शिवराज ही कद्दावर साबित

मध्यप्रदेश के राजनीतिक गलियारों में जब यह चर्चाएं चल रही थीं कि शिवराजसिंह चौहान अपना तीसरा कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगे। एक ओर कैलाश विजयवर्गीय सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभर रहे थे तो दूसरी ओर अनिल माधव दवे और बाबूलाल गौर जैसे क्षत्रप अपनी तलवारें भांज रहे थे। इन्हीं क्षत्रपों की खींचतान के कारण चौहान अपने मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहे थे। तभी अचानक हवा बदली और चौहान एक बार फिर राज्य के इकलौते कद्दावर भाजपा नेता साबित हुए।
कैलाश और दवे को भाजपा आलाकमान ने केंद्रीय राजनीति में खींच लिया, तो गौर को वानप्रस्थ का रास्ता बता दिया गया। इसके बाद जुलाई माह में शिवराज चौहान ने आखिर अपना बहुप्रतीक्षित मंत्रिमंडलीय फेरबदल कर डाला। जैसी आशंका थी, फेरबदल के बाद असंतोष के स्वर तो जरूर उठे लेकिन इसमें उबाल नहीं आया और शिवराज यह बाधा पार करने में भी सफल साबित हुए।
 
दिग्गजों को वानप्रस्थ : अपनी पार्टी की केंद्र सरकार की तर्ज पर मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने भी बुजुर्ग नेताओं को वानप्रस्थ आश्रम भेजने की योजना पर क्रियान्वयन प्रारम्भ कर दिया है। पहली किश्त की गाज सर्वाधिक सुर्खियां बटोरने वाले नेता बाबूलाल गौर पर गिरी है। उनके साथ एक और दबंग नेता सरताजसिंह को भी मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।
 
आपको याद होगा केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार ने सत्ता संभालते वक्त फार्मूला बनाया था कि वह 75 पार के नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में ही रखेगी। उन्हें सक्रिय भूमिका नहीं सौंपी जाएगी। इस फार्मूले के तहत लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे खांटी नेताओं को सत्ता और लोकप्रियता कि मलाई से वंचित होना पड़ा था।
 
जिस तरह आडवाणी को प्रधानमंत्री पद की लालसा त्यागते हुए विदा होना पड़ा वैसे ही गौर भी दोबारा मुख्यमंत्री पद मिलने का ख्वाब देखते रहे हैं। आडवाणी व गौर में और भी कई समानताएं आप देख सकते हैं। दोनों अपनी दबंग छवि के लिए पहचाने जाते हैं। लगातार जीतने का रेकॉर्ड भी इनका है। ये हमेशा ख़बरों में बने रहे। हालांकि गौर अपने रसीले अंदाज के लिए थोड़ी अलग पहचान भी रखते हैं। 
 
दिल्ली का दखल : ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता कि फेरबदल की राह आसान थी। दिल्ली से आलाकमान प्रदेश की गतिविधियों पर लगातार नजर रख रहा था और प्रदेश के नेता भी लगातार दिल्ली की दौड़ लगा रहे थे। इसके चलते शिवराज चौहान को भी दिल्ली और आरएसएस का समर्थन हासिल करने के लिए नागपुर के चक्कर फेरबदल के दिन तक लगाने पड़े। फेरबदल के दिन तक उठापटक चली, लेकिन अंत तक शिवराज की ही चली और वे अपने मनमाफिक फेरबदल कर सके।
 
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है संजय पाठक का मंत्रिमंडल में शामिल होना। पाठक का नाम आखिरी क्षणों में जोड़ा गया। पाठक महाकौशल क्षेत्र के कांग्रेसी क्षत्रप रहे हैं, जिन्हें शिवराज ने बड़ी चतुराई से भाजपा में खींचा (संभवतः मंत्री पद का लालच देकर)। इस एंट्री की शिकायत आरएसएस तक गई और शिवराज, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकिशोर चौहान तथा प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत कि मंत्रणाएं आरएसएस कार्यालय शारदा विहार में चलती रहीं। इंदौर से शामिल होने वाले सुदर्शन गुप्ता का नाम भी ऐनवक्त पर काटा गया। गुप्ता के लिए लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने भरपूर जोर लगाया था, लेकिन कैलाश विजयवर्गीय के विरोध के चलते गुप्ता का नाम कट गया। कैलाश अपने कट्टर समर्थक रमेश मेंदोला को मंत्री बनवाना चाहते थे।
 
क्या बूढ़े बाप को घर से निकालने की संस्कृति सिखा रही भाजपा
मध्यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री रह चुके बाबूलाल गौर अपने निष्कासन से व्यथित हैं। वे कहते हैं कि क्या बूढ़े बाप को घर से निकालने की संस्कृति सिखा रही है भाजपा? उनके अनुसार दिल्ली के नेताओं ने मेरे सम्मान का क़त्ल किया है। फिर भी भाजपा नहीं छोड़ूंगा।पार्टी में पूरी जवानी खपा दी अब कहते हैं वृद्धाश्रम जाओ!
 
फार्मूला दोषपूर्ण : मंत्रिमंडल से हकाले गए दूसरे बूढ़े मंत्री सरताज की व्यथा भी कम नहीं है। वे कहते हैं कि पार्टी का ये फार्मूला दोषपूर्ण है। चयन का आधार छवि, जनाधार और परफॉरमेंस होना चाहिए, उम्र नहीं। शिवराज भी अच्छे काम की वजह से लोकप्रिय हैं, युवा होने की वजह से नहीं।

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