो उनका जीवन सुखद, आसान होता। उनके लिए ये समस्याएं उनकी अपनी करनी का फल नहीं, वे उन पर औरों द्वारा थोपे गए अभिशाप हैं। असल में समस्याएं विकराल होती ही इसलिए हैं कि हम उनको अपनी गलतियों का परिणाम न मानकर दूसरों को इनका कारण मानते हैं।
 
हमारा जीवन दुखी एवं कठिन इसलिए है कि हम समस्याओं का सामना करने और उन्हें सुलझाने को एक पीड़ादायक व कष्टकारक प्रक्रिया मानते हैं जबकि ऐसा नहीं होता। समस्याएं हैं तो उनका समाधान भी होता ही है। समस्याओं को आप किस नजरिए से देखते हैं, उसी आधार पर उनके समाधान भी सरल या जटिल प्रतीत होते हैं।
 
एक बार एक महिला ने स्वामी विवेकानंद से कहा, 'स्वामीजी, कुछ दिनों से मेरी बाईं आंख फड़क रही है। यह कुछ अशुभ घटने की निशानी है। कृपया मुझे कोई ऐसा तरीका बताएं जिससे कोई बुरी घटना मेरे यहां न घटे।' 
 
उसकी बात सुन विवेकानंद बोले, 'देवी, मेरी नजर में तो शुभ और अशुभ कुछ नहीं होता। जब जीवन है तो इसमें अच्छी और बुरी दोनों ही घटनाएं घटित होती हैं। उन्हें ही लोग शुभ और अशुभ से जोड़ देते हैं।'
 
महिला बोली, 'पर स्वामीजी, मैंने अपने पड़ोसियों के यहां देखा है कि उनके घर में हमेशा शुभ घटता है। कभी कोई बीमारी नहीं, चिंता नहीं जबकि मेरे यहां आए दिन कुछ न कुछ अनहोनी घटती रहती है।'
 
इस पर स्वामीजी मुस्कराकर बोले, 'शुभ और अशुभ तो सोच का ही परिणाम है। कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जिसे केवल शुभ ही शुभ या केवल अशुभ कहा जा सके। जो आज शुभ मालूम पड़ती है, वही कल अशुभ हो सकती है, जैसे एक कुम्हार ने बर्तन बनाकर सुखाने के लिए रखे हैं और वह तेज धूप की कामना कर रहा है ताकि बर्तन अच्छी तरह सूखकर पक जाएं, दूसरी ओर एक किसान वर्षा की कामना कर रहा है ताकि फसल अच्छी हो। ऐसे में धूप और वर्षा जहां एक के लिए शुभ है, वहीं दूसरे के लिए अशुभ। यदि वर्षा होती है तो कुम्हार के घड़े नहीं सूख पाएंगे और यदि धूप निकलती है तो किसान की फसल अच्छी तरह नहीं पकेगी इसलिए व्यक्ति को शुभ और अशुभ का खयाल छोड़कर केवल अपने नेक कर्मों पर ध्यान लगाना चाहिए तभी जीवन सुखद हो सकता है।' 
 
हेनरी वार्ड बीचर ने मार्मिक उक्ति दी है कि 'मुश्किलें वे औजार हैं जिनसे ईश्वर हमें बेहतर कामों के लिए तैयार करता है।'
 
कभी मुंबई जैसी मूसलधार वर्षा होती है और कभी राजस्थान जैसी चिलचिलाती धूप, किंतु आकाश वर्षा में गीला नहीं होता, धूप में गर्म नहीं होता और सर्दी में ठिठुरकर कपड़ा नहीं ओढ़ता, क्योंकि आकाश वर्षा, सर्दी, गर्मी से अतीत है। उस पर इनका प्रभाव नहीं होता, जबकि हमारी चमड़ी पर इनका असर होता है।
 
समस्याएं आकाश की तरह बनने पर ही मिट सकती हैं, मिटाई जा सकती हैं, किंतु यदि हम केवल चर्ममय रह जाएंगे तो समस्याएं कभी नहीं सुलझने वाली हैं। अनंतकाल बीत गया किंतु समस्याओं का कभी अंत हुआ हो, ऐसा नहीं दिखाई देता। जब तक मनुष्य है, उसके पास चिंतन और विचार हैं तब तक समस्याएं रहेंगी। यदि व्यक्ति गहरी निद्रा में सो जाए, चिंतन बंद हो जाए और प्रलय जैसा ही कुछ हो जाए तो संभव है समस्या नहीं रहे अन्यथा समस्या रहेगी।
 
विंस्टन चर्चिल का कथन चिंतन को विवश करता है कि 'आशावादी व्यक्ति हर आपदा में एक अवसर देखता है जबकि निराशावादी व्यक्ति हर अवसर में एक आपदा देखता है।'
 
यह हमारी दृष्टि ही है, जो हमारे मन में कभी निराशा, कभी हताशा, कभी एकाकीपन-अकेलेपन का भाव भरती है। कभी वे हम में व्यथा को जन्म देती है और कभी अपराध-बोध की भावना को या फिर कभी खेद को, कभी क्रोध को, कभी भय और कभी एक पराभूत मनःस्थिति को। और विभिन्न प्रसंगों, घटनाओं, संघर्षों या मतभेदों के कारण जन्मी इसी पीड़ा को सामान्यतः हम समस्या मानते हैं। जिंदगी फूलोंभरा ही रास्ता नहीं है, वह ऐसा ही समस्याओं के कांटों से पग-पग भरा है इसलिए जिंदगी सदैव कठिन ही होती है, कांटोंभरी ऐसा ही नहीं है, बल्कि वह फूलोंभरी भी होती है।
 
आज हमारी समस्या यह है कि कुछ व्यक्ति केवल अध्यात्म को लेकर बैठे हैं और कुछ केवल भौतिकता को पकड़े हुए हैं। दोनों अपने-अपने सिरों को तानकर बैठे हैं। जहां अध्यात्म है वहां व्यावहारिकता का सामंजस्य नहीं है। एकांगीपन ही समस्या है। कौवे को काना माना जाता है, क्योंकि वह एक ही गोलक से दोनों आंखों का काम चलाता है। उसमें एकांगीपन है। यह एकांगी दृष्टि है। मनुष्य भी आज सर्वांगीण दृष्टि से देखना नहीं चाहता। उसके मन पर आवरण आ गया है। 
 
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने इसीलिए कहा कि 'संसार में समस्या यह है कि मूढ़ लोग अत्यंत संदेहरहित होते हैं और बुद्धिमान संदेह से परिपूर्ण।'
 
'जो अध्यात्म को जानता है वह भौतिकता को जानता है', धार्मिकों ने इसे पकड़कर सोच लिया कि धर्म से धन, रोटी, पुत्र सुख-वैभव सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। धर्म के द्वारा इन सभी समस्याओं को सुलझाना कठिन होगा। प्यास पानी पीने से मिटेगी, भूख रोटी खाने से शांत होगी और पैसा पुरुषार्थ से प्राप्त होगा। समस्याओं के सुलझाने में यथार्थ दृष्टि होनी चाहिए।
 
दूसरी ओर व्यवहार को पकड़ने वाले व्यक्ति सभी समस्याओं को सुलझाने में केवल व्यवहार को ही उपयोगी मानते हैं। वे धर्म और अध्यात्म को अनुपयोगी कहते हैं, अनावश्यक समझते हैं। अर्थशास्त्री भौतिक सामग्री के उत्पादन पर बल देते हैं किंतु क्या मनुष्य के सामने केवल भूख, प्यास, कपड़े आदि की ही समस्या है? क्या इससे भी अतिरिक्त मन की सबसे बड़ी समस्या उसके सामने नहीं है?
 
समस्या बाहर से आती है किंतु उसका मूल कहां है? प्रयाग में त्रिवेणी है, किंतु उसका मूल स्रोत कैलाश है। हमारी समस्याएं भी बाहर के विस्तार से आ रही हैं किंतु उनका मूल हमारे मन में है। 95 प्रतिशत समस्याएं हमारे मन से उत्पन्न होती हैं। जटिल और मूल समस्या है मन की। घर में धन-दौलत, पुत्र परिवार, स्वास्थ्य सब कुछ होते हुए भी कलह है, भाई-भाई में झगड़ा है, पिता पुत्र लड़ते हैं और कहीं भी शांति नहीं। जहां संपन्नता ज्यादा है, वहां झगड़े और अशांति भी अधिक है। अभाव में इतने झगड़े और कलह नहीं दिखते, क्योंकि जिसके लिए झगड़े होते हैं वह वहां है ही नहीं। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि समस्या भौतिक पदार्थों की ही नहीं, मन की भी है।
 
क्रोध, लोभ, भय, मोह, वासना, घृणा, ईर्ष्या, शोक आदि मन के ये आवेग जब तक जीवित हैं, तब तक समस्या सुलझने वाली नहीं, चाहे कोई भी मोदीवाद आ जाए। कोई भी वाद इन समस्याओं को सुलझा नहीं सकता। 

वेबदुनिया पर पढ़ें