चिंताजनक है आतंकवाद के प्रति समर्थ देशों की बेरुखी

मध्यपूर्व के समाचार-पत्र इन चिंताओं से भरे पड़े हैं कि मध्यपूर्व के एक बड़े हिस्से की मानवता मानवीय हितों के क्रूर विरोधियों की निर्दयता का शिकार हो रही है। यह क्रूरता और निर्दयता जिस तीव्रता से पैर पसार रही है उस पर दुनिया की बेरुखी समझ से परे है। पिछले सप्ताह ट्‍यूनीशिया, कुवैत और फ्रांस में आतंकियों ने कत्लेआम किया। इस सप्ताह मिस्र में कई लोगों की जानें गईं। 
 
इन क्रूर कर्मियों के लिए भौगोलिक सीमाएं गौण हो चुकी हैं। चिंता की बात तो यह है कि मानवता को वर्तमान जागरूक युग से पीछे धकेलने की इनकी विचारधारा को समर्थन भी अच्छा मिल रहा है। ऐसा नहीं कि केवल गरीब तबका ही इनके साथ है जो धन के लालच में इनसे जुड़ा हो, पश्चिम का पढ़ा-लिखा युवा एवं महिला वर्ग भी इनके प्रभाव में आ रहा है जो काम आश्चर्यजनक नहीं है। विशेषज्ञ अपने-अपने तर्कों से इस प्रवृत्ति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर रहे हैं किन्तु सच्चाई यह है कि इसे बढ़ने से रोकने के लिए न तो किसी के पास  वक्त है और न ही कोई योजना। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की यह बेरुखी इन्हें अपने काले साम्राज्य का तेजी से विस्तार करने का अवसर दे रही हैं। महाशक्तियां अलग-अलग कारणों से क्यों व्यस्त हैं, उसी पर एक नज़र डालते हैं।  
 
यूरोप, ग्रीस के झमेले में ऐसा उलझा है कि उसे अन्य किसी बात की परवाह नहीं है। ग्रीस यूरोपीय संघ का एक देश है जो यूरोपीय संघ में शामिल तो हो गया किन्तु यूरोप की महंगी मुद्रा का भार नहीं झेल सका और दिवाला पीटने की कगार पर पहुंच चुका है। ग्रीस चाहता है कि यूरोप के शेष देश उसे खैरात दें जो यूरोप के अन्य देशों को मंजूर नहीं है। यदि ग्रीस यूरोपीय संघ से टूटता है तो स्वयं तो डूबेगा ही किन्तु इससे यूरोप को भी बहुत आर्थिक चोंट पहुंचेगी। इस समस्या के समाधान में पूरा यूरोप उलझा हुआ है और इस प्रकार उसे अपने से बाहर देखने की फुर्सत नहीं। 
 
इधर चीन अपनी नवअर्जित आर्थिक और सामरिक क्षमता का उपयोग पड़ोसी देशों को धमकाने के लिए कर रहा है। वह अपनी गली में तो शेर बना हुआ है किन्तु अंतरराष्ट्रीय मुद्दों में फंसने से डरता है। चीन का सारा ध्यान दक्षिण चीन सागर की सम्पदा हड़पने में है अतः या तो वह अभी किसी अंतरराष्ट्रीय मसले में उलझना नहीं चाहता या फिर किसी के आमंत्रण का इंतज़ार कर रहा है।
 
दूसरी तरफ चीन के बाजार से मंदी के संकेत मिल रहे हैं। चीन के शेयर बाजार में पिछले एक माह में बीस प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट दर्ज़ हो चुकी है। इन परिस्थितियों में चीन का अपने क्षेत्र से बाहर आना और भी दूभर दिखाई  पड़ता है।  
 
उधर रूस, अंतरराष्ट्रीय  बिरादरी द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों से परेशान है और स्वयं अपनी आर्थिक समस्याओं में उलझा हुआ है। चीन के साथ व्यापारिक समझौते करके अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करना चाह रहा था किन्तु अभी तो चीन की अर्थव्यवस्था स्वयं मुश्किल में है। दूसरी तरफ क्रीमिया और चेचन में उसके मोर्चे खुले हुए हैं ऐसे में रूस द्वारा नए मोर्चे खोलने की फिलहाल कोई संभावना नहीं दिख रही है। 
 
अब तक हर जगह टांग डालने वाला अमेरिका उन सभी स्थानों से अपने  निकलने के बहाने और मार्ग खोज  रहा है। सच यह है कि पिछले दशकों में विपुल  धन और जानमाल का  नुकसान करने के बाद  भी अमेरिका कुछ हासिल नहीं कर पाया। इसलिए राष्ट्रपति ओबामा भी अब किसी नए दुस्साहास के विरुद्ध हैं, ऐसे में अमेरिका से केवल एक सांकेतिक उपस्थिति के आलावा कोई बड़ी उम्मीद नहीं है।  
 
पश्चिमी राष्ट्रों को शायद लग रहा है कि इस क्षेत्र का आतंकवाद उनकी समस्या नहीं है। लेकिन अब हम अपने  अनुभव से जानते हैं कि  आतंक की कोई भौगोलिक सीमाएं नहीं होती। यदि सारे राष्ट्र मिलकर इसका मुकाबला करें तो समस्या हल होने में कुछ सप्ताह से ज्यादा समय नहीं चाहिए किन्तु ऐसी स्थिति में  राष्ट्रों को अपने स्वार्थ अलग रखने होंगे। प्रश्न है कि आतंकवादियों को समर्थन एवं आवश्यक संसाधन की आपूर्ति कौन कर रहा है? जाहिर है हवा में से तो नहीं आ रहे। यदि इनके साधनों की आपूर्ति रोक दी जाए तो आधी समस्या हल हो जाएगी। महाशक्तियां केवल एक बार मानवता के हित में अपने निजी स्वार्थ ताक पर रख दें तो सब संभव है। किन्तु हथियारों के सौदागरों से शांति की कामना कैसी? यदि इन्हें सद्बुद्धि मिल जाए एवं मानवता को धर्म और राजनीति  से अलग कर दें तो इन आतंकी खतरों का सामना तो ये छोटे-छोटे देश भी मिलकर लेंगे।
 
भारत तो हर उपलब्ध मंच से महाशक्तियों को लक्ष्य करके यह गुहार लगाता ही रहा है कि आतंकवाद को संकीर्ण राष्ट्रीय दृष्टिकोण से न देखकर मानवता के व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। भारत की कथनी और करनी में तो कहीं भेद नहीं है।  
 

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