जनमत की रामशक्ति ही परास्त करेगी रावणों को

राम सर्वव्यापी हैं किंतु अदृश्य हैं, क्योंकि वे जनता के मानस में छुपे हैं। उसी प्रकार रावण भी सर्वत्र तो हैं परंतु भेद इतना है कि वे दृष्टिगोचर हैं। ये रावण उपस्थित हैं- हर काल में, हर समाज में, हर शहर और हर राष्ट्र में, अलग-अलग भेस में, विभिन्न मुखौटों और परिधानों में।

दुर्भाग्य है कि मानव के मानस में रावण चेतन है और राम अवचेतन इसलिए रावण को आकार और विस्तार लेने में आसानी होती है। रावण का वध करने के लिए या तो राम को अवतरित होना पड़ता है या फिर जनता के मानस में अवस्थित अवचेतन राम को जागृत करने के लिए किसी नायक को आगे आना पड़ता है।

ऊपर व्यक्त विचार और शब्द भारतवासियों के लिए नए नहीं हैं, जो रामकथा पर जीवन आश्रित करके चलते हैं और प्रतिवर्ष दशहरा मानते हैं। वे राम के रामत्व और रावण के रावणत्व से भली-भांति परिचित हैं किंतु इस कथा के समानांतर स्थितियां जब विदेशों में देखने को मिलती हैं, तो जिज्ञासा और कौतूहल स्वाभाविक ही बहुत बढ़ जाता है।

आज के मिस्र की कहानी भी कुछ इसी दर्शन पर आधारित है। मिस्र की सभ्यता दुनिया की 3 सबसे प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इतिहासकारों की मानें तो यह सभ्यता ईसा पूर्व लगभग 3,000 वर्ष पुरानी है अर्थात आज के संदर्भ में यह लगभग 5,000 साल पुरानी हो चुकी है।

यदि समय विकास का मानक होता तो यह देश आज विकसित देशों की अग्रिम पंक्ति में होता किंतु समय-समय पर इस देश का नेतृत्व ऐसे रावणों ने किया जिन्होंने इस सभ्यता को कई दशकों पीछे धकेल दिया। आज यह सभ्यता पूरी तरह दिग्भ्रमित हो चुकी है।

सन् 1960 से यह देश सेना की तानाशाही के अधीन रहा। इनमें से 30 वर्षों तक होस्नी मुबारक का अधिनायकवादी शासन था यानी एक पूरी पीढ़ी अधिनायकवादी शासन में खप गई। सन् 2010 में होस्नी मुबारक के शासन के विरुद्ध जन-विप्लव हुआ और जनता ने तानाशाह को उखाड़ फेंका, किंतु 60 वर्षों के अत्याचारी शासन में जो राजनीतिक शून्य पैदा हो गया था, उसे भरने वाला कोई नहीं था।

खैर चुनाव तो किसी तरह हुए किंतु सत्ता पर मुस्लिम अतिवादी संगठन का कब्जा हो गया, क्योंकि यही एक संस्था थी, जो संगठित दल के रूप में चुनाव लड़ पाई थी। मिस्र की धर्मनिरपेक्ष और विकासवादी जनता को यह शासन अधिक समय तक रास नहीं आया और 1 वर्ष के भीतर ही पुनः चुनी हुई सरकार के विरुद्ध जन आंदोलन आरंभ हो गया।

सेना ने जनता के इस गुस्से का लाभ लिया और इस अतिवादी संगठन की सरकार को उखाड़ दिया। जनता का समर्थन होने से सेना का जनरल अब्देल फतह अल सिसी देश का हीरो बन गया और राष्ट्रपति बनकर उसने देश की बागडोर संभाल ली। यह वही सेना थी जिसने होस्नी मुबारक के समय देश पर राज किया यानी मिस्र पुनः वहीं पहुंच गया, जहां जनआंदोलन के पहले था।

कुछ ही महीनों में सेना के जनरल की मंशा समझ में आने लगी। उसने शीघ्र चुनाव करवाने का आश्वासन तो दिया, परंतु विभिन्न बहानों से चुनावों को टालता रहा। अब 3 वर्षों पश्चात जाकर कहीं चुनाव की प्रक्रिया आरंभ की, वह भी तब जब उसने विपक्ष को पूरी तरह कुंद कर दिया। विपक्ष को कुचलकर धीरे-धीरे इस जनरल ने सत्ता पर अपना शिंकजा मजबूत कर लिया।

इस सप्ताह चुनाव तो हुए किंतु मात्र 26 प्रतिशत लोगों ने ही अपने मताधिकार का उपयोग किया, क्योंकि जनता की रुचि इन दिखावटी चुनावों में नहीं रही। जनता की मजबूरी थी कि चुनावों में उनके सामने राष्ट्रपति समर्थक उम्मीदवारों के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था।

यद्यपि चुनाव के दो चरण और शेष हैं तथा परिणाम दिसंबर में आएंगे किंतु जनता जानती है कि इन चुनावों में जीतने वाला हर सांसद राष्ट्रपति सिसी के हाथ मजबूत करेगा और इस तरह एक नया होस्नी मुबारक बनने की राह आसान होगी।

इन परिस्थितियों में जनता का दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है। जिस सुनहरे भविष्य की आशा से उन्होंने जन आंदोलन में भाग लिया था, आज उस आंदोलन का परिणाम शून्य है। आंदोलन के बाद जनता की आकांक्षाएं और अभिलाषाएं आकाश छू रही थीं किंतु जनता आज अपने आपको आंदोलन पूर्व के हालातों में पाकर हताश हैं।

एक तूफान के गुजर जाने के बाद दूसरे तूफान का उठना इतना सुगम नहीं होता। वर्षों बीत जाते हैं। नया तूफान फिर नई पीढ़ी ही खड़ा कर पाती है। हमने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी यही देखा। सन् 1857 के संग्राम के बाद दूसरा आंदोलन खड़ा करने में कई दशक लग गए थे।

मिस्र प्रजातंत्र के मुहाने तक पहुंचकर वापस लौट गया। राष्ट्रपति का दावा है कि मिस्र में प्रजातंत्र की प्रक्रिया पूरी हुई किंतु विश्व जानता है कि यह देश पुनः अपने भूतकाल में लौट चुका है। मिस्र को चाहिए एक महानायक, जो कि विपक्षी शक्तियों को संगठित कर सके और खिवैया बनकर जनता को अत्याचारियों से मुक्ति दे अन्यथा एक वास्तविक प्रजातंत्र आने के लिए मिस्र को लंबा इंतजार करना होगा।

आशा करें कि मिस्र की यह अंधेरी रात अधिक लंबी न हो। ऐसा न हो कि एक रावण के शिकंजे से छूटे तो दूसरे का शिकार हो गए।

कथानक का सार वहीं आकर उभरता है कि रावणीय शक्ति तो बार-बार सिर उठाने को सफल हो जाती है, उसे समर्थक भी आसानी से मिल जाते हैं किंतु राम-तत्व बिखरा हुआ होता है और उसे संगठित होने में बहुत समय लगता है।

इस लेखक का मानना है कि अभी सौभाग्य से भारत में शीर्ष पर सकारात्मक शक्तियां कार्यशील हैं। हम सब का कर्तव्य है कि नकारात्मक शक्तियों के दमन और उन्हें उभरने न देने के प्रयासों में हम अपना सहयोग दें।

सुअवसर इतिहास में बार-बार नहीं आते...!

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