अभी मुकम्मिल कामयाबी से दूर है हमारा गणतंत्र

अपने गणतंत्र के 69वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यही हो सकती है कि क्या वाकई तंत्र और गण के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया है, जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है? आखिर आजादी और फिर संविधान के पीछे मूल भावना तो यही थी।


महात्मा गांधी ने इस संदर्भ में कहा था- 'मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करूंगा जिसमें छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उसका योगदान है और उसकी आवाज का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करूंगा, जहां ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होगा, जहां स्त्री-पुरुष के बीच समानता होगी और इसमें नशे जैसी बुराइयों के लिए कोई जगह नहीं होगी।’
 
 
दरअसल, भारतीय गणतंत्र के मूल्यांकन की यही सबसे बड़ी कसौटी हो सकती है। भारत के संविधान में राज्य के लिए जो नीति-निर्देशक तत्व हैं, उनमें भारतीय राष्ट्र-राज्य का जो आंतरिक लक्ष्य निर्धारित किया गया है, वह बिलकुल गांधीजी और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अन्य नायकों के विचारों का दिग्दर्शन कराता है।
 
 
लेकिन हमारे संविधान और उसके आधार पर कल्पित और मौजूदा साकार गणतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि जो कुछ नीति-निर्देशक तत्व में है, राज्य का आचरण कई मायनों में उसके विपरीत है, मसलन प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा इस तरह करना था जिसमें स्थानीय लोगों का सामूहिक स्वामित्व बना रहे और किसी का एकाधिकार न हो, गांवों को धीरे-धीरे स्वावलंबन की ओर अग्रसर करना था।
 
लेकिन हम गणतंत्र की 68वीं सालगिरह मनाते हुए देख सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय निवासियों का स्वामित्व धीरे-धीरे खत्म हो गया और सत्ता में बैठे राजनेताओं और नौकरशाहों से साठगांठ कर औद्योगिक घराने उनका मनमाना उपयोग कर रहे हैं और यह सब राज्य की नीतियों के कारण हो रहा है।
 
हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि आजाद भारत का पहला बजट 193 करोड़ का था और हमारा 2017-18 का बजट करीब 21,47,000 करोड़ रुपए का है। यह एक देश के तौर पर हमारी असाधारण उपलब्धि है। इसी प्रकार और भी कई उपलब्धियों की गुलाबी और चमचमाती तस्वीरें हम दिखा सकते हैं, मसलन 1947 में देश की औसत आयु 32 वर्ष थी, अब यह 68 वर्ष हो गई है। उस समय पैदा लेने वाले 1,000 शिशुओं में से 137 तत्काल मर जाते थे, आज केवल 53 मरते हैं। उस समय साक्षरता दर करीब 18 फीसदी थी, जो आज 68 फीसदी से ज्यादा है। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जिनके आधार पर दुनिया भारतीय गणतंत्र के अभी तक के सफर की सराहना करती है।
 
 
एक समय दुनिया के जो देश भारत को दीन-हीन मानते थे, वे ही इसे भविष्य की महाशक्ति मानकर इसके साथ संबंध बनाने में गर्व महसूस करते हैं। यह सब फौरी तौर पर तो हमारे गणतंत्र की सफलता का प्रमाण है। लेकिन जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि गणतांत्रिक भारत का हमारा लक्ष्य क्या था? तो फिर सतह की इस चमचमाहट के पीछे गहरा स्याह अंधेरा नजर आता है। भयावह भ्रष्टाचार, भूख से मरते लोग, पानी को तरसते खेत, काम की तलाश करते करोड़ों हाथ, देश के विभिन्न इलाकों में सामाजिक और जातीय टकराव के चलते गृहयुद्ध जैसे बनते हालात, बेकाबू कानून-व्यवस्था और बढ़ते अपराध की स्थिति हमारे गणतंत्र की सफलता को मुंह चिढ़ाती है।
 
 
फिर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि भारत में गणतंत्र पूरी तरह असफल हो गया। असल समस्या कहीं और है। दरअसल, भारत का गणतंत्र शहरों तक सिमटकर रह गया है और शहरी लोगों के पास कोई राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं है इसीलिए उन्होंने गांवों से नाता तोड़ लिया है। सरकार को किसानों की चिंता हरित क्रांति तक ही थी ताकि अन्न के मामले में देश आत्मनिर्भर हो जाए और उसके बाद गांवों और किसानों को उनकी किस्मत के हवाले कर दिया गया। यही वजह है कि पिछले 1 दशक में 2 लाख से भी ज्यादा किसानों के आत्महत्या कर लेने पर भी हमारा गणतंत्र 'विचलित' नहीं हुआ।
 
 
इस लिहाज से कह सकते हैं कि हमारा गणतंत्र शहरों में तो अपेक्षाकृत सफल हुआ है, पर गांवों को विकास की धारा में शामिल करने में पूरी तरह विफल रहा। इस कमी को दूर करने के लिए पंचायतीराज शुरू किया गया, मगर ग्रामीण इलाकों में निवेश नहीं बढ़ने से पंचायतें भी गांवों को कितना खुशहाल बना सकती हैं? इन्हीं सब कारणों के चलते हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप गांव स्वावलंबन की ओर अग्रसर होने की बजाय अतिपरावलंबी और दुर्दशा के शिकार होते गए हैं। गांव के लोगों को सामान्य जीवन-यापन के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ रहा है।
 
 
गांवों का क्षेत्रफल कितनी तेजी से सिकुड़ रहा है इसका प्रमाण 2011 की जनगणना है। इसमें पहली बार गांवों की तुलना में शहरों की आबादी बढ़ने की गति अब तक की जनगणनाओं में सबसे ज्यादा है। शहरों की आबादी 2001 के 27.81 फीसदी से बढ़कर 31.16 फीसदी हो गई जबकि गांवों की आबादी 72.19 फीसदी से घटकर 68.84 फीसदी हो गई। इस प्रकार गांवों की कब्रगाह पर विस्तार ले रहे शहरीकरण की प्रवृत्ति हमारे संविधान की मूल भावना के विपरीत है। हमारा संविधान कहीं भी देहाती आबादी को खत्म करने की बात नहीं करता, पर हमारी आर्थिक नीतियां वही भूमिका निभा रही हैं और इसी से गण और तंत्र के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है।
 
 
भारतीय गणतंत्र की मुकम्मिल कामयाबी की एकमात्र शर्त यही है कि जी-जान से अखिल भारतीयता की कद्र करने वाले तबके की अस्मिता और संवेदनाओं की कद्र की जाए। आखिर जो तबका हर तरह से वंचित होने के बाद भी शेषनाग की तरह भारत को टिकाए हुए है, उसकी स्वैच्छिक भागीदारी के बगैर क्या कोई गणतंत्र मजबूत और सफल हो सकता है? जो समाज स्थायी तौर पर विभाजित, निराश और नाराज हो, वह कैसे एक सफल राष्ट्र बन सकता है?

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