प्रश्न है देशों का निर्माण कैसे हुआ? भौगोलिक स्थितियों के अनुसार लोगों का रहन-सहन लगभग एक समान ही होता है। नदियों, पहाड़ों, रेगिस्तानों जैसी प्राकृतिक बाधाओं ने प्राचीन समय में देशों की सीमाएं निर्धारित कीं। इतिहास साक्षी है कि एक ही विचारधारा और धर्म के मानने वाले भी एक ही राज्य के झंडे तले एकजुट होते रहे।
विस्तारवादी नीतियों से जब युद्ध राजधर्म-सा बन गया तो सेनाओं को एकजुट रखने में भी धर्म का उपयोग किया गया। पिछली सदी में जब दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का महत्व बढ़ा तो विस्तारवादी युद्धों की वैश्विक भर्त्सना होनी शुरू हुई। किंतु आज भी देशों के नक्शे क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति, राष्ट्रों की शक्ति-संपन्नता, वैचारिक और धार्मिक आधारों पर ही तय हो रहे हैं।
भारत एक लोकतांत्रिक विश्व-शक्ति है। हमारा संविधान हमें धार्मिक स्वतंत्रता देता है। संविधान के अनुच्छेद (25-28) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित है जिसके अनुसार नागरिकों को अंत:करण और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता, धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता, किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता तथा धार्मिक शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में भारत के हर नागरिक को संविधान द्वारा स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
हमारा संवैधानिक स्वरूप धर्मनिरपेक्ष है किंतु फिर भी देश में राजनीति धर्म-आधारित ही है। चुनावों में सरेआम धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर वोटों का अंदाजा लगाकर पार्टियां उम्मीदवार तय करती हैं। मीडिया जातिगत वोटों की खुलेआम चर्चा करता है, पर चुनाव आयोग मौन रहता है!
मुझे लगता है देश में संविधान को गिने-चुने लोगों द्वारा आम जनता पर थोपा गया है। यह ठीक रहा, क्योंकि संविधान व्यापक रूप से जनहितकारी है, पर जनमानस से ऐसे उदार संविधान की मांग उठने से पहले ही संविधान बना दिया गया जिसके चलते आम आदमी संविधान के महत्व से अपरिचित है और इतर संवैधानिक गतिविधियों में संलग्न है। आज जरूरत लगती है कि देश की जनता को संविधान से परिचित करवाने के लिए अभियान चलाया जाए जिससे कि आज के युवा नागरिक भी अपने संविधान पर गर्व करें और तदनुसार आचरण करें।
कश्मीर से हिन्दू पंडितों का विस्थापन और अब उन्हें पुनः वहां बसाने को लेकर राजनीति गर्माई हुई है। पूर्वोत्तर के राज्यों में ईसाई धर्म का बाहुल्य है और विदेशी ताकतें व ईसाई मिशनरियां धर्म के आधार पर वहां एकजुटता बनाकर देश-विरोधी संगठन खड़े करती रहती हैं। तमिलनाडु में धर्म के आधार पर ही श्रीलंका से सिंहली कनेक्शन रहे हैं। राजीव गांधी की हत्या इसका ही दुष्परिणाम था। केरल में क्रिश्चियनिटी के कारण ही एक ही दल लगातार सत्ता पर बरसों से काबिज बना रहा है।
हिन्दी बहुल क्षेत्रों की बात की जाए तो धर्म ही नहीं, जाति के आधार पर भी ध्रुवीकरण की तस्वीर साफ दिखती है। बिहार और उत्तरप्रदेश में यादवों का बोलबाला है। उत्तरप्रदेश में राम मंदिर के निर्माण को मुद्दा बनाकर यदि चुनाव लड़ा जाए, दलितों की अलग राजनीतिक पार्टी ही बन जाए और राजनेताओं द्वारा मुस्लिम तुष्टिकरण से वोट पाने की होड़ लगाई जाए तो मेरी समझ में यह संविधान का खुल्लम-खल्ला मजाक है, जो सरेआम ताल ठोंककर राजनेता उड़ा रहे हैं व आम जनता दिग्भ्रमित है। गुजरात का पटेल आंदोलन तथा हरियाणा व राजस्थान का जाट आंदोलन ताजातरीन बात है।
1956 में जब प्रदेशों की पुनर्स्थापना की गई तो मध्यप्रदेश की राजधानी जबलपुर की जगह भोपाल में इसी आधार पर बनाई गई थी कि भोपाल में मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण वहां राजधानी बनने से गैरमुस्लिमों की पदस्थापनाएं हों और धार्मिक समरसता बन सके। किसी हद तक भोपाल के इस प्रयोग ने एक अच्छा उदाहण भी प्रस्तुत किया। आज भी धार्मिक दंगे उन्हीं क्षेत्रों में होते हैं, जहां किसी एक धर्म या जाति का बाहुल्य है। आबादी की धार्मिक समरसता व संतुलन से मिलनसारिता बढ़ती ही है, ऐसा ही सारे देश में किया जाना जरूरी है।
कश्मीर में हिन्दू पंडितों के लिए सैनिक सुरक्षा में अलग कॉलोनी बसाने की बात कुछ ऐसी है, जैसे वहां के मुसलमान कोई जंगली जानवर हों। मैं हाल ही कश्मीर घूमकर लौटा। यद्यपि यह सही है कि मैं वहां टूरिस्ट था और टूरिज्म आधारित व्यवसाय होने के कारण मेरे साथ संपर्क में आए मुसलमानों का व्यवहार हमारे प्रति अतिरिक्त रूप से उदार रहा होगा, पर जब एक ही शहर में रहना हो, साथ-साथ जीना हो तो किसी जाति विशेष के लिए बिलकुल अलग कॉलोनी बसाने के प्रस्ताव का कोई भी समझदार व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता।
कश्मीर में इस तरह की घटिया राजनीति करने की अपेक्षा वहां स्थायी रूप से इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट की आवश्यकता है। सरकारें वहां फोरलेन सड़कें बनवा दें, बिजली व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण कर टूरिज्म के विकास हेतु जरूरी कार्य कर दें, बाकी सब वहां की जनता स्वयं ही कर लेगी।
जब वहां रोजगार के पर्याप्त संसाधन होंगे तो वहां के युवा पढ़े-लिखे मुसलमान विस्थापित हिन्दू पंडितों को ही नहीं, हर भारतवासी को धारा 370 की अवहेलना करते हुए वहां अपने साथ बसने देंगे। यह बात मैं कश्मीर में वहां के लोगों से अनौपचारिक चर्चा के आधार पर कह रहा हूं।
जैसे प्रयत्न अभी राजनेता कश्मीरी पंडितों को बसाने के लिए कर रहे हैं उससे तो स्थायी वैमनस्यता और वर्ग-संघर्ष को जन्म मिलेगा। देश के अनेक शहरों में भी बांग्लादेश से आए हुए शरणार्थियों की अलग कॉलोनियां बनी हुई हैं या मुसलमानों ने या सिंधियों ने अनेक शहरों में क्षेत्र विशेष में अलग कोनों में बसाहट की हुई है।
प्रशासन के लोग समझते हैं कि जहां भी इस तरह की असंतुलित आबादी की बस्तियां हैं वहां त्योहार विशेष या धार्मिक असद्भाव फैलने पर कितनी कठिनाई से लॉ एंड ऑर्डर मेंटेन हो पाता है। गुजरात में बिल्डिंग विशेष उपद्रवियों का निशाना इसीलिए बन सकी, क्योंकि वहां धर्म-विशेष के लोग रहते थे।
मेरा सुझाव है कि कानून बनाकर जातिगत या धर्मगत आधार पर कॉलोनियों और बिल्डिंगों में एकसाथ एक ही वर्ग के लोगों के रहने पर रोक लगा देनी चाहिए। इस तरह के आवासीय ध्रुवीकरण की कल्पना तक संविधान निर्माताओं ने नहीं की होगी। वर्ग-विशेष के लोग यदि इस तरह की आवास व्यवस्था में स्वयं को सुरक्षित मानते हैं तो ऐसी परिस्थितियों के लिए गत 70 वर्षों की राजनीति ही दोषी कही जाएगी।
संविधान-निर्माताओं के सपने का सच्चा धर्मनिरपेक्ष भारत तभी वास्तविक स्वरूप ले सकता है, जब सारे देश के हर हिस्से में सभी धर्मों के लोगों का स्वतंत्र बिखराव हो, यह देश की अखंडता के लिए आवश्यक है।
आशा है, राजनेता क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठकर देश के दीर्घकालिक व्यापक हित में इस दिशा में चिंतन, मनन और काम करेंगे अन्यथा नई पीढ़ी के पढ़े-लिखे लड़के-लड़कियों ने जैसे आज विवाह तय करने में माता-पिता और परिवार की भूमिका को गौण कर दिया है, उसी तरह सरकारों को दरकिनार करके समाज को देश की धार्मिक अखंडता के लिए स्वत: ही कोई-न-कोई कदम उठाना ही पड़ेगा।